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गोरक्षपीठ की "दिग्विजय" साधना

by
Oct 12, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Oct 2006 00:00:00

-योगी आदित्यनाथ

उत्तराधिकारी-गोरक्षपीठ, अध्यक्ष-विश्व हिन्दू महासंघ

(भारत इकाई), संसद सदस्य (लोकसभा)-गोरखपुर

योगपुरुष, ब्राह्मलीन गोरक्षपीठाधीश्वर महन्त दिग्विजयनाथ जी हिन्दू समाज की प्रेरणा के अक्षय स्रोत हैं। वे भारतवर्ष के महान पीठाधीश्वरों में एक थे। उनके नाम के अनुरूप उनका व्यक्तित्व व कृतित्व दोनों दिग्विजयी था।” वे मेरे “दादा गुरु” थे। भारत की सनातन, योगी परम्परा को उन्होंने अपने जीवन के कण-कण और क्षण-क्षण में जिया था।

ब्राह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज के पूर्व श्री गोरक्षनाथ मंदिर के महंतों की लंबी परम्परा में अनेक महातपस्वी सिद्ध और योगिराज हुए हैं। इन महायोगियों की चमत्कारिक योग सिद्धियों की गाथा और साधना की उंचाईयों की कहानी लोकमानस में आज भी प्रचलित हैं। यद्यपि ये योगी सांसारिक जीवन और देशकाल के प्रति प्राय: तटस्थ भाव से आत्मलीन और एकांत साधना में ही लगे रहते थे। फिर भी उन्हें देश और समाज की चिंता भी रहती थी तथा वे भक्तों के आग्रह पर कभी-कभी अहेतुकी कृपा भी करते थे, किन्तु आध्यात्मिक साधना में लीन होने से अपनी वृत्तियों को बर्हिमुखी बनाने और लोक संपर्क में आने से अक्सर वे बचते थे।

स्वदेश और स्वधर्म के लिए आत्मोत्सर्ग करने वाले महाराणा प्रताप के वंश में महंत दिग्विजयनाथ जी का जन्म हुआ था। शैशव काल में ही वे तत्कालीन विश्वविश्रुत संत योगिराज बाबा गंभीरनाथ जी के गुरु-सान्निध्य में आ गए। गोरक्षनाथ मंदिर के महंतों की परम्परा में निश्चय ही वे एक अपवाद थे, क्योंकि उन्होंने आत्मोद्धार पर देश, जाति और समाज के उद्धार को तथा एकांत साधना पर लोकसाधना को वरीयता देने का अपूर्व और युगांतकारी कार्य किया। महंत जी वीरों के तीर्थराज चित्तौड़ (मेवाड़) से अल्पायु में ही गोरक्षनाथ मन्दिर के लिए समर्पित होकर आए थे। बाबा गंभीरनाथ ने उनमें प्रसुप्त महान भविष्य को बीज रूप में देख लिया था, अत: उनके मार्गदर्शन में ही युवा महंत दिग्विजयनाथ की साधना प्रारंभ हुई।

