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चर्चा-सत्र

by
Dec 2, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 Dec 2006 00:00:00

जनरल (से.नि.) वी.पी. मलिक

पूर्व सेनाध्यक्ष एवं अध्यक्ष ओ.आर.एफ. इंस्टीटूट आफ सिक्योरिटी स्टडीज (नई दिल्ली)

धधक रह है बलूचिस्तान

पाकिस्तान का सबसे बड़ा सूबा बलूचिस्तान एक बार फिर उबाल पर है। दिसम्बर, 2005 में वहां राकेट दागे जाने की दो बड़ी घटनाएं हुईं। पहली घटना में फ्रंटियर कोर के महानिरीक्षक को ले जा रहे एक हेलीकाप्टर पर हमला किया गया तो दूसरी घटना में कोहलू में जनरल परवेज मुशर्रफ की एक सार्वजनिक जनसभा में राकेट दागा गया। इन दो घटनाओं ने पाकिस्तानी सेना और फ्रंटियर कोर को बलूच विद्रोहियों के खिलाफ तत्काल अभियान छेड़ने का मौका दे दिया। 12 हेलिकाप्टरों और एक लड़ाकू विमान से किए गए हवाई हमलों वाले किसी भी अभियान में, जिसमें बमबारी में करीब 120 जनजातीय लोगों के मारे जाने की खबर हो तो उसे निश्चित रूप से बड़ा हमला कह सकते हैं। अब तक विद्रोहियों के घात लगाकर किए गए हमलों में 35 सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके हैं।

पाकिस्तान का दावा है कि वह अभियान “आतंकवादी तंत्र” के खिलाफ था। सरकार इसे खत्म करने के लिए पूरी तरह तैयार है, ताकि इस पिछड़े सूबे को देश के दूसरे विकसित इलाकों के बराबर लाने के लिए विकास की प्रक्रिया शुरू की जा सके। पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग ने हालात को गंभीर बताया है। आयोग की अध्यक्ष असमां जहांगीर ने कहा है कि बलूचिस्तान को अलगाव की ओर धकेला गया है और उनका आयोग सूबे के बाशिंदों के मानवाधिकारों के खिलाफ किए गए “अत्याचारों, शोषण और दुव्र्यवहार” को उजागर करेगा।

आजादी के बाद बलूचिस्तान का इतिहास, अस्वाभाविक न होते हुए भी, उतार-चढ़ाव वाला रहा है। यहां चार रियासतें-मकरान, खरान, लास बेला और कलात (सबसे बड़ी और सर्वाधिक ताकतवर)- थीं और कलात के राजकुमार मीर अहमद यार खान ने विभाजन के वक्त अपने को आजाद घोषित कर दिया था। दूसरे बलूच सरदारों ने उससे हमदर्दी तो जताई पर, आजादी के उसके विचार का समर्थन नहीं किया। पाकिस्तानी सेना के हस्तक्षेप के बाद मीर अहमद यार खान ने विलय के समझौते पर दस्तखत किए। लेकिन उसके भाई अब्दुल करीब खान ने अफगानिस्तान की धरती से अपना सशस्त्र संघर्ष जारी रखा जो आखिरकार विफल रहा।

1950 के दशक के अंत में, पश्चिमी पाकिस्तान के संघीय चरित्र को बदलने की कोशिश किए जाने पर अधिकतर बलूच और पख्तून जनजातियों ने मिलकर हथियार उठाए और विरोध का परचम लहरा दिया। सन् 1960 के दशक तक यहां-वहां छिटपुट छापामार हमले जारी रहे।

