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वन्दे मातरम्

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Oct 9, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 09 Oct 2006 00:00:00

जिस धरती का अन्न-जल खायाउसको नमन क्यों न करें-आरिफ मोहम्मद खान, पूर्व केन्द्रीय मंत्रीवन्दे मातरम् पर इस समय कोई विवाद होना ही नहीं चाहिए था। अगर कोई विवाद था तो वह 1937 में ही सुलझ गया था। इसके बाद भी यदि कोई दल या कुछ लोग उसका विरोध करते हैं तो वे संविधान विरोधी कार्य कर रहे हैं। क्योंकि संविधान सभा ने एक प्रस्ताव पारित कर जन गण मन के समान ही वन्दे मातरम् को राष्ट्र गीत स्वीकार किया है। लेकिन जब मैंने मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के प्रवक्ता को टी.वी. पर यह कहते हुए सुना कि पसर्नल ला बोर्ड ने मुस्लिम अभिभावकों को यह सलाह दी है कि वे 7 सितम्बर को अपने बच्चों को स्कूल न भेजें और वन्दे मातरम् से परहेज करें, तब मेरे मन में यह बात पैदा हुई कि जो वन्दे मातरम् से परहेज करने की अपील कर रहे हैं क्या उन्होंने स्वयं संस्कृत में लिखा वन्दे मातरम् पढ़ा है? क्या उसका अभिप्राय समझा है? अथवा ये लोग इस बात का फायदा उठा रहे हैं कि सामान्य लोगों को वन्दे मातरम् में प्रयोग किए गए शब्दों का अर्थ पता नहीं है? इसलिए मैंने सोचा कि मैं वन्दे मातरम् का सरल सामान्य भाषा में अनुवाद करूं और स्वयं भी देखूं कि इसमें ऐसा क्या है जिस पर कुछ लोगों को आपत्ति है।मैंने पहले भी अनेक बार वन्दे मातरम् पढ़ा था, थोड़ी बहुत संस्कृत भी जानता हूं। पर वन्दे मातरम् के अनुवाद के लिए मैंने अपने एक परिचित संस्कृत के विद्वान को साथ बैठाया, महर्षि अरविन्द द्वारा वन्दे मातरम् का अंग्रेजी में किया गया अनुवाद भी साथ में रखा और फिर एक-एक पंक्ति का अनुवाद किया। तब एक बात और यह ध्यान में आयी कि केवल संस्कृत और अरबी में ही ऐसी विशेषता है कि इसमें एक ही शब्द में वाक्य पूरा हो जाता है। संस्कृत का तो एक ही शब्द पूरी बात कह देता है। जैसे सुजलाम् का अनुवाद करते समय मैंने लिखा- तू भरी है मीठे पानी से, या शस्य श्यामलाम् को लिखा- फसलों की सुहानी फिजाओं से। ऐसे ही सुफलाम् का अर्थ मिला “फल-फूलों की शादाबी से” और मलयज शीतलाम् का अर्थ हुआ “दक्किन की ठंडी हवाओं से”। और ये सब अर्थ निकालने के बाद जब मैंने अपने संस्कृत के विद्वान मित्र से पूछा तो उन्होंने भी सहमति दी कि इन शब्दों का यही भावार्थ हो सकता है। ऐसे ही जब शुभ्रज्योत्स्ना या फुल्ल कुसुमित के अर्थ ढूंढे तो वाक्य बने-तेरी रातें रोशन चांद से, तेरी रौनक सब्जे फाम से।तेरी प्यार भरी मुस्कान है, तेरी मीठी बहुत जुबान है…सब्जे फाम का अर्थ जब ढूंढा तो पता चला कि ऐसी हरियाली जो गहरा हरा रंग लिए हो, स्याह गाढ़ा। इतना गहरा हरा कि लगे वह कालापन लिए है। और ऐसी हरियाली वहीं होती है जहां की भूमि अधिक उपजाऊ हो अथवा उन पेड़-पौधों को अधिक खाद-पानी दिया गया हो। सुहासिनी को महर्षि अरविन्द ने अपने वन्दे मातरम् में “स्वीट स्माइल” लिखा और मैंने इसे “तेरी प्यार भरी मुस्कान” लिखा है। सुमधुर