महंत जी जब विद्यार्थी थे, उस समय देश में अंग्रेजी राज था किन्तु अंग्रेज अधिकारियों के होते हुए भी उन्होंने गोरक्षनाथ मंदिर के प्रांगण में प्रचाररत ईसाई मिशनरियों को प्रचार सामग्री और अन्य सामानों सहित भाग जाने और फिर कभी इधर रुख न करने के लिए विवश किया। महंत जी की तेजस्विता और धर्मयोद्धा भाव को जगजाहिर करने वाली अनेकानेक घटनाएं आज भी लोकमानस में चर्चित हैं। केवल स्वधर्म के लिए ही नहीं अपितु स्वदेश के लिए भी उनके अंत:करण में अनन्य निष्ठा एवं अगाध आस्था कूट-कूट कर भरी थी। उन्होंने देश की स्वतंत्रता, धर्म एवं देश दोनों में अपनी उल्लेखनीय सक्रियता, सहभागिता बनाए रखी। कालेज की शिक्षा का परित्याग कर उन्होंने गांधीजी के गोरखपुर आगमन पर उनके स्वागतार्थ स्वयंसेवक दल का गठन कर उसका नेतृत्व किया और उनकी सभा सफल बनाई। स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में प्रसिद्ध चौरी-चौरा काण्ड के सर्जकों में एक अग्रणी नाम युवा महंत दिग्विजयनाथ जी का भी था। दैवयोग से अंग्रेज उन्हें पहचान नहीं पाए थे। वास्तव में फांसी के फंदे पर झूलकर हुतात्म होने से वे इसलिए बच गए थे क्योंकि अभी विधाता को उनसे देश, जाति और समाज के लिए अनेक लोकमंगलकारी कार्य लेने थे। ब्राह्मलीन महंतजी ने अपने गुरु जो विद्यालयीन सेवा से अन्यायपूर्वक निकाल दिए गए थे, की आजीविका तथा उनके स्वाभिमान की रक्षा के लिए स्वयं एक विद्यालय खोलकर उन्हें प्रधानाचार्य के पद पर प्रतिष्ठित किया। यही संस्था कालांतर में पूर्वांचल में शैक्षिक पुनर्जागरण का केन्द्र बिन्दु बनकर महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद् नामक सुविशाल वटवृक्ष बनी जो संप्रति शिशु स्तर से विश्वविद्यालय स्तर तक दर्जनों शिक्षण संस्थाओं के द्वारा सामाजिक सेवा के नित्य नए-नए आयाम स्थापित कर रही है। महंत जी में शिक्षा और उसके राष्ट्रीय दायित्व को लेकर सदा चिंता बनी रही। यद्यपि महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद् की स्थापना के पीछे गुरु-ऋण से मुक्त होने की भावना ही प्रमुख थी किन्तु हमारे मठ-मन्दिर सामाजिक जागरण और समाज में बौद्धिक-क्रांति लाने के केन्द्र बनें, उनकी यह भावना भी अप्रतिम थी। महंत दिग्विजयनाथ ने सज्जन शक्ति के संरक्षण एवं राष्ट्रभक्त नागरिकों के निर्माण में अपनी शक्ति लगायी। उन्होंने मंहत ब्राह्मनाथ योगी से विधिवत योग दीक्षा ली और अपने दिग्विजयी कृतित्व द्वारा पग-पग पर अपना नाम सार्थक किया।

योग दीक्षा के तीसरे वर्ष में ही योगी दिग्विजयनाथ जी अपने गुरुदेव पूज्य ब्राह्मनाथ जी के ब्राह्मलीन हो जाने के बाद श्री गोरक्षनाथ मंदिर, गोरखपुर के महंत पद पर अभिषिक्त हुए। बाद की घटनाओं ने यह भलीभांति सिद्ध कर दिया कि उनका यह अभिषेक वस्तुत: देश में हिन्दुत्वनिष्ठ राष्ट्रवादी शक्तियों का महाभिषेक था, जिसकी उस संक्रमण काल में नितांत आवश्यकता थी। महंत जी उन रूढ़ियों के विरोधी थे, जो धर्म के नाम पर समाज को तोड़ने का कार्य आज भी कर रही हैं। मंदिरों में अछूतों के प्रवेश के अधिकार को लेकर महंत जी ने जबरदस्त आंदोलन किया और गिरफ्तार भी हुए। हमारे मठ और मंदिर किस प्रकार सार्वजनिक श्रद्धा, आकर्षण, प्रेरणा तथा लोक कल्याण के समर्पित केन्द्र हों, इसका मूर्त रूप महंत दिग्विजयनाथ जी द्वारा विकसित गोरखनाथ मंदिर, गोरखपुर है। इसका स्थापत्य, इसकी स्वच्छता और इसका धार्मिक, आध्यात्मिक वातावरण सब कुछ महंतजी के औदात्य, औदार्य और लोकसंग्रही व्यक्तित्व का स्मारक है। उन्होंने गोरखपुर संसदीय क्षेत्र से प्रतिनिधि के रूप में भारतीय संसद में भी प्रवेश किया और भारत की सर्वोच्च विधायिका के मंच से हिन्दू धर्म, जाति और राष्ट्र के जागरूक प्रहरी की भांति गर्जना की। ब्राह्मलीन हो जाने के बावजूद वे अपने अविस्मरणीय कृतित्व एवं व्यक्तित्व के अजर-अमर रूप में हमारे बीच एक प्रकाशपुंज की तरह विद्यमान हैं।

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