संप्रग सरकार के दो साल पर भाजपा का आकलन
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संप्रग सरकार के दो साल पर भाजपा का आकलन

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Nov 6, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Nov 2006 00:00:00

साम्प्रदायिक आधार पर देश विभाजन का प्रयास

सरकार की कमजोर नेपाल नीति ने चीन को मदद पहुंचाई

-आलोक गोस्वामी

भाजपा द्वारा संप्रग सरकार के दो सालों पर प्रकाशित पुस्तिका स्वयं में दुर्भाग्यपूर्ण दो वर्षों का आलेख है। जनता की स्मृति बहुत कमजोर और अल्पजीवी होती है। इसलिए इस पुस्तिका के विभिन्न बिन्दुओं का स्मरण बार-बार कराने की जरूरत है।

जिस नाटकीयता और “त्याग” के प्रदर्शन के साथ दो साल पहले कम्युनिस्टों की बैसाखी लेकर संप्रग सरकार सत्ता में आई थी लगभग उसी लीक पर चलते हुए इसने दो साल का कार्यकाल पूरा किया है। लोकतांत्रिक संस्थाओं और परंपराओं का उपहास उड़ाया गया, जीवनोपयोगी वस्तुओं की कीमतें आसमान छूने लगीं, सत्ता अधिष्ठान मजाक का विषय बना, हिन्दू संवेदनाओं और आस्था केन्द्रों पर चुन-चुनकर प्रहार किए गए और जिहादियों के हौसले बुलंद हुए। इस सरकार के कामों की समीक्षा करें तो पहली नजर में यही सब बातें ध्यान में आती हैं। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने तो साफ कहा कि यह सरकार हर मोर्चे पर विफल रही है।

गत 31 मई को नई दिल्ली में अपने निवास पर आयोजित पत्रकार वार्ता में राजनाथ सिंह ने संप्रग सरकार के दो साल के कामों की रपट जारी करते हुए उक्त टिप्पणी की। उन्होंने कहा कि इस सरकार ने न केवल आम आदमी का जीवन बेहाल किया है बल्कि देश में असुरक्षा की भावना पैदा हुई है। सरकार की कमजोर नीतियों के कारण देश में अनेक स्थानों पर जिहादी हमले हुए हैं।

बढ़ते दामों की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि जब-जब कांग्रेस की सरकार बनी है, महंगाई बढ़ी है। जबकि 6 साल के वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में महंगाई और जमाखोरी पर नियंत्रण किया गया था। इस बीच तीन बार संवेदी सूचकांक धराशायी हुआ। कृषि क्षेत्र में विफलता का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि किसानों की आत्महत्या की घटनाएं बढ़ी हैं।

भाजपा अध्यक्ष ने देश में विभिन्न स्थानों पर जिहादी हमलों का जिक्र किया और कहा कि आतंकवाद खत्म हो, इस सरकार को लगता है इसकी चिंता नहीं है। संवैधानिक संस्थाओं और परम्पराओं की मनमोहन सरकार ने जिस प्रकार धज्जियां उड़ार्इं उसके उदाहरण सरकार के सत्तारूढ़ होने के बाद से ही दिखने लगे थे। वाजपेयी सरकार द्वारा बनाए गए राज्यपालों को राजनीतिक विद्वेष के कारण हटाकर ऐसे लोगों को राजभवन में बिठाया गया जो 10, जनपथ के निर्देशों को जस का तस मानें। और ऐसा ही हुआ। झारखण्ड में शिबु सोरेन को मुख्यमंत्री बनाया तो बिहार में राजग को सरकार नहीं बनाने दी। गोवा की पर्रीकर सरकार के विरुद्ध राजभवन में कथित षड्यंत्र रचा गया। इन मामलों में राष्ट्रपति और सर्वोच्च न्यायालय को दखल देनी पड़ी। न्यायालयों के फैसलों को संसद के जरिए अपमानित किया गया। मुस्लिम आरक्षण को जब न्यायालय ने रोका तो संसद के जरिए लागू करने की बात कही। आई.एम.डी.टी. एक्ट निरस्त करने के न्यायालय के फैसले का उपहास उड़ाते हुए असम में विदेशी नागरिक कानून लागू कर दिया जो घुसपैठियों का ही सहायक है।

हिन्दू संवेदनाओं पर तो कम्युनिस्ट प्रभाव वाली सेकुलर संप्रग सरकार ने चुन-चुनकर निशाने साधे। दिवाली के दिन कांची के शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती जी को गिरफ्तार करके सरकार ने अपनी सोच जाहिर कर दी। एक ओर मुस्लिम तुष्टीकरण के कदम उठाए गए तो दूसरी ओर मंदिरों को अतिक्रमण हटाने के नाम पर ढहाया जाता रहा। तिरूमला-तिरूपति मंदिर और उससे जुड़े विश्वविद्यालय पर ईसाई तत्वों को हावी होने दिया गया। मतान्तरण में तेजी आई और जब राजस्थान सरकार ने मतान्तरण रोकने का कानून बनाना चाहा तो कांग्रेस द्वारा राज्यपाल बनाई गईं श्रीमती प्रतिभा पाटिल ने उसे लौटा दिया।

