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पाकिस्तान में दरारें

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Oct 9, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Oct 2006 00:00:00

मुशर्रफ की गोलियां बलूचिस्तान में वही हालात पैदा कर रही हैं-

जो याहिया के फौजियों ने “71 से पहले ढाका में किए थे

सुलगते बलूचिस्तान के चुभते सवाल

पाकिस्तानी सैन्य शासन के लिए संकट का समय

– प्रो. सुजीत दत्ता, वरिष्ठ फैलो, रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान (नई दिल्ली)

पाकिस्तानी अखबारों में उभरा विचार

क्या “71 दोहराया जाएगा?

पाकिस्तान के अखबारों में बुगती की हत्या के बाद ऐसे संपादकीय और लेख प्रकाशित हो रहे हैं जिनमें बलूच विद्रोह के उग्र होने तथा स्थिति काबू से बाहर होने की बातें की जा रही हैं। इन लेखों में “71 की घटनाओं की पुनरावृत्ति की आशंकाएं जताई जा रही हैं।

अंग्रेजी दैनिक डान के 30 अगस्त अंक में “आफ्टर अकबर बुगती, व्हाट?” शीर्षक से अपने लेख में जुबैदा मुस्तफा लिखती हैं- “पाकिस्तान में हर समझदार व्यक्ति के दिमाग में एक ही सवाल हावी है, बुगती के बाद क्या? क्या जिस तरह के दंगे और उथल-पुथल हो रहे हैं वे किसी और बुरी परिस्थिति की ओर संकेत करते हैं? जिन्हें 1971 की त्रासदीपूर्ण घटनाएं याद हैं वे पूछ रहे हैं, क्या इतिहास खुद को दोहराएगा? यह थोड़े सुकून की बात है कि कम से कम लोगों को बलूचिस्तान में जो कुछ घट रहा है, उस पर बोलने की छूट तो है। बंगलादेश तो चुपचाप, बिना किसी आवाज के चला गया था।”

बलूची राष्ट्रवादी और कबाइली नेता नवाब अकबर बुगती की पाकिस्तानी सेना द्वारा हत्या के बाद हिंसा, प्रदर्शन और कफ्र्यु के दृश्यों ने एक बार फिर पाकिस्तान में आधुनिक राज्य गठन और शासन में गहरे समाए तनावों को उजागर किया है। विभाजन पूर्व भारत के मुसलमानों के राज्य के रूप में प्रस्तावित पाकिस्तान के निर्माता और उत्तरोत्तर नेतृत्व शुरुआत से ही बहुभाषी और बहुपांथिक बनावट लिए नए राज्य के गठन से जुड़े कुछ गंभीर मौलिक मुद्दों के बारे में सोचने में असफल रहा। ये मुद्दे थे, विभिन्न भाषायी, मजहबी और प्रांतीय पहचान वाले नए राज्य के राजनीतिक तंत्र किस प्रकार व्यवस्थित किए जाएंगे; क्या एकात्मक राज्य प्रारूप अधिक उपयोगी होगा अथवा एक संघीय ढांचा; केंद्र और प्रांतों के बीच संसाधनों का बंटवारा किस प्रकार होगा; और आखिर में, इन केंद्रीय मुद्दों के चलते राजनीतिक तंत्र कितना लोकतांत्रिक होगा? इन मुख्य मुद्दों पर राजनीतिक वर्ग (क्षेत्रों सहित) के विभिन्न हिस्सों के बीच एक संतुलित और विस्तृत राष्ट्रीय बहस की अनुपस्थिति में नवगठित राज्य एक एकात्मक, इस्लामी और कमजोर लोकतांत्रिक संवैधानिक व्यवस्था के रूप में लड़खड़ाते हुए बढ़ा जिसमें सशस्त्र सेनाओं की प्रच्छन्न और संकट के समय निर्णयात्मक राजनीतिक भूमिका रही है। इन्हीं सब बातों के चलते बढ़ते इस्लामीकरण, अस्थिरता, संवैधानिक तंत्र के बार-बार उल्लंघन और उसके ढह जाने तथा सैन्य शासन के लंबे कार्यकालों की जमीन तैयार हुई।

