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गवाक्ष

by
Dec 2, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Dec 2006 00:00:00

किसी दिये पे अंधेरा उछाल कर देखो

अभिव्यक्ति-मुद्राए

महफिलों के कहकहे जब छोड़ जाते हैं उदास,

मेरे बच्चों की हंसी से मुझको भर जाता है घर। -डा. रामदरश मिश्र

मयकदा थोड़ी राहत तो देगा मगर,

नींद आयेगी तब फिर कहां जायेंगे।-कृष्णानन्द चौबे

शब्द अपने आप गुम होने लगे,

जब भी पहुंचे प्रार्थनाओं के करीब। -जहीर कुरेशी

गांव में सावन सुलगता है,

दूरदर्शन पर घटाएं हैं।-जमुनाप्रसाद उपाध्याय

बहती नदी में कच्चे घड़े हैं रिश्ते-नाते-हुस्न-वफा,

दूर तलक ये बहते रहेंगे इसके भरोसे मत रहना।-हस्तीमल हस्ती

वामपंथी वृन्दा कारत द्वारा पिछले दिनों स्वामी रामदेव जी पर किये गये वाक् प्रहार की देशव्यापी सहज-स्फूर्त प्रतिक्रिया हुई और जो लोग पहले उनके प्रति उदासीनता का भाव रखते थे, वे भी उनके मुखर प्रशंसकों में परिवर्तित हो गये। वृन्दा जी का व्यक्तित्व इन दिनों विभिन्न धारावाहिकों में नजर आने वाली उन खलनायिकाओं की तरह लगने लगा जिनकी बाह्र सुन्दरता के चन्दन-लेप के नीचे ईष्र्या की दावाग्नि उपस्थित रहती है। स्वामी रामदेव जी की तरफ से कहा जाये तो-

उसने मुझ पे फेंके पत्थर और मैं पानी की तरह,

और ऊपर और ऊपर और ऊपर चढ़ गया।(कुंअर बेचैन)

जिस किसी ने भी रामदेव जी के राष्ट्रवादी विचारों को सुना है, पूरे ओजस्वी तेवरों के साथ उनकी विचार-प्रस्तुति देखी है तथा उनके योगासनों के प्रशिक्षण से थोड़ा भी लाभ उठाया है, वह उनके प्रति एक भावात्मक लगाव, एक गहन आदरभाव अनुभव करता है। यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि उनके योग-प्रचार अभियान से जिनको भारत जैसे बड़े बाजार में करोड़ों

रुपयों की क्षति पहुंच रही है वे उनके अभियान को कमजोर करने के लिए क्षुद्र षडंत्रों का सहारा ले रहे हैं, किन्तु वृन्दा कारत जैसी शख्सियत के इस षडंत्र का मोहरा बनने से आश्चर्य तो नहीं, क्षोभ बहुत हुआ। बहरहाल, वृन्दा जी को इस प्रकरण में पुन: डा. कुंअर बेचैन के ही दो शेर सुनाने का मन हो रहा है-

वो जिसमें लौ है विरोधों में और चमकेगा,

किसी दिये पे अंधेरा उछाल कर देखो।

तुम्हारे दिल की चुभन भी जरूर कम होगी,

किसी के पांव से कांटा निकालकर देखो।

जरा ठहरो

अखबारों में यह पढ़कर कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि सीमा पर सैनिक सतर्कता के कारण घुसपैठ में कई बार असफल हुए पाकिस्तानी आतंकवादी अब बड़ी शान के साथ पाकिस्तानी खुफिया एजेन्सी द्वारा उपलब्ध कराये गये जाली पासपोर्टों के सहारे समझौता एक्सप्रेस से हिन्दुस्थान में प्रवेश रहे हैं और धीरे-धीरे हमारे तमाम शहरों में फैलते जा रहे हैं। यहां उन्हें शरण देने वाले स्थलों की कोई कमी नहीं है। मुझे याद है कि अटल जी के प्रधानमंत्रित्व काल में जब आतंकवादियों के सामने पुन-पुन: निरीह मुद्रा में संवादों की पेशकश हो रही थी तो मैंने उन पर आक्षेप किया था-

कहां गई वो सिंह गर्जना मंगलकारी,

वो दिलकश तेवर वो कविता की चिनगारी।

किन्तु अब किससे क्या कहा जाये? तुष्टीकरण की नीति रोज नये शिखरों का आरोहण कर रही है। कश्मीर के विस्थापित पण्डितों का दर्द तो हमारे किसी भी राजनीतिक दल को कभी व्यापा ही नहीं क्योंकि वे लोग मात्र पीड़ित इकाई भर हैं, एक थोक वोट बैंक नहीं! अब जो आसार नजर आ रहे हैं उनके आधार पर अपने बेताब पड़ोसियों से कहना चाहता हूं-

