डोडा- एक महीने बाद
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डोडा- एक महीने बाद

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Nov 6, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 06 Nov 2006 00:00:00

डोडा के हिन्दू हिम्मत से लड़ना चाहते हैं, पर कोई सहारा देने को तैयार नहीं

-डोडा से लौटकर तरुण विजय

उसका नाम है- रजनी। स्कूल की नीले रंग की ड्रेस पहने हुई थी। स्कूल-यानी बस दिन में खेलने जाती है। एक कमरे में सरकारी स्कूल के दालान में, जहां शिशु से पांचवी कक्षा तक के 35 बच्चे पढ़ते हैं। रजनी ने अपनी बहन सपना को अपनी आंखों के सामने गोलियों से मरते हुए देखा और उसके साथ ही उसके पिता जगदीश भी थे, वे भी मारे गए। मां भी गोलियां खाकर गिर गई थीं, जिसे मरा समझकर आतंकवादी चले गए। वह और उसकी दूसरी बहन जख्मी हालत में अस्पताल में इलाज करवा रही हैं। जगदीश के छह बच्चे थे, जिसमें से सपना 9 साल की थी। उस पर जब आतंकवादियों ने गोलियां चलार्इं तो वह समझ ही नहीं पाई कि यह हो क्या रहा है। जो जख्मी हाल में बचे वे सिर्फ ये जानते हैं कि गोली चलाते समय वे दाढ़ी वाले अल्लाह का नाम ले रहे थे।

डोडा हिन्दू नरसंहारों के लिए कुख्यात हो गया है, पर जहां 30 अप्रैल की रात 24 हिन्दुओं को इकट्ठा कर इस्लामी आतंकवादियों ने गोली मारी वह जगह है- कुलाहाण्ड। डोडा में ही है। यहां पहुंचने के लिए जम्मू से 5 घंटे की यात्रा के बाद चिनाब नदी के किनारे-किनारे चलते हुए पुल डोडा पार कर कुलाहाण्ड की पहाड़ी के पांव तक पहुंचना पड़ता है। बस या कार सिर्फ यहीं तक जाती हैं। यहां से चढ़ाई शुरू होती है, जो शहर वालों के लिए तो जान सुखाने वाली साबित हो सकती है। सारा रास्ता अखरोट और आड़ू के पेड़ों, मक्का के खेतों, मिट्टी के छोटे-छोटे घरोंदेनुमा घरों से भरा- मन को आह्लादित करने वाला दृश्य। कहीं बच्चे खेल रहे थे तो कहीं पति-पत्नी या पूरा परिवार मक्का के खेतों की गुड़ाई कर रहा था। सामने के पहाड़ों पर जहां नजर जाती, कश्मीरी शैली में मध्य में एक मीनार वाली और चमकती टीन की छत लिए मस्जिदें दिख रही थीं। इन दिनों इस पूरे क्षेत्र में नई और पक्की मस्जिदें बनाने का दौर सा चल पड़ा है।

कुलाहाण्ड की चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते प्यास लगी तो सामने के मकान में पीठ पर बच्चे को लिए काम करती महिला से एक गिलास पानी देने के लिए कहा। इतना ठंडा और मीठा पानी, लेकिन फिर भी उसके चेहरे पर धन्यवाद सुनकर न मुस्कराहट या खुशी आई और न हमें कुछ पूछने का साहस हुआ। पिछले एक महीने से यह पहाड़ी मातम में डूबी है। 30 अप्रैल की रात कुलाहाण्डा में 24 हिन्दू स्त्री-पुरुषों-बच्चों का कत्ल कर दिया गया था। एक महीने के भीतर स्थिति में कुछ ठहराव आया होगा, सरकार 24 घंटे में न हिली हो, पर एक महीने में तो हिली होगी, नेताओं के पाखंडी आंसू और गलीजपन शायद हिन्दुओं का दु:ख देख असलियत में मदद का रास्ता खोल चुके होंगे और दिल्ली में कई-कई एकड़ के बंगलों में रहने वाले मठाधीश, सत्ताधीश कुछ तो कर चुके होंगे, यही सोचकर मैं नरसंहार के तीस दिन और तीस रातों के बाद डोडा पहुंचा तो पाया वहां की जमीन में आंसुओं के खारेपन से पैदा हुआ गीलापन और खून की ताजी गंध अभी तक बाकी है। गांव में कोई नेता नहीं आया था। केवल रा.स्व.संघ के प्रांत प्रचारक राकेश जी एवं अन्य स्वयंसेवक दो तीन बार गए, हिम्मत बंधायी। रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी के लिए ऊपर एक हैलीपैड बनाया गया था, वहीं सब उनसे आकर मिले थे। बाकी सब नेताओं ने डोडा में ही पीड़ित परिवारों को बुलाकर बात की थी। भरोसा दिलाया और आश्वासन दिया कि उनके बच्चों को पुलिस में नौकरी दी जाएगी और ग्राम सुरक्षा समितियों को ज्यादा मजबूत बनाकर “थ्री नाट थ्री” की रायफलें बांटी जाएंगी।