सन् 1973 में जुल्फिकार अली भुट्टो की हुकूमत वाली सरकार के समय में इस्लामाबाद में कुछ सोवियत संघ में बने हथियार मिले जो कथित तौर पर बलूचिस्तान के विद्रोहियों के लिए भेजे गए थे। भुट्टो ने तत्काल सूबे की सरकार को बर्खास्त कर दिया लेकिन बाद में पता चला कि इन हथियारों की असली मंजिल कहीं और ही थी और भुट्टो अथवा पाकिस्तान के खुफिया तंत्र ने इस “खोज” का इस्तेमाल अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन की नजरों में चढ़ने के लिए किया था। इस घटना को लेकर बलूच लोग बेहद गुस्से में थे और उन्होंने छापामार लड़ाई शुरू कर दी। इस विद्रोह को दबाने के लिए करीब 80,000 पाकिस्तानी सैनिकों को लगाया गया। सितम्बर, 1974 में तब बड़ी मुठभेड़ हुई जब 15,000 बलूचों ने पाकिस्तानी सेना से मुकाबला किया, जिसने बड़े पैमाने पर विमानों और हेलिकाप्टरों का इस्तेमाल किया था। सन् 1977 में जनरल जिया उल हक द्वारा पाकिस्तानी सैनिकों को हटाने तक करीब 9000 बलूचों और सुरक्षा बलों के जवान मारे जा चुके थे। उसके बाद से ही अफगानिस्तान में लड़ाई और अस्थिरता के कारण सूबे में अधिक हथियार और शरणार्थियों की भीड़ के आने से यहां लगातार हिंसक वारदातें होती रही हैं।

पाकिस्तान की अंदरूनी और बाहरी राजनीति के कारण बलूचिस्तान वहां का एक उपेक्षित, अविकसित क्षेत्र बना हुआ है। बरस दर बरस जनजातीय समूहों की समस्याएं और ज्यादा गहराई हैं। अधिक स्वायत्तता की मांग के अलावा बलूच और पख्तून कबीले केन्द्र सरकार के कोष से अधिक धन के आवंटन तथा सूबे में पाए जाने वाली प्राकृतिक गैस, कोयला और दूसरे खनिजों पर रायल्टी की उम्मीद रखते हैं। इतना ही नहीं, सामाजिक स्तर पर भी कई विस्फोटक मुद्दे हैं। जनवरी, 2005 में पाकिस्तानी सेना के एक कप्तान ने डेरा बुगती के पास सुई गैस संयंत्र में काम करने वाली 31 साल की डाक्टर शाजिया खालिद के साथ यौन दुव्र्यवहार किया। जब पाकिस्तानी सरकार ने इस घटना पर कोई कदम नहीं उठाया तो बुगती के लोगों ने इस बेहद सुरक्षित गैस संयंत्र पर हमला कर दिया। जनरल मुशर्रफ ने सार्वजनिक तौर पर सेना के कप्तान को बेकसूर घोषित करते हुए पाकिस्तानी सेना की स्थानीय जनता के प्रति अवहेलना के भाव को जगजाहिर कर दिया और साथ में उन्हें चेतावनी देते हुए कहा कि अगर स्थानीय लोगों ने गोलीबारी बंद नहीं की तो उन्हें पता भी नहीं चलेगा कि उन्हें क्या चीज आकर लगी। सरकार ने गैस संयंत्र की सुरक्षा के लिए टैंकों, हेलिकाप्टरों सहित जवानों की एक बिग्रेड भेजी। इसके बाद गोलाबारी और मुठभेड़ में कम से कम 15 लोग मारे गए।

इस घटना के बाद स्थानीय जनजातियों और पाकिस्तानी सेना के बीच अलगाव की खाई और गहरा गई। चीन के सहयोग और पंजाबी ठेकेदारों द्वारा ग्वादर बंदरगाह को बनाने, मकरान तट के किनारे बड़ी संख्या में पूर्व सैनिकों को नए सिरे से बसाने और सूबे में अतिरिक्त सैनिक छावनियों के निर्माण के पाकिस्तान सरकार के फैसले ने आग में घी का काम किया है। यहां सेना की बढ़ती मौजूदगी को बलूचों को दबाने की एक कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है।