लाभ के पद पर संसद में शोर मचने के बाद श्रीमती सोनिया गांधी ने मई 2004 की ही तरह फिर से नाटकीयता भरा “त्याग का बाना” ओढ़ा और सांसद पद से इस्तीफा दे दिया। जबकि विपक्ष की मांग थी कि श्रीमती गांधी संसद और चुनाव आयोग का सामना करतीं। रायबरेली में उपचुनाव हुआ और फिर से श्रीमती गांधी सांसद बन गईं। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् का अध्यक्ष पद फिर उन्हें ही सौंपे जाने की बात चल रही है। मनमोहन सरकार ने जब लाभ के पद का विधेयक (जिसमें 56 पदों को लाभ के पद की परिधि से बाहर रखा गया है और जिसमें राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का अध्यक्ष पद भी शामिल है) संसद में पारित करके राष्ट्रपति के पास भेजा तो राष्ट्रपति ने उस पर दो प्रमुख आपत्तियां जताईं – (1) यह कानून 1959 से मान्य क्यों किया जाएगा? और (2) इन 56 पदों को लाभ के पद की परिधि से किस आधार पर बाहर रखा गया है? राष्ट्रपति द्वारा लाभ के पद का विधेयक बिना पारित किए लौटाना संप्रग सरकार के मुंह पर तमाचे जैसा था। उल्लेखनीय है कि सरकार ने सोनिया गांधी को बेदाग साबित करने की कुचेष्टा में आनन-फानन में संसद के दोनों सदनों में यह विधेयक पारित करा लिया गया था। 25 मई को राष्ट्रपति को यह विधेयक प्राप्त हुआ था जिसका खुद गहन अध्ययन करने के बाद उन्होंने कानून विशेषज्ञों की राय ली और उपरोक्त दो प्रमुख स्पष्टीकरण मांगते हुए इसे लौटा दिया। राष्ट्रपति ने यह मशविरा दिया कि लाभ के पदों की परिभाषा का आधार निष्पक्ष व तार्किक हो ताकि इसे केन्द्र सहित सभी राज्यों में समान रूप से लागू किया जा सके। इस संदर्भ में भाजपा अध्यक्ष ने कहा कि अब श्रीमती सोनिया गांधी को अपने पद से इस्तीफा देकर चुनाव आयोग और संसद का सामना करना चाहिए।

सरकार के मंत्रियों में आपसी तालमेल न होना भी इस सरकार की खास पहचान बना है। कभी रामविलास पासवान लालू यादव पर बिफरते हैं तो कभी कपिल सिब्बल अर्जुन सिंह पर कटाक्ष करते हैं। तेल कूपन विवाद पर तो पूर्व विदेश मंत्री नटवर सिंह को बली का बकरा बनना पड़ा था। इस सबके साथ मंत्रियों में जिम्मेदारी के अहसास की कमी भी मौके-बेमौके जाहिर होती रही। शिक्षा का सेकुलरीकरण करने में तो अर्जुन सिंह ठीक पहले दिन से ही जुटे हैं, तिस पर अन्य पिछड़े वर्गों के लिए उच्च शिक्षा में 27 प्रतिशत आरक्षण की बात करके उन्होंने छात्रों में भारी रोष पैदा किया। महीने भर के आंदोलन के बाद डाक्टर न्यायालय के आदेश का सम्मान करके काम पर लौटे। इस सरकार की नेपाल के प्रति जैसी नीतियां रहीं और कम्युनिस्टों के प्रभाव के कारण जनांदोलन की जैसी दिशा तय की गई, उसके परिणामस्वरूप नेपाल में आज माओवादियों की छाया में सरकार चल रही है और वहां चीन का दखल बढ़ गया है। दुनिया का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र नेपाल भी अब “सेकुलर” बन गया है।

भाजपा प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस 36 पृष्ठ की रपट में सरकार के 2 साल के कार्यकाल के दौरान लिए देश विरोधी- जन विरोधी फैसलों के अलावा अनेक घोटालों की विस्तार से चर्चा की गई है। विभिन्न देशों के संदर्भ में विदेश नीति की असफलताओं का जिक्र है तो आंतरिक सुरक्षा, नक्सली-माओवादी आतंक, पूर्वोत्तर की बिगड़ती स्थिति का विश्लेषण भी है।

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