लेकिन अभी तक इनमें से एक भी बात पूरी नहीं हुई है। एक पुलिस चौकी बनी है जो 30 अप्रैल से पहले नहीं थी। उसके पास एक वायरलैस सैट है जो नरसंहार के पहले नहीं था यानी जब नरसंहार हुआ तो यहां न फोन था, न वायरलैस और मोबाइल तो यहां चलता ही नहीं।

आतंकवादियों ने जिन परिवारों को मारा उनके घर के वयस्क लड़कों को अभी तक न नौकरी मिली है, न बंदूक। गांव के हर घर में हर बड़े और बच्चे के चेहरे पर आतंकवाद का खौफ जमा है, फिर भी स्कूल लगता है, बिना किसी सुरक्षा व्यवस्था के और खुले में। पहली से पांचवी तक के 35 बच्चे एक साथ एक ही दालान में एकमात्र अध्यापक से पढ़ते हैं। इस अध्यापक के पिता और भाई की भी आतंकवादियों ने हत्या कर दी है। वह बी.एस.सी. पास है और गांव में स्कूल चलाने के लिए उसे 15 सौ रुपये महीना मिलता है और कहा गया है कि कुछ साल, यानी 5-6 साल बाद पक्का करेंगे तब 7 हजार रुपये वेतन मिलेगा। गांव के वे बच्चे, जिनके परिवार के माता-पिता या बड़े भाई नरसंहार में मार डाले गए, परीक्षा भी नहीं दे सके क्योंकि उन दिनों परीक्षाएं चल रही थीं, उनमें से अनेक के दो या तीन पेपर छूट गए। दसवीं और बारहवीं की परीक्षा जम्मू-कश्मीर बोर्ड लेता है, लेकिन इन छात्रों को जम्मू-कश्मीर बोर्ड से पुन: परीक्षा देने की छूट नहीं दी गई। अब सरकार ने ग्राम सुरक्षा समितियों को बंदूकें भी देनी बंद की हुई हैं। इसकी वजह है कि स्थानीय मुस्लिमों ने गुलाम नबी आजाद के सामने मांग उठाई कि उन्हें भी बंदूकें मिलनी चाहिए। इस पर डोडा के हिन्दुओं ने दु:खी मन से कहा कि सरकार की पालिसी साफ है कि हिन्दू मर कर बंदूकें लेते हैं और मुसलमान मारकर।

अब पेंच यह है कि अभी तक हिन्दुओं को ही नरसंहार में मारा गया है। लेकिन सच यह भी है कि मुसलमान भी आतंकवादी जिहादियों द्वारा मारे गए हैं। जिन मुसलमानों को आतंकवादी मारते हैं उन्हें वे सेना व पुलिस के मुखबिर कहकर उनकी गर्दन काट देते हैं।