भाषिणीम् को “तेरी मीठी बहुत जुबान है” से बेहतर और क्या कहा जा सकता है। सुखदाम् यानी सुख मिले और सुख कहां मिलता है – मां की बांहों में, इसलिए लिखा कि तेरी बांहों में मेरी राहत है। और वरदाम्, यहां आकर मैंने बहुत विचार किया। क्योंकि वरदाम् का अरबी या फारसी में सीधे-सीधे शाब्दिक अर्थ होता है दुआ देना। पर वर ऐसी वस्तु है जो कोई साधारण आदमी किसी दूसरे साधारण आदमी को नहीं दे सकता। वर एक असाधारण चीज है। और धरती के संदर्भ में वरदाम् को कैसे जोड़ा गया है, यह समझना आवश्यक था। तब मैंने पाया कि इस्लामी चिंतन में यह कहा गया है कि मां के पैरों के नीचे जन्नत है। और यह जन्नत कोई आदमी किसी दूसरे आदमी को नहीं दे सकता। पर मां भी इंसान है, लेकिन उसके कदमों के नीचे जन्नत बतायी गयी है। इस दर्शन को समझना होगा। मां के कदमों के नीचे जन्नत है। पर उस जन्नत को पाना उसके पुत्रों के कर्मों पर निर्भर करता है। अब मेरे आचार, विचार, व्यवहार और कर्म तय करेंगे कि मैं उस जन्नत को हासिल कर सकूंगा या नहीं।यहां मैं यह भी कहना चाहूंगा कि कोई कानून बनाकर, जोर जबरदस्ती से किसी को अपनी मां से प्यार करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता। किसी के प्रति प्यार पैदा करने के लिए कानून में कोई तरीका नहीं है। लेकिन किसी व्यक्ति को यह अहसास अवश्य कराया जा सकता है कि यदि उसने अपनी मां से मोहब्बत नहीं की, उसकी सेवा नहीं की तो मां के कदमों में जो जन्नत है, वह उसे नहीं मिलेगी। जहां हम पैदा हुए हैं, उसे हम मादरे वतन कहते हैं। इस मादरे वतन की अपनी मां के साथ तुलना करूं तो यह कोई मजहब विरोधी काम नहीं है। जिसका दोहन हमने सारी जिंदगी किया, जिसका अनाज और पानी अंतिम सांस तक पिया, उसका कोई अधिकार हमारे ऊपर है या नहीं?हदीस में भी एक स्थान पर कहा गया है कि पूरी धरती मेरे लिए मस्जिद बना दी गई है। इसीलिए यह दिखाई देता है कि केवल मस्जिद में नमाज पढ़ना जरूरी नहीं है बल्कि एक मुसलमान यात्रा के समय रेलगाड़ी में, प्लेटफार्म या पैदल चलते समय कहीं भी, किसी पेड़ के नीचे गमछा (अंग वस्त्र) बिछाकर नमाज पढ़ लेता है। तो क्या कोई कहेगा कि मस्जिद का सम्मान नहीं होना चाहिए? फिर उस मस्जिद (धरती) का कितना सम्मान होना चाहिए जहां ऊपर वाले ने हमें पैदा किया है? इसका फल-फूल, अन्न-पानी तो हमने खाया ही है, मरने पर हमें इसी धरती का हिस्सा बन जाना है। जिस मिट्टी में मेरे बुजुर्गों की हड्डियां मिली हुई हैं, क्या वो मेरे लिए काबिले ताजीम नहीं होनी चाहिए? उस धरती की ताजीम करना मेरा फर्ज है जिसे हदीस में मस्जिद कहा गया है। यानी सारी धरती की ताजीम करनी चाहिए। पर मेरी अपनी धरती, जहां मैंने जन्म लिया, मैं इससे प्यार क्यों न करूं?