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पाञ्चजन्य पचास वर्ष पहले

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Dec 2, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Dec 2006 00:00:00

वर्ष 10, अंक 22, सं. 2013 वि., 17 दिसम्बर, 1956, मूल्य 3आने

सम्पादक : तिलक सिंह परमार

प्रकाशक – श्री राधेश्याम कपूर, राष्ट्रधर्म प्रकाशन लि., गौतमबुद्ध मार्ग, लखनऊ (उ.प्र.)

राष्ट्र पर आन्तरिक-बाह्र संकट

राष्ट्र-वृक्ष के मूल को सींचने की आवश्यकता

संघ अनुशासनबद्ध कार्यक्रमों के द्वारा संगठित शक्ति का निर्माण करता है

(निज प्रतिनिधि द्वारा)

लखनऊ: “देश में जो अहिन्दू समाज वास करता है वह राष्ट्र के प्रति प्रेम नहीं रखता। इसी प्रकार भारत के चारों ओर भी शत्रु व्याप्त हैं। इस बात का विचार करके हमें राष्ट्र की सुरक्षा के लिए सन्नद्ध होना है। किन्तु यह तभी संभव है जब राष्ट्र की जड़ मजबूत हो। इसकी सुदृढ़ता के अभाव में शिखर की चमक-दमक व्यर्थ है। अत: हमें राष्ट्र-मन्दिर को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए नींव का पत्थर बनना है।” ये शब्द राष्ट्रीय स्व.संघ के सरसंघ- चालक श्री गुरुजी ने यहां 2 हजार गणवेशधारी स्वयंसेवकों के समक्ष कहे।

। । । । ।

स्वार्थशून्य अनुशासन

श्री गुरुजी ने भाषण आरंभ करते हुए कहा कि संघ पर प्रतिबंध के रूप में एक आघात हुआ, किन्तु हमने उसका प्रतिकार नहीं किया। कुछ लोगों को लगता है कि शायद हमारी ही पद्धति में कुछ भ्रान्ति है जिसके कारण यह क्षोभमय वातावरण उत्पन्न हुआ। कुछ लोग संघ में व्यक्ति-स्वातंत्र्य का अभाव अनुभव करते हैं, किन्तु अनुशासनहीनता को ही कुछ लोग व्यक्ति-स्वातंत्र्य का पर्यायवाची समझते हैं। जिस राष्ट्र में बड़े-बड़े नेताओं द्वारा ही अनुशासन का आश्चर्यजनक रूप उपस्थित किया जाता है, वहां इस प्रकार की भावना का निर्माण होना कोई असम्भव नहीं, किन्तु संघ ने स्वार्थ भावना शून्य अनुशासन का विकास किया है। यही संघ-कार्य का मूल है।

नए कर

(श्री “पाराशर”)

वित्तमंत्री श्रीकृष्णमचारी ने नवीन कर सम्बंधी प्रस्ताव प्रस्तुत कर जनता तथा संसद को आश्चर्यचकित कर दिया। इन करों का प्रभाव न्यून वेतन भोगी वर्ग पर नहीं पड़ने वाला, इस कारण उसके विरुद्ध वृहत् प्रतिक्रिया या सार्वजनिक आन्दोलन होने की संभावना नहीं। किन्तु यह निश्चित है कि यदि समस्त करों का विश्लेषण किया जाए तो अनुभव होगा कि उनका प्रभाव उपभोक्ताओं तथा सामान्य व्यक्तियों पर पड़ेगा। विलासपूर्ण कारों पर लगाए गए करों के कारण सामान्य मोटरों की मांग बढ़ेगी और परिणामस्वरूप मूल्य वृद्धि में भी कुछ न कुछ अभिवृद्धि अवश्य होगी। अनिवार्य दोष के रूप में यदि कर को लगाना आवश्यक ही है तो उसका भार समाज के धनिक वर्ग पर डाला जाना चाहिए।

हंगरी का प्रश्न

23 अक्तूबर, 1956 को हंगरी की जनता ने क्रान्ति का सूत्रपात किया था। क्रांति के दो प्रमुख उद्देश्य थे-राष्ट्रीय सरकार की स्थापना तथा रूसी प्रभुत्व का अंत। कुछ दिनों तक इस क्रान्ति की सफलता दृष्टिगोचर होती रही, किन्तु “स्वेज नहर संकट” की हड़बड़ी में रूसी टैंकों और वायुयानों ने इस क्रान्ति को कुचल दिया। हंगरी ने जिस नेगी सरकार का निर्माण कर लिया था उसे अपदस्थ कर दिया। राष्ट्र संघ में प्रश्न उठाया गया- किसी राष्ट्र के आंतरिक मामलों में विदेशी शक्तियों द्वारा हस्तक्षेप किया जाना राष्ट्र संघ के चार्टर के विरुद्ध है। रूस और हंगरी की ओर से उत्तर दिया गया-जनतंत्र विरोधी तत्वों द्वारा हंगरी की राष्ट्रीय सरकार को हिंसात्मक तरीकों से उलटने का षड्यंत्र किया गया, जिसे दबाने के लिए वार्ता संधि के अनुरूप रूसी सेनाओं को बुलाया गया, इसलिए वह हंगरी का आन्तरिक प्रश्न है। हंगरी की कादर सरकार ने भी यही दावा किया कि अब पूर्ण शांति स्थापित हो चुकी है, किन्तु अत्याचारों के समाचार निरंतर आते रहे। यहां तक कि भू.पू. प्रधानमंत्री श्री नेगी को रूसी सैनिकों द्वारा जबर्दस्ती हंगरी से बाहर भी ले जाया गया, इस प्रकार का आरोप यूगोस्लाविया द्वारा लगाया गया। (सम्पादकीय)

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