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घर के बुजुर्ग कितने सम्मानित, क्यों उपेक्षित?विषयक परिचर्चा की अंतिम कड़ीमुखिया मुख सो चाहिए…-ज्योति जैनअक्सर बुजुर्गों के मुख से ये शब्द सुनने को मिल जाते हैं कि- “भाई, हम तो फालतू हैं” या “अपन तो घर की चौकीदारी करते हैं” या “हमारा क्या है! घर के किसी कोने में पड़े रहेंगे।” हो सकता है ये बातें उनकी जुबान पर अपने बेटे-बहू या अन्य युवा परिजनों के व्यवहार की वजह से आ जाती हों, लेकिन मेरे विचार में बुजुर्गों को स्वयं भी इस बात का आकलन करना चाहिए कि वे स्वयं के ही बेटे के द्वारा क्यों उपेक्षित होते हैं? क्यों अपने ही उनके दर्द का कारण बनते हैं? जिस सम्मान के अधिकारी वे हैं, क्या ऐसा ही सम्मान उन्होंने अपने माता-पिता को, अपने किशोर बेटे के सामने दिया था? अपनी बूढ़ी मां या पिता को बात-बात में फटकारने वाले पिता जब स्वयं बुढ़ापे की ओर अग्रसर होने लगते हैं तो अपने बेटे की हल्की सी ऊंची आवाज से आहत हो जाता है। “संस्कार” का ये पाठ कहीं न कहीं बुजुर्ग ही तो अपनी युवावस्था में अपने बच्चों को नहीं पढ़ा देते? लेकिन फिर भी कुछ बातें यदि हम ध्यान रखें तो निश्चय ही सभी की जीवन-संध्या सुखद व सम्मान से परिपूर्ण होगी।हम अपनी युवावस्था से ही बच्चों में संस्कार के बीच बोएं। यानी जैसा व्यवहार आप भविष्य में अपने बच्चों से चाहेंगे, वैसा ही व्यवहार अभी से अपने बड़ों से करें। स्वयं का तथा अपनी पत्नी का भी सम्मान करें। तभी बुजुर्ग दंपत्ति अपने बच्चों का सम्मान पा सकेंगे। बुजुर्गों को चाहिए कि वे स्वयं को फालतू न कहकर किसी रचनात्मक काम से जुड़ें और सेवा निवृत्ति के बाद “जिन्दगी खत्म हो गई” वाली अवधारणा न अपनाएं। बुढ़ापे के लिए कुछ धन समझदारी से जोड़कर रखें। पैसा सब कुछ भले ही न हो, लेकिन बहुत कुछ तो है ही।तुलसीदास जी ने कहा था कि-मुखिया मुख सो चाहिए, खानपान में एक,पाले पोसे सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।यदि मुखिया विवेकी होगा तो निश्चित ही वह अपने परिवार का वटवृक्ष बनकर रहेगा जिसकी छांव में परिवार स्वयं को सुरक्षित महसूस करेगा। मुझे गर्व है कि मेरे आदरणीय श्वसुर ऐसे ही व्यक्तित्व हैं जिन्होंने अपने व्यवहार से परिवार में सम्मान पाया है।1432/4, नन्दानगर, इन्दौर, म.प्र.-452008संवादहीनता न पनपने देंआज के बुजुर्ग अगर स्वयं की युवावस्था और आज के समय का तुलनात्मक अध्ययन करें तो पायेंगे कि आज के युवा जिस प्रतिस्पर्धा का सामना करते हैं वह संभवत: उन्हें नहीं करनी पड़ी होगी।आज युवाओं को अपना भविष्य बनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है। नौकरी या व्यवसाय करना आज आसान नहीं है और इन दोनों में से कुछ मिल भी गया तो उसे बनाए रखना बहुत ही मुश्किल है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बिन्दू यह है कि आज स्त्रियां भी अपना भविष्य बनाना चाहती हैं, क्योंकि वे भी आज उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। लेकिन पहले ऐसा नहीं था। बुजुर्गों को आज यह परिवर्तन स्वीकार