पर गांवों में आतंकवादियों द्वारा हिन्दुओं को एक जगह इकट्ठा कर नरसंहार कर हिन्दुओं के मन में मुसलमानों के प्रति शक को गहरा किया है, दूरियां बढ़ाई हैं। वे कहते हैं कि ये आतंकवादी स्थानीय मुसलमानों के सहयोग और घर में शरण व खाना-पीना दिए बिना न इन गांवों में आ सकते हैं और न हम पर हमला कर सकते हैं। मुसलमानों का कहना है कि जब आतंकवादी बंदूक दिखाकर जान से मारने की धमकी देकर हमारे घर में आते हैं तो चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, उन्हें वही करना होगा जो बंदूकधारी कहेंगे।

जिन लोगों को मारा गया है वे साधारण खेतिहर या मजदूर थे। उनके घर देखने से ही पता चलता है कि वे कितनी गरीबी में जीवन जी रहे थे। किसी के पिता अवकाश प्राप्त अध्यापक थे, तो जगदीश राय शर्मा जीवन बीमा निगम के एजेंट, जयलाल शर्मा की डोडा में मनियारी की दुकान है। ऐसे लोगों को मारकर आतंकवादी क्या दिखाना चाहते हैं? ये कैसी बहादुरी है और कैसी मजहब परस्ती? 30 अप्रैल की रात का घटनाक्रम कुछ प्रकार बताया गया-

रात को दस बजे आतंकवादी गांव के चौकीदार साधुराम शर्मा के घर आए। वे सब फौजी वर्दी में थे। साधुराम से कहा कि वह गांव के बाकी लोगों को उठाकर लाए क्योंकि मीटिंग करनी है। साधुराम शर्मा की गर्दन पर बंदूक रखी हुई थी। वह कुछ समझता तो भी करने की स्थिति में नहीं था। साधुराम की आवाज सुनकर लोग जागते भी और दरवाजा भी खोलते इसलिए सब गांववालों को इकट्ठा करने के लिए उसे मजबूर किया। मास्टर शीशराम के घर के सात लोग थे। बोधराज और कुंजलाल के घर में जो भी था उसे मीटिंग के लिए बुलाया गया। साधुराम शर्मा को बुलाने के साथ ही बिजली काट दी गई थी। गांव के नंबरदार गोपीचंद के घर सबको इकट्ठा किया गया। दूसरा घर था जगदीश राय का। वहां के आस-पास के घरों से भी लोगों को चौकीदार द्वारा बुलवाकर इकट्ठा किया गया। ये सब काम बड़े प्यार से किया जा रहा था। इसी बीच चाय भी पी गई। आतंकवादियों के पीछे-पीछे गांव के मुसलमान भी थे। प्रेमचंद और ठाकुर सिंह चौकीदार के साथ चल रहे थे। इसी बीच ठाकुर सिंह का लड़का अंधेरे का लाभ उठाकर पीछे भाग गया। ठाकुर सिंह को शक हो गया, वह बड़बड़ाया कि यह चांपनरी जैसा मामला तो नहीं हो रहा है जहां 14 बारातियों को मुस्लिम आतंकवादियों ने मार दिया था। पर आतंकवादियों ने डपटकर कहा कि पीछे मुड़कर नहीं देखना। उन्हें पता चल गया कि अब उनकी पोल खुल गई है इसलिए कहने लगे कि वे हिन्दुओं को इसलिए इकट्ठा कर रहे हैं क्योंकि मुसलमानों पर उनका भरोसा उठ गया है। वे मुखबिरी करते हैं। अब वे हिन्दुओं के साथ सम्बंध जोड़ना चाहते हैं, इसलिए मीटिंग कर रहे हैं। इसी क्रम में 2-3 घंटे बीत गए और रात्रि के 2 बज गए। 2 बजते ही कहीं से इशारा हुआ। कोई कहता है दूर से कहीं किसी ने रोशनी छोड़ी और आतंकवादियों ने फायरिंग शुरू कर दी। बच्चे, स्त्री-पुरुष गोलियों की बौछार में खून से लथपथ होकर गिर गए। मैंने लगभग सभी गांव वालों से पूछा कि जब वे गोली मार रहे थे तो क्या कह रहे थे? बेगुनाह बच्चों और बड़ों पर गोली चलाते समय वे अपने कृत्य को क्या कहकर उचित ठहरा रहे थे? बर्बर और राक्षसी प्रवृत्ति का व्यक्ति भी क्या छोटे-छोटे बच्चों पर गोली चलाते हुए हिचकता नहीं होगा? सब का एक ही जवाब था- उन्होंने कुछ नहीं कहा, बस वे अल्लाह का नाम ले रहे थे।