जब मैंने वन्दे मातरम् का अनुवाद करना शुरू किया तो मुझे लगा कि लोग इस बेमिसाल गीत का अज्ञानता के कारण विरोध करते हैं। मैंने भी वन्दे मातरम् की गहराई को तब समझा जब मैंने इसका अनुवाद करना प्रारंभ किया। मैंने पूरे वन्दे मातरम् का अनुवाद नहीं किया है, क्योंकि वर्तमान में जिस वन्दे मातरम् की चर्चा हो रही है, जो हमारी संविधान सभा द्वारा राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकृत किया गया है, वह वही मूल गीत है जो 1875 में बंकिम चन्द्र जी ने लिखा था। बाद में 1881 में आनन्द मठ में इसे शामिल करते समय इसका विस्तार किया गया था। इसलिए मैंने उसी वन्दे मातरम् का अनुवाद किया जो राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकृत किया गया है। पर सम्पूर्ण वन्दे मातरम्, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसमें मूर्ति पूजा का भाव आता है, वास्तव में आनन्द मठ उपन्यास की आवश्यकता के कारण इसमें वह हिस्सा जोड़ा गया। और जहां तक बंकिम बाबू की बात है, तो वे जिस समुदाय से सम्बंध रखते थे वह मूर्ति पूजा का विरोधी था। बंकिम चन्द्र ने स्वयं मूर्ति पूजा के विरुद्ध एक लेख लिखा है। “काल टू टÜथ” नामक अपने लेख में उन्होंने लिखा था, “मूर्ति पूजा विज्ञान विरोधी है। जहां कहीं मूर्ति पूजा है वहां ज्ञान नहीं रहता। वे आर्य ऋषि, जिन्होंने भारत में ज्ञान का वर्धन किया, वे मूर्तिपूजक नहीं थे।” बंकिम चन्द्र ने वन्दे मातरम् के अगले खण्ड में ऐसी बातें क्यों लिखीं, जिनसे मूर्ति पूजा का आभास होता है, इस पर गहराई से विचार करना चाहिए। मेरी दृष्टि में इसका कारण यह था कि केवल भारत ही नहीं, सभी पूर्वी देशों में यह पुरानी परम्परा रही है कि जब भी किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर जनचेतना जगानी होती थी तो उसे एक धार्मिक आधार प्रदान कर दिया जाता था। उस समय बंगाल में मुस्लिम नवाब का शासन केवल नाममात्र को था और सत्ता के सूत्र वास्तव में अंग्रेजों के पास थे। ऐसे में इन दोनों के विरुद्ध राष्ट्रवादी लोगों की चेतना जागृत करने के लिए बंकिम चन्द्र ने वन्दे मातरम् में धार्मिक प्रतिमानों का सहारा लिया। जो लोग यह कहते हैं कि बंकिम चन्द्र के उपन्यास आनन्द मठ से भी उनके मुस्लिम विरोधी होने का आभास मिलता है, उन्हें इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को भी समझना चाहिए कि उस समय देश को गुलाम बनाने वाले अंग्रेज बंगाल के नवाब के एजेन्ट के रूप में कार्य कर रहे थे। आनन्द मठ में बंकिम का आक्रोश उस नवाब के विरुद्ध है, आम मुसलमान के विरुद्ध नहीं।हालांकि मैं नहीं मानता, पर पाकिस्तान के अधिकांश और भारत में बहुत से लोगों का ऐसा मानना है कि अल्लामा इकबाल पाकिस्तान के सूत्रकार थे। लेकिन क्या इस आधार पर भारत में कोई कहेगा कि “सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा” गाना बंद कर दिया जाए? बंकिम चन्द्र के साहित्य को भी इसी दृष्टि से देखें। प्रख्यात आलोचक रियाजुल करीम ने इसलिए वन्दे मातरम् पर साहित्यिक चर्चा करते हुए मन को छू जाने वाला एक वाक्य लिखा है। उन्होंने कहा कि इस गीत ने गूंगों को जबान दे दी और जो कमजोर दिल के थे, उन्हें साहस दे दिया। इस दृष्टि से बंकिम चन्द्र का योगदान अतुलनीय है।