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मातृभाषा का अनादर मां के अनादर के बराबर है। जो मातृभाषा का अपमान करता है वह स्वदेशभक्त कहलाने लायक नहीं।-महात्मा गांधी(भागलपुर के बिहार छात्र सम्मेलन में भाषण,15 अक्तूबर 1917)चीन में सिकुड़ती माओ की जगहचीन में हाईस्कूल विद्यार्थियों की पाठपुस्तकों से माओ त्से तुंग के बारे में राजनीतिक पाठ आश्चर्यजनक रूप से हटा दिए गए हैं और इसके साथ ही कम्युनिस्ट क्रांति तथा जन युद्धों के पाठों की जगह अर्थशास्त्र, प्रौद्योगिकी, सामाजिक रीति रिवाज और वैश्वीकरण के पाठ जोड़े गए हैं। समाजवाद का एक अध्याय संक्षिप्त कर इतिहास विषय के अन्तर्गत सीमित कर दिया गया है। माओ का केवल एक ही बार जिक्र किया है, वह भी शिष्टाचार के पाठ में। 1950 से जिस प्रकार के माओवादी मुहावरों और इतिहास दृष्टि को अनिवार्य रूप से पढ़ाया जा रहा था उसे बदलकर आज के आर्थिक और राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए फिर से लिखा गया है। इस परिवर्तन के समर्थकों का कहना है कि कनिष्ठ और वरिष्ठ हाईस्कूल विद्यार्थियों को इतिहास के ये पाठ उन्हें जीवन तथा वास्तविक परिस्थितियों का सामना करने के लिए सिद्ध करेंगे। पुरानी पाठ पुस्तकें पिछले 25 वर्षों से अपरिवर्तित ही रही थीं जबकि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी में इन वर्षों में बहुत बड़े आमूलाग्र परिवर्तन आ गए।उल्लेखनीय है कि चीन में एक पार्टी की राज्य व्यवस्था है और पिछले कुछ वर्षों से कम्युनिज्म के बजाय बाजार के अर्थशास्त्र, मुक्त सुधारों तथा भविष्य के प्रति पहले से अधिक जन सहभाग को सुनिश्चित किया जा रहा है। यह चीन के बढ़ते आत्मविश्वास और आर्थिक तथा सैन्य मजबूती का परिचायक है। चीन की पाठपुस्तकों में अब माओ से अधिक स्थान तंग श्याओ फंग को दिया जा रहा है, जिन्होंने चीन में बाजार केन्द्रित सुधार प्रारंभ करने का एक क्रांतिकारी कदम उठाया था। माओ के बारे में केवल छोटी कक्षाओं में सामान्य पाठ रह गए हैं तथा बड़ी कक्षाओं में माओ का जिक्र केवल एक उस अध्याय में आता है जिसमें राजकीय अन्त्येष्टियों में राष्ट्रध्वज के झुकाए जाने की पद्धति को 1976 में माओ के निधन के उदाहरण से समझाया गया है।परिस्थितियां कितनी बदल गईं। चीन अपने मूल अधिष्ठान को सुरक्षित रखते हुए नित्य परिवर्तनशील देश का उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है। लेकिन भारत में कम्युनिस्ट खण्डहरों का बोझ उठाए हुए ही चल रहे हैं।नेपाल में उलझनें बढ़ींसीमावर्ती क्षेत्रों से मिले समाचारों के अनुसार भारत में रह रहे अस्सी हजार से एक लाख तक नेपाली दसाईं (दशहरा) के अवसर पर नेपाल लौटेंगे। ऐसा माना जाता है कि इनमें से अधिकांश माओवादी समर्थक हैं और त्योहार मनाने के बाद वे माओवादी हलचलों एवं आंदोलनात्मक गतिविधियों में शामिल होंगे।नेपाल में परिस्थितियां पूरे नियंत्रण में नहीं कही जा सकतीं। सरकार बनते ही तुरंत 12 नेपाली राजदूतों को विदेशों से वापस बुला लिया गया था। उन पर आरोप था कि वे राजा समर्थक हैं। अभी तक चार महीने बीत चुके हैं, एक भी स्थान पर नये राजदूत की नियुक्ति नहीं की जा सकी है। नेपाल का नई दिल्ली स्थित महत्वपूर्ण दूतावास भी राजदूत विहीन है। उधर वामपंथी नेताओं में विदेशों में नियुक्तियों के लिए आपसी झगड़े हो रहे हैं। कहा जाता है कि हांगकांग में वाणिज्य दूत के लिए वामपंथी नेता वामदेव गौतम के सहायक टेकमणि शर्मा का नाम चला तो एमाले नेता माधव नेपाल ने उसे कटवा दिया।पिछले दिनों यूक्रेन से हथियारों से भरा एक विमान तेल भरवाने के लिए दिल्ली रुकना चाहता था परंतु भारत सरकार ने तेल भरने की अनुमति नहीं दी इसलिए वह वापस लौट गया। यूक्रेन के इस विमान में रखे शस्त्र किसके लिए थे? भारत में माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले समाचार पत्रों ने लिखा है कि ये शस्त्र राजा के शासन में मंगवाए गए थे। जबकि संदेह यह भी व्यक्त किया जा रहा है कि इन शस्त्रों का राजा के विरुद्ध इस्तेमाल होना था। शासन में माओवादियों की खुली लूट मची है। कीमतें आसमान छू रही हैं। ऐसी स्थिति में नेपाल का भविष्य अनिश्चित दिख रहा है।6
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