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-डा. वेदज्ञ आर्य, पूर्व अध्यक्ष, संस्कृत-हिन्दी विभाग, सेन्ट स्टीफन्स कालेज (दिल्ली)
डा. वेदज्ञ आर्य भारतीय वांगमय और इतिहास के निष्णात विद्वान हैं। माकपा सांसद नीलोत्पल बसु द्वारा सरस्वती नदी परियोजना को रोकने एवं सरस्वती नदी को “मिथक” करार देने के समाचार से वे बेहद खिन्न भी हैं। पाञ्चजन्य को लिखे एक पत्र में उन्होंने कहा है कि, “माकपा सांसद नीलोत्पल बसु के कथन से मेरा मन बेहद व्याकुल हो उठा। यह कथन सरासर असत्य एवं निराधार है। एक सुशिक्षित एवं विशिष्ट सांसद वैदिक वांगमय तथा पुरातात्विक उपलब्धियों से सर्वथा अनभिज्ञ कैसे हो सकता है? यह आश्चर्य ही नहीं वरन् हास्यास्पद भी है।” संसद सदस्यों को सुझाव के रूप डा. वेदज्ञ आर्य का कहना है, “सत्य की खोज करना प्रत्येक भारतीय का मूल कर्तव्य है और राष्ट्र की सर्वोच्च कार्यपालिका के संसद-सदस्य का तो यह परम कर्तव्य बनता है।” डा. आर्य सरस्वती शोध अभियान दल से भी जुड़े रहे हैं। यहां प्रस्तुत है उनके द्वारा सरस्वती नदी से सम्बंधित साहित्यिक एवं पुरातात्विक प्रमाणों पर आधारित आलेख। -सं.
भारतीय संस्कृति एवं सामान्य जनजीवन में सरस्वती नदी की अत्यन्त महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक भूमिका रही है। वैदिक और पौराणिक साहित्य में उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर यह स्वीकार किया जाता है कि इस विशाल देश की संस्कृति और सभ्यता सरस्वती नदी के पावन तट पर अंकुरित और पल्लवित हुई है। ऋग्वेद के अन्यतम मन्त्र में गृत्समद, भार्गव और शौनक ऋषियों ने एक स्वर में सरस्वती नदी को मातृ शक्तियों में सर्वश्रेष्ठ माता, नदियों में उत्कृष्टम नदी और देवियों में सर्वाधिक पूजनीय देवी के रूप में प्रस्तुत किया है-
अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति।
अप्रशस्त इव स्मसि प्रशस्तिम्ब नस्कृधि।। (ऋग्वेद 2/41/16)
महर्षि वशिष्ठ ने अन्यतम ऋचा में कहा है कि सरस्वती नदी चिरकाल से अपने स्वच्छ जल प्रवाह के रूप में यश का धवल पट बुनती चली आ रही है। वह छह नदियों की माता सप्तमी (सातवीं) नदी है। उसकी सुन्दर सलिल धाराएं धरती को सींचकर कृषकों के लिए उर्वर बनाती हैं और वह अपने ही प्रचुर जल से भरपूर और विशाल पाटवाली नदी है।
आ यत् साकं यशसो वावशाना: सरस्वती सप्तथी सिन्धुमाता।
या: सुष्वयन्त सुदुघा: सुधारा अभिस्वेन पयसा पीप्याना:।। (ऋग्वेद 7/36/6)
इस महानदी को छह नदियों की माता होने का गौरव प्राप्त था। इन छह नदियों के सम्बन्ध में अधिकांश विद्वानों का यही मत है कि पंजाब में प्रवाहित होने वाली पांच नदियां- सतलज, रावी, चिनाब, झेलम और व्यास है। छठी नदी सिन्धु है जिसके तट पर प्राचीन सिन्धु सभ्यता का विकास हुआ था। सातवीं नदी स्वयं सरस्वती है। सरस्वती नदी सम्बंधी वर्णन ऋग्वेद के 87 मन्त्रों में उपलब्ध होते हैं, अधिकांश भारतीय तथा विदेशी इतिहासकार एवं पुरातत्ववेत्ता सिन्धु घाटी की सभ्यता को ही प्राचीनतम मानते हें परन्तु सारस्वत सभ्यता उससे भी कई हजार वर्ष पूर्व की सभ्यता मानी गई है।