इस पूरे घटनाक्रम का जो सबसे भयंकर नतीजा निकला वह यह है कि हिन्दुओं का सब पर विश्वास टूट गया है। गांव के जिन मुसलमानों के साथ वे बचपन से खेले, पले और बढ़े, गांव की हर खुशी और गम को जिन मुसलमानों के साथ वे बांटते रहे अब वही मुसलमान उन्हें मारने वाले आतंकवादियों के शरणदाता बनकर सामने आते दिख रहे हैं। दूसरा विश्वास सरकार और पार्टियों पर टूट गया है। मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद डोडा के ही रहने वाले हैं। उन्होंने गांव के आतंकवाद पीड़ितों को नौकरी और हथियार देने का वायदा किया था। एक महीना बीत गया है, अभी तक कोई वायदा पूरा नहीं हुआ। गांव के हिन्दू सिर्फ भगवान के भरोसे रो-रोकर दिन काट रहे हैं। जम्मू-कश्मीर पुलिस पर उनका भरोसा नहीं है। सेना को मुफ्ती मोहम्मद सईद ने पीछे कर जे.के. पुलिस को सुरक्षा की मुख्य जिम्मेदारी दे दी थी। जे.के. पुलिस प्रदेश के राजनेताओं के इशारे पर चलती है। डोडा के कुछ आतंकवाद पीड़ित भाजपा नेताओं के कहने पर जम्मू पर धरने पर बैठे तो कांग्रेसी नेताओंे ने संदेश भिजवाए कि “अब तुम बी.जे.पी. के साथ मिल गए हो इसलिए जो हमें करना था वह भी नहीं करेंगे। तुम्हें जो लेना है बी.जे.पी. से ही लो।” जम्मू में 41-42 डिग्री की गर्मी में डोडा के लोग हर ओर से आहत हो रहे हैं। न उन्हें सरकार की ओर से कोई मिलने आ रहा है और न मीडिया के लोग उन पर ध्यान दे रहे हैं। प्रदेश भाजपा अपनी ही गुटबाजी और विखण्डित संगठन में जमीन खो रही है।

डोडा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक मनोहर सिंह 15 दिन पहले ही नियुक्त हुए हैं। बातचीत में उन्होंने बताया कि हिन्दुओं को बंदूक देने से आगे चलकर समस्या साम्प्रदायिक हो सकती है क्योंकि मुसलमानों को लगता है कि ये बंदूकें उन पर भी उठ सकती हैं। अभी तक हिन्दुओं को बंदूकें दी जा रही थीं, अब हम मुसलमानों को भी बंदूकें दे रहे हैं। डोडा नशीले पदार्थों की तस्करी का भी बड़ा केन्द्र बन गया है। और यहां स्थानीय पत्रकार बड़ी मात्रा में लड़कियों को छेड़ने की समस्या पर भी मनोहर सिंह का ध्यान केन्द्रित कर रहे थे। जो पत्रकार मुस्लिम हैं उनका कहना है कि डोडा नरसंहार को मीडिया ने बढ़ाचढ़ाकर प्रचारित किया है। यहां हिन्दू और मुसलमानों के बीच बहुत सद्भाव है। लेकिन कुलाहाण्ड और डोडा शहर में ऐसा कुछ नहीं दिखता। हिन्दुओं का कहना है कि सरकार एकतरफा मुस्लिम राज की तरह काम कर रही है। गांव के चौकीदार साधुराम शर्मा की हत्या कर दी गई। उनकी पत्नी ने दो आतंकवादियों की शिनाख्त भी की जो पड़ोस के गांव के रहने वाले थे। उनमें से एक को गिरफ्तार भी कर लिया गया है। इसके बाद साधुराम के परिवार को धमकियां मिलनी शुरू हुईं और उनके परिवार को कोई सुरक्षा नहीं दी गई है और न ही बेटे को नौकरी या हथियार।