अफगानिस्तान और ईरान के साथ जमीनी सीमा सटी होने और एक संवेदनशील समुद्री तट सीमा (पश्चिम में फारस की खाड़ी और दक्षिण पश्चिम में ओमान की खाड़ी से घिरी), जिससे पाकिस्तान की परमाणु शस्त्र दागने की सुविधाओं वाली चंगाई पहाड़ियां ज्यादा दूर नहीं हैं, होने की वजह से बलूचिस्तान में विद्रोह का न केवल पाकिस्तान के लिए बल्कि समूचे क्षेत्र के लिए सामरिक महत्व है।

पाकिस्तान के बलूचिस्तान और पख्तूनिस्तान को लेकर अफगानिस्तान के साथ लंबे समय से सम्बंध उलझे रहे हैं। अमरीका, जिसके सैनिक अभी पाकिस्तान-अफगानिस्तान सीमा से सटे दक्षिण अफगानिस्तान में कार्रवाई कर रहे हैं, बलूचिस्तान के पख्तून बहुल इलाकों में अलकायदा और कथित उदारपंथी तालिबानों के बसने और इस इलाके के लगातार वहाबी कट्टरपंथ का केन्द्र होने के कारण साफ तौर पर नाराज है। अब चीन ने भी इस इलाके में अपने आर्थिक और सामरिक हित कायम किए हैं। ग्वादर बंदरगाह (जिसकी नींव 22 मार्च, 2002 को चीनी उपप्रधानमंत्री वू बांगगू ने रखी थी) में करीब पांच सौ चीनी काम कर रहे हैं और इससे पाकिस्तानी नौसेना को एक और अड्डा मिलने की उम्मीद है, जिससे पाकिस्तान की कराची और मुहम्मद बिन कासिम बंदरगाह पर निर्भरता कम होगी। इससे चीन फारस की खाड़ी से पूर्व की ओर आने वाली अपनी ऊर्जा से सम्बंधित खेपों की निगरानी करने की स्थिति में होगा।

बलूचिस्तान में अस्थिरता, ईरान-पाकिस्तान से भारत आने वाली प्रस्तावित पाइपलाइन के लिए भी अच्छी नहीं है।

हाल में ही बलूचिस्तान में सैन्य दमन को लेकर भारत के चिंता जाहिर करने पर पाकिस्तान की बौखलाहट ने न केवल उसके अधिकारियों के बल्कि जनरल मुशर्रफ के स्वयं के रवैए ने भी अनेक भारतीय रक्षा विशेषज्ञों को हैरान किया है। 29 दिसम्बर को लाहौर में जनरल मुशर्रफ ने आरोप लगाया कि भारत बलूचिस्तान को लेकर घड़ियाली आंसू बहा रहा है। उन्होंने इस बात के भी संकेत दिए कि सूबे में तोड़फोड़ की गतिविधियों के पीछे भारत का हाथ है।

विश्लेषकों को बहुधा इस बात पर हैरानी होती है कि जब पाकिस्तान भारत में मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर बयानबाजियां करता रहता है तो भारत क्यों हमेशा रक्षात्मक मुद्रा में ही दिखता है? दरअसल, पाकिस्तान से जुड़े ऐसे अनेक विवादस्पद मुद्दे हैं, जिनको लेकर भारत अपनी नाराजगी दर्ज करा सकता है। उदाहरण के लिए इनमें पाकिस्तान के जम्मू और कश्मीर की शाक्सगम घाटी को चीन के हवाले करने और उत्तरी इलाकों में लगातार पांथिक हिंसा जैसे मुद्दे हो सकते हैं। पाकिस्तानी मानवाधिकार आयोग के अनुसार सन् 2005 में उत्तरी इलाकों में पांथिक हिंसा के कारण 67 से अधिक लोग मारे गए। अब समय आ गया है कि पाकिस्तान के हुक्मरानों को यह बात समझनी होगी कि एक-दूसरे के अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी, आतंकवाद को समर्थन और राजनीतिक प्रलोभन दुधारी तलवार साबित हो सकता है। (द ट्रिब्यून, 4 जनवरी, 2006 से साभार)

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