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लोकार्पण समारोह में रा.स्व.संघ के सरसंघचालक कुप्.सी.सुदर्शन ने अपने उद्बोघन में जो कहा उसका सार यहां प्रस्तुत है-सं.समाज में जब पतन की अवस्था आती है तब समाज के अनेक वर्गों को अत्यंत वेदना का, कष्ट का जीवन व्यतीत करना पड़ता है। मैं नामदेव जी की वेदना से सहमत हूं। मैंने डा.अम्बेडकर का समग्र जीवन पढ़ा है, उनकी पुस्तक “माई थाट्स आन पाकिस्तान” को भी पढ़ा है और औरंगाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति शंकर राव खरात का जीवन परिचय भी मैंने पढ़ा है। कैसी-कैसी परिस्थिति में से इन लोगों को गुजरना पड़ा है, इसे देखकर वास्तव में रोना आता है। शंकरराव खरात की पुस्तक में एक प्रसंग आता है। जब वे छोटे थे, उस समय उनके पिताजी एक ब्राह्मण के यहां गए और कहा कि यह चिट्ठी आई है, इसे पढ़ दीजिए। चूंकि उनके यहां कोई पढ़ा लिखा नहीं था इसलिए वे ब्राह्मण परिवार के पास गए। उन्हें आया देखकर ब्राह्मण पत्नी ने कहा कि अरे! वो आया है, जो एक गाड़ी लकड़ी आई हुई है, उसे फड़वा लीजिए। तो चिट्ठी पढ़वाने के लिए एक गाड़ी लकड़ी उन्हें फाड़नी पड़ी। काम पूरा करने के पश्चात् जब उन्हें चिट्ठी सुनाई गई तो उसमें लिखा था कि उनकी बहन का देहान्त हो गया है।बाद में जब शंकर राव खरात औरंगाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति बने तब उन्होंने टिप्पणी की कि जिनके पिता जी को कभी एक पत्र पढ़वाने के लिए एक गाड़ी लकड़ी फाड़नी पड़ी, उन्हीं का बेटा आज एक विश्वविद्यालय का कुलपति बना है। यदि आज मेरे पिता जीवित होते तो उन्हें कितना आनंद हुआ होता।हमारे समाज का दुर्भाग्य रहा है कि हम अपने ही धर्म को ठीक से समझ नहीं सके। यह हिन्दू समाज का दुर्भाग्य है कि उसका श्रेष्ठ तत्व ज्ञान और व्यवहार दोनों अलग-अलग दिखाई देने लगे। हिन्दू समाज ने बहुत उत्थान-पतन देखे हैं। महाभारत काल में जब पतन हुआ तब भगवान कृष्ण ने गीता के रुप में जो तत्वज्ञान दिया, इस कलियुग में वह हमारे लिए भगवान के द्वारा दी गई स्मृति है। उस समय गीता ज्ञान से शक्ति लेकर देश फिर नवोत्थान की ओर बढ़ा। देश में जब पुन: पतन हुआ तो भगवान बुद्ध आए। आगे जगद्गुरु शंकराचार्य का प्रादुर्भाव हुआ। समाज में बौद्व मत के अतिरेक से जो विकृतियां आईं उसे दूर करते हुए उन्होंने अद्वैत दर्शन की स्थापना की। बौद्ध सिद्धांतों को भी उन्होंने स्वीकारा, परिणामत: वे प्रच्छन्न बौद्ध भी कहलाए। वेदांत के माध्यम से सभी मत-मतांतरों को शंकराचार्य ने दूर किया। शंकराचार्य के बाद पुन: स्वर्णकाल आया। बाद में पुन: देश में पतनावस्था आई और इस पतन की पराकाष्ठा हमें 1947 में देश विभाजन के रुप में चुकानी पड़ी। यद्यपि 19वीं सदी में आध्यात्मिक जागरण का प्रारंभ हो चुका था। स्वामी दयानंद, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद जैसे महापुरुषों ने, केरल के नारायण गुरु, आलवार, संत ज्ञानेश्वर आदि संतों ने सामाजिक एकता के प्रयत्नों को नई दिशा दी।इसी श्रृंखला में 1925 में रा.स्व.संघ की स्थापना हुई, तभी से हमने कहा कि हम जाति भेद नहीं मानते, पूरे समाज को हम संगठित स्वरुप में खड़ा करेंगे।जाति भेद, छुआछूत समाप्त करने के पीछे हमारा आधार हिन्दू तत्व ज्ञान ही है। हिन्दू तत्व ज्ञान जड़-चेतन सभी में एक ही आत्मतत्व की उपस्थिति मानता है। हम सब भारत माता के पुत्र हैं, यह भाव सभी में उत्पन्न करना, यही संघ का लक्ष्य है। इसी कारण पूज्य श्री गुरुजी के जन्मशताब्दी वर्ष को हमने समरसता वर्ष के रुप में मनाने का निर्णय लिया है।कार्यक्रम के बाद पत्रकारों से बात करते हुए श्री सुदर्शन ने कहा कि प्रत्येक भारतीय को वन्दे मातरम् गाना चाहिए। जो भारत को अपनी माता नहीं मानते उन्हें भारत में रहने का भी अधिकार नहीं है।21
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