वस्तुत: भारत की सरस्वती नदी ने अति प्राचीन काल से ही मानव जाति के जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन किया और अनेकानेक नगरों व ग्रामों को आप्लावित किया। परन्तु भौगोलिक परिवर्तनों के कारण शिवालिक एवं हिमालय पर्वतों के निरन्तर ऊपर उठते रहने से और भू-पृष्ठ के बदलते रहने से महानदी सरस्वती का रुाोत अवरुद्ध हो गया और धीरे-धीरे वह लुप्त हो गई। कभी इसमें समाविष्ट होने वाली शतद्रु और यमुना स्वतंत्र मार्गों पर बहने लगी। इतना ही नहीं, सरस्वती के समान ही जिस दृषद्वती नदी का बार-बार वर्णन हुआ है और जो कुरुक्षेत्र तथा राजस्थान में समानान्तर रूप से बहती रही उसने भी सरस्वती के क्षीण प्रवाह को अपने में समाहित कर लिया। यह वही दृषद्वती है जिसे मध्य युग में पत्थरों वाली नदी और वर्तमान में घग्घर कहा जाता है।
इस प्रकार जल प्रवाह के खण्डित एवं विभक्त हो जाने से सरस्वती नदी ने अपने विराट्स्वरूप को खो दिया। वैदिक युग में वह अत्यन्त समृद्ध प्रवाहमयी नदी रही है। महाभारत काल में वह दृश्या और अदृश्या बनी रही है। पैराणिक युग में वह लुप्त एवं अन्त: सलिला बन गई। सरस्वती के जल-साधनों से राजस्थान के कुछ भागों में खेतीबाड़ी की जा रही है।
वैदिक सरस्वती नदी शोध अभियान
सरस्वती नदी के लुप्त होने के कारणों को तथा उसके प्रवाह मार्ग को ढूंढने के लिए विगत दो सौ वर्षों से देश-विदेश के इतिहासकारों, पुरातत्ववेत्ताओं, भूभर्गशास्त्रियों, नृतत्वशास्त्रियों एवं साहित्यकारों का प्रयास जारी रहा है। इसी अनुक्रम में सन् 1985 में नवम्बर में श्री बाबा साहब आपटे स्मारक समिति की ओर से भारतीय इतिहास संकलन योजना के अन्तर्गत सरकारी अनुदान के बिना ही एक स्वतंत्र “वैदिक सरस्वती नदी शोध अभियान” दल गठित हुआ। इस दल के अभिनायक स्वर्गीय श्री विष्णु श्रीधर वाकणकर थे। इनके सानिध्य में तथा अभियानदल के शोध कार्य में आरम्भ से अन्त तक रहने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ। अभियान दल ने शिवालिक पर्वतमाला में स्थित आदि बद्री से लेकर पश्चिम समुद्र के तटवर्ती प्रभास क्षेत्र में स्थित सोमनाथ मन्दिर तक लगभग चार हजार किलोमीटर यात्रा की। इस यात्रा का मार्ग इतना लम्बा इसलिए हो गया है कि सरस्वती का प्रवाह मार्ग हरियाणा में भगवानपुर, कुरुक्षेत्र में सन्निहितसर, ब्राहृसरोवर, ज्योतिसर, दक्षिणसर, छोटी प्राची सरस्वती, बड़ी प्राची सरस्वती के आसपास और मध्य कुबेर भण्डार, अग्रोह इन्द्रतीर्थ, स्थाणुतीर्थ आदि प्रसिद्ध तथा पुण्य तीर्थस्थलों को समेटते हुए उक्त प्रवाह राजस्थान के बीकानेर, जैसलमेर, बाड़मेर और गुजरात के अम्बादेवी, सिद्धपुर आदि नगरों, उपनगरों, ग्राम, सरोवर, तीर्थस्थान, देवमन्दिर, टीले, थेहड़, खण्डहरों में से होता हुआ पश्चिम सागर में समाहित हो गया है। इस मध्य हम लोगों ने एक सौ से अधिक स्थानों का सर्वेक्षण किया और स्थानीय व्यक्तियों के साथ सम्पर्क स्थापित करके उनकी परम्परागत जानकारी से अनेक तथ्य एवं प्रमाण एकत्रित किये। उत्खनन किये गए स्थानों से भी प्रचुर पुरातत्वीय सामग्री उपलब्ध की गई है। इन सब उपलब्धियों की चर्चा करना यहां सम्भव नहीं है परन्तु सरस्वती नदी के प्रवाह मार्ग का दिग्दर्शन कराना आवश्यक है।