यह भी बताया गया कि गांव के मुसलमानों ने तीन बार ग्राम सुरक्षा समिति बनाने का विरोध किया। हिन्दुओं के साथ जमीन के मामले पर भी बिना बात झगड़े किए जाते हैं। यहां के विधायक माजिद वनी के पक्षपातपूर्ण रवैये की भी सबने चर्चा की। यहां तक कहा गया कि जिन हिन्दुओं को आतंकवादियों ने मारा या उनके परिवार के लिए सरकार की तरफ से जो राशन आया उसका एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ गांव के मुसलमानों में बंट गया बल्कि भीतर ही भीतर आतंकवादी ठिकानों तक भी पहुंच गया। असली बात यह है कि आतंकवादी इस पूरे इलाके से हिन्दुओं को भयभीत कर पलायन के लिए मजबूर करना चाहते हैं। यह बात पत्ते-पत्ते पर लिखी दिखती है। पर गांव के हिन्दू इतने गरीब और बेसहारा हैं कि सिवाय मौत के इन्तजार के कोई और विकल्प नहीं। गांव के लोग न कांग्रेस को जानते हैं और न भाजपा को। कोई उनके लिए कुछ नहीं करता। बसन्तगढ़ में भी यही हाल है। आतंकवादियों के मार्गदर्शक बनकर स्थानीय मुसलमान ही आए। यहां भेड़ बकरियां चराने वाले हिन्दुओं को मारा गया। स्थानीय विधायक हर्षदेव सिंह हैं जो पैंथर पार्टी से हैं, सांसद लाल सिंह कांग्रेस पार्टी के हैं। यहां बीस वर्षीय लेखराज मिला जो आठवीं पास है। उसके पिता श्यामलाल को गोली मार दी गई। कुल 13 हिन्दू मारे गए। उसके चाचा श्रीनगर में इंडियन रिजर्व पुलिस में हैं। गुलाम नबी आजाद ने भरोसा दिया था कि इस परिवार में पांच में से तीन भाइयों को आतंकवादियों ने मार दिया है इसलिए बचे हुए भाई जगदीश चन्द्र को श्रीनगर से बसंतगढ़ तबादला कराकर भेज देंगे, ताकि वह मारे गए तीनों भाइयों के परिवारों की देखभाल कर सकें। लेकिन एक महीने की दौड़धूप के बाद भी कुछ नहीं हुआ है। स्थानीय माहौल ऐसा बन गया है जब आतंकवादी किसी मुसलमान को मारते हैं तो स्थानीय मुस्लिम संगठन उसका दोष भी सेना पर मढ़ते हैं और कहते हैं कि जब तक जम्मू-कश्मीर में सेना है तब तक मुसलमान मरते रहेंगे। जम्मू के पूरे क्षेत्र को चारों ओर से हिन्दू विहीन कर मुस्लिम बहुल बनाने का अभियान पुराना है। हिन्दुओं को घाटी से निकाला गया, उन्हें शरणार्थी दर्जा देकर जो सुविधाएं घोषित की गईं वे ज्यादातर मुसलमानों ने हासिल कर ली हैं। घाटी के मुसलमान बड़ी संख्या में स्वयं को शरणार्थी के रूप में पंजीकृत कराकर अपने नाम पर जमीनें आवंटित करा रहे हैं। जम्मू कश्मीर आम्र्ड पुलिस हो या जम्मू का कोई थाना, सभी मुस्लिम बहुल या प्रभावी दखल वाले बनाए गए हैं और हिन्दू इस वातावरण में दबा, डरा और चुप रहना ही पसंद करता है। वह आतंकवादियों से लड़ने को तैयार है, उसमें हिम्मत है, जोश है, वह कायरों की तरह नहीं रहना चाहता। लेकिन किसी भी पार्टी की सरकार ने उसकी हिम्मत को सहारा नहीं दिया बल्कि उसे सूचीहीन नागरिक बनाकर रखा।

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