दरअसल आजादी के आंदोलन के दौरान वन्दे मातरम् का विरोध इसलिए नहीं किया गया कि इसमें कहीं मजहब विरोधी बातें थीं, बल्कि इसलिए किया गया ताकि मुसलमान राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा न बनें। इसीलिए मोहम्मद अली जिन्ना ने 1937 में कांग्रेस के साथ बातचीत में जो तीन शर्ते रखीं, उनमें पहली थी कि कांग्रेस मुस्लिम सम्पर्क का काम बन्द करे। वन्दे मातरम् न गाने की शर्त दूसरी थी। मुस्लिम सम्पर्क बन्द करने की मांग इसलिए की गई ताकि कांग्रेस यह न कह सके कि वह राष्ट्रीय पार्टी है। सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है। यदि कांग्रेस सिर्फ हिन्दू पार्टी बनकर रह जाती तभी तो मुस्लिम लीग को मुसलमानों की पार्टी माना जाता। इसलिए मुस्लिमों में कांग्रेस के सम्पर्क कार्यक्रम का विरोध किया गया। इस राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए वन्दे मातरम् का विरोध किया गया। जिन्ना का उद्देश्य स्पष्ट था कि भले ही आजादी अभी मिले या देर से मिले, पर पहले हमारी मांगों का फैसला हो जाए। जब आजादी के बारे में ही जिन्ना का दृष्टिकोण बदल चुका था तब वन्दे मातरम् के बारे में उनकी सोच को समझा जा सकता है।जिन लोगों ने यह कहा कि न केवल हमारा मजहब अलग है बल्कि हमारी संस्कृति और परम्पराएं अलग हैं, इसी द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त के आधार पर अलग देश बनाया, वे आज बहुत पीछे हैं, उनके टुकड़े भी हो गए। पर इस सिद्धान्त का विरोध करने वाले भारत में सभी मत, पंथों, सम्प्रदायों के लोग शांतिपूर्वक रह रहे हैं और यह देश आगे बढ़ रहा है। पर देश के विभाजन का जख्म बहुत गहरा है। यदि देश का विभाजन न हुआ होता तो हम 20 वर्ष बाद भारत के महाशक्ति बनने का जो सपना देख रहे हैं, वह अब तक पूरा हो गया होता। लेकिन इतनी बड़ी हानि उठाने के बाद भी कुछ लोग इस देश में ऐसे हैं जो पूरे इतिहास की अनदेखी कर यह कह रहे है कि हमारी पहचान अलग है। यद्यपि अब उनमें इतना साहस तो नहीं हैं कि वे यह कहें कि हम मजहब के आधार पर अलग राष्ट्र हैं। जिन्ना की अलगाववादी विरासत को संभाले हुए कुछ लोग उसी सोच को खाद-पानी देने के लिए आज भी वन्दे मातरम् का विरोध कर रहे हैं। इसीलिए मैंने वन्दे मातरम् का अनुवाद किया ताकि इसके बारे में कोई भ्रम न फैला सके। साथ ही मुझे यह भी कहना है कि यदि कोई न गाना चाहे तो न गाए, यह उसका व्यक्तिगत मामला है। कानून बनाकर उसे बाध्य नहीं किया जा सकता। लेकिन वन्दे मातरम् का विरोध करने का कोई कारण नहीं है। इसका विरोध करने वालों को समझना चाहिए कि भले ही इस राष्ट्रगीत के प्रति उनकी भावना सही न हो, पर इतना तो ध्यान रखें कि इस देश के करोड़ों-करोड़ लोगों के लिए यह गीत राष्ट्रीयता का प्रतीक है। फांसी के फंदे पर झूलने वाले उन लोगों को तो याद कर लीजिए, जिनके लबों पर अंतिम समय में यह गीत था। अगर वन्दे मातरम् गाते हुए लोग सड़कों पर न निकले होते, फांसी न चढ़े होते तो आज यह आजादी न मिली होती। आज भी इस देश में वे जगहें होतीं, जहां लिखा होता कि भारतीय और कुत्ते यहां नहीं आ सकते। वन्दे मातरम् का विरोध करने वाले कम से कम इस बात का श्रेय तो उन क्रांतिवीरों को दे ही सकते हैं जिनके कारण उन्हें और हमें कुत्ते की श्रेणी से निकलकर एक इंसान के रूप में एक आजाद देश में स्वाभिमान के साथ रहने का हक मिला। (वार्ताधारित)राष्ट्रगीत वन्दे मातरम् के रचयिता बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा सन् 1880 में आनन्द मठ उपन्यास लिखा गया था। बंग दर्शन नामक मासिक पत्र में सन् 1880 से लेकर 1882 तक यह उपन्यास धारावाहिक रूप में छपा। इसका उपन्यास के रूप में पहला संस्करण 1882 में छपा। 