आदि बद्री में सरस्वती
यद्यपि लुप्त नदी के प्रवाह मार्ग के सम्बन्ध में विद्वानों का कोई एक निश्चित मत नहीं है तथापि सर्वाधिक प्रचलित मान्यता यही है कि सरस्वती नदी सिरमौर जिले में शिवालिक पर्वतमाला के अन्तर्गत स्थित आदि बद्री के पाश्र्व में एक क्षीण धारा के रूप में बहती हुई दृष्टिगत होती है। इसी पतली जलधारा को स्थानीय विद्वान और ग्रामीण लोग सरस्वती की मूल धारा बताते हैं और आदि बद्री की दायीं ओर से बहने वाली और सरस्वती से कई गुना मोटी धारा को सोम नदी कहते हैं। सरस्वती की क्षीण धारा लगभग दो किलोमीटर दूर तक बहकर अदृश्य हो जाती है। आदि बद्री से 18 किलोमीटर की दूरी पर एक उपनगर है जिसका वर्तमान नाम विलासपुर है। वहां के वयोवृद्ध महानुभावों ने बताया कि सन् 1852 तक सरकारी गजटियरों में इस उपनगर का नाम व्यासपुर लिखित है। वहां के लोकमानस में परम्परागत धारणा चली आ रही है कि महाभारत के रचयिता महर्षि व्यास कुरुक्षेत्र के महायुद्ध की भीषण हिंसा-प्रतिहिंसा से व्यथित होकर सरस्वती नदी के एकान्त, शान्त एवं पावन तट पर निवास करने आये थे और युद्ध के बाद गणेश जी से “जय” नामक अर्थात “महाभारत” ग्रन्थ लिखवाने में प्रवृत्त हो गए। आज भी वहां सरस्वती के सूखे प्रवाह में पम्प गाड़कर मधुर पानी निकालते हुए और उससे खेती करते हुए किसानों को देखकर प्राचीन प्रवाह सम्बन्धी धारणा और भी दृढ़ हो जाती है।
सरस्वती के प्राचीन प्रवाह मार्ग के विशद प्रमाण स्थाणेश्वर, पिहोवा, अरणाय वसिष्ठ आश्रम, विश्वामित्र आश्रम, जींद, हांसी, अग्रोहा, सिरसा आदि स्थानों पर परिलक्षित होते हैं। राजस्थान में नौहर, रावतसर, अनूपगढ़, हनुमानगढ़, सूरतगढ़ आदि स्थलों में भी सरस्वती कहीं दृश्या और कहीं अदृश्या बनी रही है। उसकी एक धारा पाकिस्तान के बहावलपुर से प्रवाहित होती हुई सिन्धु नदी में मिल जाती थी। बीकानेर और उसके आगे जैसलमेर, बाड़मेर आदि मरुस्थलों में सरस्वती “हाकड़ा” के नाम से जानी जाती है। सत्य तो यह है कि सरस्वती का विशाल प्रवाह वहां जाते-जाते संकीर्ण हो गया था। “हाकड़ा” शब्द “सांकड़ा” से और “सांकड़ा” संकीर्ण शब्द से व्युत्पन्न है। गुजरात में वर्तमान कच्छ और नानूकच्छ प्रदेश पश्चिम समुद्र की ही विस्तृत सीमाएं हैं। स्थानीय व्यक्तियों ने गिनकर बतलाया है कि सरस्वती सात धाराओं में प्रवाहित होकर वहां कच्छ के दलदल में समाविष्ट होती है। कच्छ के निवासी दलदल में गिरती हुई धाराओं को सतसरना कहते हैं। उनका यह चिर परम्परागत कथन ऋग्वेद के पावन मंत्र का स्मरण करा देता है कि यही नदी ऋग्वेद की सप्तस्वसा अर्थात सात प्रिय बहनों वाली स्तुत्य सरस्वती नदी है।
आज भी भारतवर्ष के पांच बड़े राज्य- महाराष्ट्र, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक, चेन्नई के परम्परागत परिवारों में बच्चों को प्रारम्भिक पाठशालाओं में भेजने पर गुरुजनों से यह पुण्य श्लोक स्मरण कराया जाता है जिसमें सरस्वती की वन्दना की जाती है-
सरस्वति नमस्तुभ्यं वरदे कामरूपिणि।
विद्यारम्भ्यं करिष्यामि सिद्धि र्भवतु में सदा।।
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