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वचनेश जी की याद अपने अतीत और क्रांति-संघर्ष की याद है। वास्तव में इस देश में क्रांतिकारी इतिहास पर लेखन का जो दौर वचनेश जी ने शुरू किया वह असाधारण और अनूठा है। हर हफ्ते उनकी चिट्ठी आना, कभी गुस्से में- “मेरा संस्कृति सत्य स्तंभ काटकर कुछ और क्यों दिया”, तो कभी अति संतुष्टि और प्यार भरी प्रशंसा का- “वाह तरुण जी, यह तो बस आपसे ही उम्मीद थी”- और उनकी चिट्ठियां, जिनमें से अधिकांश अभी तक संभाल कर रखी हुई हैं, भी अद्भुत ढंग से लिखी जाती थीं। कोई चिट्ठी पुराने इस्तेमाल किए गए लिफाफे को उलट कर लिखी गई होती तो कोई शायद हरदोई से लखनऊ रेल में जाते हुए किसी सिगरेट की पन्नी के पीछे। उनके लेख भी ऐसे ही होते थे। वास्तव में वचनेश जी लेखक, क्रांतिकारी, मनीषी और सम्पादक तो थे ही, पर उससे भी बढ़कर थे वीतरागी और अवधूत। दुनिया का कोई मोह-माया भरा जंजाल उन्हें छू तक नहीं गया था। उनको पद्मश्री सम्मान मिला तो मुझे अच्छा नहीं लगा। हमारी दृष्टि में वे पद्मश्री से बहुत आगे बढ़ चुके थे। वे राष्ट्रपति भवन के अलंकरण समारोह में भाग लेने आए तो मैंने कहा, “आपने यह पद्मश्री क्यों स्वीकार की? क्या इससे आपका कद बढ़ गया?” बात पाञ्चजन्य कार्यालय की है। वे एक क्षण मेरी ओर देखते रहे। फिर बोले, “ना लेता तो अपने अटल जी का अपमान होता और लोग कहते, अपने को बहुत बड़ा मानता है। अरे छोड़ो तरुण जी, इसमें क्या रखा है। अच्छा, मेरा पिछला स्तम्भ मिला या नहीं?”बहुत कम लोगों को पता होगा कि वे केवल लेखक ही नहीं, क्रांतिकारी भी थे और सक्रिय क्रांतिकारी जीवन में ही उनके अनेक वरिष्ठ क्रांतिकारियों से सम्बंध हुए। बाद में सस्ती लोकप्रियता और अपनी छवि के लिए दूसरे को गिराने की मनोवृत्ति देखकर वे केवल लेखन की तपस्या में ही जुटे रहे। अभी इस हफ्ते भी उनका स्तम्भ आया है और अब तो कड़ाई से निर्देश था कि चाहे बाकी कुछ और रोकना पड़े पर वचनेश जी का स्तंभ नहीं रुकेगा। लेकिन विधि को कुछ और ही मंजूर था, उनकी कलम का प्रवाह ही रुक गया।वे इस बात के अत्यन्त आग्रही थे कि नई पीढ़ी को देश की आजादी और सांस्कृतिक विरासत का सही इतिहास जरूर पढ़ाया जाना चाहिए। पिछले तीन दशकों से वे निरंतर संस्कृति सत्य स्तम्भ के अंतर्गत क्रांतिकारी इतिहास और सांस्कृतिक भावधारा का जो अनुपम प्रवाह पांचजन्य के माध्यम से प्रवाहित करते रहे, वह देश की राष्ट्रवादी पत्रकारिता के इतिहास का विशिष्ट अध्याय है। पाञ्चजन्य यह परम्परा सदा जारी रखेगा और बढ़ाएगा, यही उन क्रांतिधर्मा संत किंवा हंस को सच्ची श्रद्धाञ्जलि होगी। तरुण विजय4
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