1894 में बंकिम बाबू के देहावसान तक इस उपन्यास के पांच संस्करण प्रकाशित हो चुके थे। पांचवे संस्करण में बंकिम बाबू ने कुछ संशोधन किए अत: पांचवां संस्करण ही प्रामाणिक माना जाता है। वस्तुत: वन्दे मातरम् गीत की रचना बंकिम बाबू 1875 में ही कर चुके थे। इसे उन्होंने बाद में आनन्दमठ उपन्यास के एक चरित्र संन्यासी भवानंद से गवाया। आनन्दमठ उपन्यास के 10वें परिच्छेद में इस गीत का पूरा वर्णन है जिसमें भवानन्द महेन्द्र से कहते हैं कि “हमारे लिए यह मातृभूमि ही माता है। हम किसी और को माता नहीं मानते।” यहां प्रस्तुत है उपन्यास का वह अंश जिसमें वन्दे मातरम् का पूर्ण वर्णन आया है। -सं.भवानन्द से महेन्द्र ने भी पूछा था-वन्दे मातरम्! किसकी वन्दना, कौन माता ?…चांदनी रात में दोनों शान्त भाव से प्रांतर पार करने लगे। महेन्द्र चुप थे। शोक से कातर कुछ गर्वित, कुछ कुतूहल भरे।यकायक ही भवानंद ने दूसरा ही रूप धारण किया। वह स्थिरधीर संन्यासी न रहे, युद्धकुशल, सेनापति की गर्दन उतारने वाले न रहे। अभी-अभी गर्व से महेन्द्र का जो तिरस्कार कर रहे थे, वो न रहे। ज्योत्स्नामयी शांतिभरी धरती के वन-पर्वत-नद-नदोमयी शोभा देखकर उनके हृदय में मानो एक विशेष स्फूर्ति हुई- समुद्र मानो चन्द्रमा के उगने से हंसा। संन्यासी हंसमुख और प्रियभाषी बन गए। बोलने के लिए बड़े उतावले। भवानंद ने बात करने की बहुत अधिक कोशिश की, लेकिन महेंद्र न बोले। मजबूर भवानंद ने गीत गाना आरम्भ कर दिया-वन्दे मातरम्सुजलां सुफलांमलयज शीतलांशस्य श्यामलांमातरम्!गीत सुनकर महेंद्र को आश्चर्य हुआ, कुछ समझ नहीं सके। सुजला, सुफला, मलयज शीतला शस्य श्यामला माता कौन? पूछा, माता कौन। और कोई जवाब न देकर भवानंद गाने लगे-शुभ्र-ज्योत्स्ना-पुलकित-यामिनीम्फुल्लकुसुमित-द्रुमदल शोभिनीम्सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्सुखदां वरदां मातरम्।महेंद्र ने पूछा- “यह छवि तो देश की है, यह मां कहां है?”भवानंद ने कहा- “हम किसी और को मां नहीं मानते-जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। हम मानते हैं जन्मभूमि ही जननी है। हमें मां नहीं, पिता नहीं, भाई नहीं, बंधु नहीं, पत्नी-पुत्र नहीं, घर-द्वार नहीं, हमारे लिए बस वही मां है- सुजला, सुफला, मलयजशीतला-शस्यश्यामला।”महेंद्र ने अब समझा तथा कहा- “तो फिर गाइए।”भवानंद फिर गीत गाने लगे-वन्दे मातरम्सुजलां सुफलांमलयज शीतलांशस्य श्यामलांमातरम्!शुभ्र-ज्योत्स्ना-पुलकित-यामिनीम्फुल्लकुसुमित-द्रुमदल शोभिनीम्सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्सुखदां वरदां मातरम्।सप्तकोटि कंठ कलकल निनाद कराले,द्वि सप्तकोटि भुजैर्धृतखर कर वालेअबला केनो मां एतो बले।बहुबलधारिणींनमामि तारिणींरिपुदलवारिणींमातरम्।तुमि विद्या तुमि धर्मतुमि हृदि तुमि मर्मत्वं हि प्राणा: शरीरे।