करने में बहुत कठिनाई हो रही है। आज के इन तनावों को देखते, समझते हुए बुजुर्ग युवाओं से अपनी अपेक्षाएं थोड़ी कम कर दें, उन्हें विश्वास में लें, मानसिक आधार देते हुए उनकी समस्याओं को ध्यान से सुनें, समझें और अपने अनुभवों के आधार पर उनका निराकरण करें, समय-समय पर उन्हें सही मार्गदर्शन करें, उनका साथ दें। किन्तु इसी के साथ वे उन पर अहसान न जताएं, उन्हें ताने न सुनाएं तो कोई भी बेटा-बहू हों, वे बुजुर्गों का सम्मान अवश्य ही करेंगे।दूसरी ओर युवाओं के भी बुजुर्गों के प्रति कुछ कर्तव्य होते हैं जो उन्हें जरूर पूरे करने चाहिए। आज की तनावभरी व्यस्त जिंदगी में भी थोड़ा सा समय बुजुर्गों के लिए युवाओं को अवश्य निकालना चाहिए। उनके स्वास्थ्य की देखभाल करनी चाहिए। उनसे प्यार भरा बर्ताव करना चाहिए। युवाओं को अगर उनसे कुछ समस्याएं हैं तो शांति से उन्हें समझाएं। उन पर चीखें, चिल्लाएं नहीं, उन्हें अहसास कराएं कि उन्हें आपकी जरुरत है, आप उनसे प्यार करते हैं। संवादहीनता कभी भी न रखें। उन्हें आदर, सम्मान दें। इससे दोनों के संबंध सदा ही मधुर रहेंगे।93, इन्द्रपुरी कालोनी, 201, हर्षदीप अपार्टमेंट,इन्दौर, म.प्र.जड़ों की ओर लौटेंजैसे अपने जीवन मूल्य ही आज पराए हो गए हैं। दादा-दादी, नाना-नानी की कहानियां मानो बीते कल की बात हो गई। माता-पिता को भी अपने बच्चों की तोतली बातें सुनने की यदि फुरसत नहीं है तो फिर किससे अपेक्षा की जाए? हमारे आस-पास आज जिस प्रकार की घटनाएं घट रही हैं,उसे देखकर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारे बुजुर्ग आज किस अवस्था में हैं। समाज के हर वर्ग के बुजुर्गों को कहीं न कहीं अवमानना का सामना करना पड़ रहा है।एक दिन मैं सब्जी लेने बाजार गई। लगभग 75 साल के एक बुजुर्ग जो वहां सब्जी बेच रहे थे, से मैंने 2 किलो प्याज तोलने को कहा। मैं यह देखकर हैरान थी कि वे तराजू नहीं उठा पा रहे थे। मैंने पूछा तो पास के ठेले वाले ने कहा, बहन जी, इनको बुखार है। मैंने कहा, तो घर पर आराम क्यों नहीं करते? तो उस बाबा ने जवाब दिया, बेटी घर में खाना नहीं मिलेगा। इतना खटता हूं तो भी इस उम्र में बेटे-बहू के ताने सुनता हूं, और कभी-कभी तो बेटा मारने चढ़ जाता है। इतना कहते ही उनकी आंखों से आंसू बह निकले। एक दिन अपने पड़ोस में मैंने देखा कि घर में झगड़ा हो रहा है। बाद में पता चला कि बेटा अपने बूढ़े मां-बाप से दो लाख रुपए ले चुका था, उसे एक लाख रु. और चाहिए थे। माता-पिता ने अपने बुढ़ापे को सुखपूर्वक बिताने के लिए संभवत: यह रुपए बचाकर रखे थे। माता-पिता ने पैसे देने से इनकार कर दिया तो बेटे का पिता को जवाब था- “मैं आपको सिर्फ दुनिया को दिखाने के लिए बाप मानता हूं” और मां के लिए उसके पास शब्द थे- “तुम मुझसे कम से कम मतलब रखो तो ही ठीक है।” अब ऐसे कपूतों की उपस्थिति में बुजुर्ग माता-पिता की क्या दशा बनेगी? पारिवारिक मूल्यों के क्षरण के ऐसे कितने ही उदाहरण हैं?