जरा ठहरो, तुम्हारे ख्वाब की ताबीर दे देंगे,

तुम्हारे हाथ में कुल कौम की तकदीर दे देंगे।

फरिश्ता अम्न का बनने की जिद है राष्ट्र पुरुषों को,

ये खुद ही प्लेट में रखकर तुम्हें कश्मीर दे देंगे।

हमारी प्रगतिशीलता

स्व. उर्मिलेश जी अक्सर ये अशआर गुनगुनाया करते थे-

अब बुजुर्गों के फसाने नहीं अच्छे लगते,

मेरे बच्चों को ये ताने नहीं अच्छे लगते।

बेटियां जबसे बड़ी होने लगी हैं मेरी,

मुझको इस दौर के गाने नहीं अच्छे लगते।

जिन गानों की तरफ संकेत करते हुए उन्होंने अपनी ये विक्षोभ भरी टिप्पणी की थी, वह अब गुजरे जमाने की बात हो गई है, हमारी प्रगतिशीलता फिलहाल नये मानदण्ड स्थापित करने में संलग्न है। अभी कुछ दिन पूर्व एक चैनल पर गान-प्रतियोगिता हो रही थी। नई उम्र के अनेक प्रतिभागी पूरे उत्साह से अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे। इस प्रदर्शन के तुरन्त बाद उनकी प्रस्तुति पर युवा दर्शकों और श्रोताओं से प्रतिक्रियाएं मांगी गई और उन्हें पर्दे पर प्रसारित किया गया। अनेकानेक युवतियां भयावह उल्लास के साथ अपने-अपने पसन्दीदा गायक का नाम ले रही थीं। यहां तक तो बात अशोभन नहीं लगी, किन्तु उसके बाद मैं अपने देश की तरुणियों की प्रगल्भता को देख-सुन कर स्तब्ध रह गया। उन युवतियों को कोई खास गायक इसलिए अच्छा नहीं लग रहा था कि उसके स्वर में मिठास थी, अपितु इसलिए मोहक लगा था कि उसके होंठ बहुत अच्छे थे अथवा उसकी मुस्कराहट बड़ी दिलकश थी। गायन-प्रतियोगिता की इन आकलनकर्ताओं के आकलन-पैमाने उनकी मानसिकता के निदर्शन थे और टी.वी. चैनल पर उनकी लिप्साभरी भंगिमाओं के प्रदर्शन द्वारा चैनल अपनी सामाजिक प्रतिबद्धताओं का साक्ष्य दे रहा था। मुझे याद आ रही थी ऊपर लिखी उर्मिलेश जी की पंक्तियां और सोच रहा था प्रगति की इस दिशाहीन अन्धी दौड़ के आयोजकों और प्रायोजकों को राष्ट्र की ऐसी सांस्कृतिक उन्नति के लिए किन शब्दों में बधाई दूं।

सुवसन्तक

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने विविध ग्रन्थों में इस उत्सव के सम्बन्ध में बताया है जो कि प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक जीवन का एक महत्वपूर्ण भाग रहा है। “सरस्वतीकण्ठाभरण” के अनुसार सुवसन्तक वसन्तावतार का दिन है। आधुनिक समय में हम इसे वसन्त पंचमी के रूप में मनाते हैं। इसी दिन प्राचीन काल में प्राथमिक मदन पूजा का विधान था। महाकवि कालिदास ने “ऋतुसंहार” में इस उत्सव के उल्लास का प्रभावी चित्रण किया है। इस दिन पुराने गर्म कपड़ों को हटाकर महिलाएं लाक्षारस से या कुंकुम के रंग से रंजित और सुगन्ध से सुवासित हल्की अरुणवर्णी साड़ियां धारण करती थीं और कर्णिकार, अशोक तथा नव-मल्लिका के पुष्पों से व्यक्तित्व-सज्जा किया करती थीं। वसन्त के अवतरण का यह उत्सव मदन के आह्वान का उत्सव भी था। मदनोत्सव फागुन से लेकर चैत्र के महीने तक मनाया जाता था। होली का रागरंजित मनोभाव तब केवल एक-दो दिवसों की औपचारिकता तक सीमित नहीं था। हमारी संस्कृति ने लौकिक जीवन को उपेक्षणीय नहीं माना, मात्र उसे मर्यादित किया। गीता में भगवान ने स्वयं को धर्म के अविरोधी काम-भाव की संज्ञा दी है। यह धर्माविरोधी काम तत्व दिव्य है, देवता है किन्तु जब यही उच्छृंखल होकर मर्यादा-तटों का विध्वंसक हो जाता है तो यह अपदेवता में बदल जाता है और नरक के त्रिविध द्वारों में से पहला बनकर हमारे समक्ष उपस्थित होता है। काम के धर्माविरुद्ध रूप के पूजन का उत्सव है- मदनोत्सव जिसका अग्रदूत सुवसन्तक है। आगे चलकर इसी उत्सव के साथ कविता और कला की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की अर्चना-तिथि की अवधारणा संयुक्त हुई और हमारे इस युग में सरस्वती के वरद पुत्र महाप्राण निराला ने अपनी जन्म-तिथि का सम्यक् ज्ञान न होने के कारण इसी तिथि को अपनी जन्म-तिथि घोषित कर दिया। वस्तुत: यह वागीश्वरी-अर्चा की तिथि हर कवि और कला-साधक की जन्म-तिथि भी है।

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