बाहु ते तुमि मा शक्तिहृदये तुमि मा भक्तितोमारेई प्रतिमा गड़िमंदिरे मंदिरे।त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणीकमला कमलदल विहारिणीवाणी विद्यादायिनीनमामि त्वां।नमामि कमलाम्अमलां अतुलाम्सुजलां सुफलांमातरम्।वन्दे मातरम्।महेन्द्र ने देखा, लुटेरा (भवानंद) गाते-गाते रोने लगा। आश्चर्य से पूछा- “तुम लोग हो कौन?”भवानंद ने बताया – “हम संतान हैं।”महेन्द्र – “संतान? किसकी संतान?”भवानंद – “माता की संतान।”महेंद्र – “माना, लेकिन संतान क्या चोरी, डकैती करके मां की पूजा करते हैं? यह किस तरह की मातृभक्ति है?”भवानंद- “हम चोरी-डकैती नहीं करते।”महेंद्र – “अभी-अभी तो तुमने बैलगाड़ी लूटी।”भवानंद- “लूट? हमने किसके रुपए लूटे?”महेंद्र – “क्यों, राजा के।”भवानंद- “राजा के? इन रुपयों को लेने का उसका क्या हक है?”महेंद्र – “राजा अंश।”भवानंद- “जो राज्य का पालन नहीं करता, वह राजा किस काम का?”…भगवान और भारत में कोई अंतर नहींवन्दे मातरम् विवाद पर जगद्गुरु स्वामी रामभद्राचार्य ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। चित्रकूट में पांचजन्य प्रतिनिधि से बातचीत में उन्होंने यह कहा -वन्दे मातरम् गाना अनिवार्य करना और फिर यह आदेश वापस ले लेना अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है। “देश में कोई वंदे मातरम् गाए या न गाए, यह व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर करता है”, ऐसा वक्तव्य देकर अर्जुन सिंह ने जयचन्द की भूमिका ही निभाई है। वस्तुत: जो भी भारत में रहता है उसे वंदे मातरम् कहना ही चाहिए। मुझे वंदे मातरम् विरोधी मौलानाओं की अल्पज्ञता पर तरस आता है कि वे मातृभूमि को भगवान से अलग कैसे मानते हैं? गीता में भगवान ने कहा है, “पुण्यो गंधं पृथ्व्यांच।” इसका तात्पर्य यह है कि “पृथ्वी की गन्ध मैं हूं।” अब यदि गन्ध न रहे तो पृथ्वी का अस्तित्व भी नहीं रहेगा। मेरी दृष्टि में तो भगवान और भारत में कोई अन्तर नहीं है। भारत का सूक्ष्म रूप भगवान में और भगवान का विराट रूप भारत भूमि में विराज रहा है। अर्जुन सिंह और उनके जैसे लोग आज अपनी मातृभूमि का अपमान ही कर रहे हैं। निश्चित रूप से इस पाप का प्रायश्चित उनको करना ही पड़ेगा।संसार का दूसरा सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है वन्दे मातरम्संसार के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में से एक है वंदे मातरम्। सन् 2002 में बी.बी.सी. द्वारा कराए गए एक सर्वे में यह जानकारी प्रकाश में आई। बी.बी.सी. ने सन् 2002 में अपनी 70वीं वर्षगांठ पर दुनिया के 155 देशों में इन्टरनेट पर यह सर्वे कराया था और संसार के दस सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय गीतों के बारे में लोगों से राय मांगी थी। लाखों लोगों ने इस सर्वे में हिस्सा लिया। बी.बी.सी. ने इस सर्वे के आधार पर “वन्दे मातरम्” को विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय गीतों में दूसरा स्थान दिया। पहला नंबर आयरलैण्ड के राष्ट्रगीत “ए नेशन वन्स अगेन” को मिला था।9

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