आखिर यह दिन हमारे भारतीय परिवारों को क्यों देखने पड़ रहे हैं? वास्तव में पश्चिमी संस्कृति की जिस राह पर हम चल निकले हैं, वह है ही ऐसी। जहां हर व्यक्ति पूरी स्वतंत्रता या स्वच्छंदता चाहता है। हमारा जीवन जिस ढर्रे पर बढ़ रहा है, वहां परिवार, रिश्ते, माता-पिता आदि बातों या रिश्तों का कोई महत्व नहीं है और आगे चलकर तो यही लगता है कि पति-पत्नी के संबंध टूटने और जुड़ने की भी कोई मर्यादा रेखा नहीं बचेगी। अपनी मूल संस्कृति पर वापस आए बिना हम संयुक्त परिवार या फिर माता-पिता के साथ वाले एकल परिवार को भी बनाए नहीं रख सकेंगे। माता-पिता अपने बच्चों को संस्कारित करने, उनमें पारिवारिक जीवनमूल्य रोपने के सद्प्रयास यदि नहीं करेंगे तो उन्हें अपने बुढ़ापे के बारे में पहले ही सोच लेना चाहिए कि उन्हें किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। दूसरी बात यह कि हमारे बुजुर्ग अपने सेवाकाल में ही सेवानिवृत्ति के बाद की योजना जरूर बना लें। घर की जिम्मेदारी ठीक से बच्चे संभाल सकें, यह जिम्मेदारी भी बुजुर्गों की ही बनती है। यदि इस पहलू पर प्रारंभ से सावधानी बरती जाती है तो पश्चिम की आंधी में भी हम अपने परिवार बचाए रख सकते हैं।द्वारा श्री मुरली श्याम पाठक, गांधी स्मारक इ.कालेज,शहाबगंज, चंदौली (उ.प्र.)बोया पेड़ बबूल का तो…-सीमा महेन्द्रबुजुर्गों के मामले में “बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय”, कहावत कई मायनों में सही दिखती है। हमने अपनी प्राचीन परम्पराओं को छोड़कर पाश्चात्य संस्कृति की ओर जबसे रुख किया है तब से परिवारों का विघटन और एकाकी परिवारों की परम्परा शुरू हुई है।बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी भी कहीं न कहीं इस समस्या के महत्वपूर्ण कारण हैं। एक समय था जब बुजुर्गों के सामने बोलना अच्छा नहीं मानते थे, लेकिन आज ऐसा समय आ गया है कि अब युवा वर्ग बुजुर्गों से कोई राय तक लेना पसंद नहीं करता। अंधाधुंध फैशन-परस्ती और आधुनिक दिखने की होड़, येन-केन-प्रकारेण पैसा कमाने की प्रवृत्ति ने हमें बुजुर्गों से दूर कर दिया है, हमें बुजुर्गों की सोच और उनके अनुभव पुराने लगने लगे हैं। हमारे संस्कार और हमारी शिक्षा पद्धति भी हमें हमारे परिवार व बुजुर्गों से अलग कर रही है।हर बुजुर्ग का सपना होता है कि ढलती उम्र में बच्चे, पोते-पोतियों के साथ उनका समय सम्मानपूर्वक व्यतीत हो, किन्तु भाग्य की विडम्बना और कड़वा सच यह भी है कि ऐसा नहीं हो रहा है। हमारे बुजुर्ग पल-पल मर रहे हैं, आज मनोरंजन के साधन टेलीविजन और फिल्में भी हमें अश्लीलता, फैशन-परस्ती के अलावा कुछ भी नहीं दे रही हैं। जमाने के इस भटकाव की वजह से नाना-नानी, दादा-दादी के रिश्ते लुप्त होते जा रहे हैं। हमें अपने बच्चों को जो शिक्षा, संस्कार और समय देना चाहिए, वह नहीं दे पा रहे हैं। समाज को जागरूक होकर यह सोच-विचार करने की आवश्यकता है कि हमें रिश्तों की पहचान और उनके महत्व का सन्देश अपने व्यवहार और कार्य से आने वाली पीढ़ी को देना होगा। हमें अपने तीज-त्योहार, परम्पराओं, परिवार आदि के महत्व के सम्बंध में सजग होना पड़ेगा।नई बस्ती, सीतापुर, उ.प्र.23
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