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कश्मीर के हिन्दू किसकी प्रजा हैं?-लक्ष्मीकांता चावलादोदिन श्रीनगर में गोलमेज सम्मेलन करके प्रधानमंत्री वापस आ गए। उनकी इस शांति वार्ता के समय ही राजौरी में दस हिन्दू आतंकवादियों ने मार दिए। इसी महीने लगभग तीन दर्जन हिन्दुओं को घरों से निकालकर डोडा और उधमपुर जिले में मारा गया। जिस दिन से श्रीनगर में प्रधानमंत्री की शांति वार्ता की चर्चा चली उसी दिन से कश्मीर घाटी में अलगाववादियों द्वारा आग बरसाई जा रही थी। 24 मई को ही चार बड़े हमले आतंकियों ने किए।प्रधानमंत्री ने मानवाधिकारों की रक्षा की बात बलपूर्वक कही और हिरासती मौतों का भी विरोध किया। पर एक भी शब्द उन्होंने उन बेचारों के लिए नहीं कहा जो देशभक्त नागरिक हैं। वे न आतंकवादी हैं, न अलगाववादी हैं। उनका दोष यही है कि उनकी सरकार कमजोर है और लोगों का दर्द समझने वाली नहीं है। एक और प्रश्न का उत्तर चाहिए। जब भी कोई आतंकी घटना हो जाती है तो केवल यही कहा जाता है कि आतंकवादियों ने हताशा या निराशा में यह हमला किया। सवाल है कि यह हताशा या निराशा केवल हिन्दुओं को मारकर ही क्यों प्रकट की जाती है? प्रधानमंत्री ने श्रीनगर जाकर भी न उन परिवारों के आंसू पोंछे जिनके सदस्य आतंकवादियों ने मारे और न ही उन बेचारों की खबर ली जो पिछले डेढ़ दशक से शरणार्थी शिविरों में नारकीय जीवन जी रहे हैं। प्रधानमंत्री यह भी बताएं कि कश्मीरी पंडितों का कष्ट उन्होंने क्यों नहीं सुना और उनके प्रतिनिधियों को शांति वार्ता में क्यों नहीं बैठाया? जितनी चिंता जिलानी की होती है उतनी देशभक्तों की भी की जाए, तो कश्मीर में शांति हो सकती है। पूरा देश प्रधानमंत्री से यह उत्तर मांगता है कि जो पांच दल उन्होंने बनाए उनमें से किसी एक को यह काम क्यों नहीं सौंपा गया कि शरणार्थियों को वापस उनके घरों में बसाया जाए और जो गरीब, निर्दोष, अधिकतर हिन्दू मारे जा रहे हैं उनके जीवन और सम्मान की रक्षा का भी प्रबंध किया जाए।12
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