यह मान्यता कि इस्लामी पहचान, केंद्रीयकरण और राष्ट्रीय भाषा के रूप में उर्दू नस्लीय और वृहत्त स्वायत्तता की प्रांतीय मांगों को खत्म कर देगी, गलत निकली। अधिकार और संसाधनों के बंटवारे पर पाकिस्तान में संवैधानिक तंत्र में लगातार संघर्ष और केंद्र तथा प्रांत के बीच राजनीतिक झगड़े गहरा गए हैं। ये झगड़े सत्ता और जनता के बीच हैं, लोकतांत्रिक शक्तियों और सेना द्वारा लगातार दर्शाए एकछत्रवाद के बीच हैं। अपने सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों के दो दशक लंबे परिणामहीन- अधिकांशत: रक्तरंजित- संघर्ष के बाद 1971 में बंगाली अलग हो गए। जबकि बलूची, सिंधी, पठान और उत्तरी क्षेत्रों के लोग उन्हीं मुद्दों से उलझते और लगातार आवाज उठाते रहे हैं।

क्षेत्रफल के हिसाब से बलूचिस्तान पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रांत है और कुल भूमि में से इसका हिस्सा 43 प्रतिशत है। लंबी तटरेखा और ईरान तथा अफगानिस्तान से जुड़ती सीमाओं के कारण भौगोलिक रूप से यह बहुत महत्वपूर्ण है। 19वीं सदी में ईरान, अफगानिस्तान और ब्रिटिश भारत के बीच बंटने के बाद बलूचों ने अपनी अपेक्षाओं और परंपरागत कबाइली जीवन को बिखरते देखा। उनकी अपनी जमीन पर केंद्रीय प्रशासन के विस्तार से उनमें दुविधा पैदा हुई। सीमाओं के उस पार अफगानिस्तान, ईरान और बलूचिस्तान के निकटवर्ती क्षेत्रों में बलूचों और पठानों की उपस्थिति से इसकी अपनी ही राजनीतिक उलझनें पैदा हुई हैं। यह क्षेत्र पाकिस्तान का प्रमुख प्राकृतिक संसाधन आधार है जहां सुई जैसा विशाल 40 प्रतिशत गैस का भंडार है। यहां इस्लामाबाद चीन के सहयोग से ग्वादर बंदरगाह बना रहा है क्योंकि यह रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्र है और मुशर्रफ शासन ने इसे ईरान, मध्य एशिया और चीन के लिए गैस पाइप लाइन का केंद्र बनाने की पाकिस्तान की आकांक्षा को देखते हुए एक गलियारे के रूप में विकसित करने की योजना में निवेश किया है। 2004 में ग्वादर बंदरगाह प्रोजेक्ट में 500 चीनी काम कर रहे थे और उस समय बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी के विद्रोहियों ने 3 चीनी इंजीनियरों को मार डाला था, हवाई अड्डों पर राकेटों से हमला किया था। क्वेटा के जनजीवन में राकेट हमले और बम धमाके रोजमर्रा की बातें हो गई हैं। सुई से गुजरने वाली गैस पाइप लाइन, रेलवे और अन्य स्थानों पर बार-बार हमले किए गए हैं।

वास्तव में पाकिस्तान के गठन से ही यह क्षेत्र भीतर ही भीतर सुलगता रहा है। कई बलूची नेता पाकिस्तान से जुड़ना नहीं चाहते थे लेकिन अंग्रेजों ने उनके सामने कोई विकल्प नहीं छोड़ा था। विलय के तुरन्त बाद से ही आजादी और स्वायत्तता का संघर्ष शुरू हो गया और यह पाकितानी नेताओं द्वारा अधिकतम स्वायत्तता दिए जाने के वायदे के असफल होने के बाद और गहराता गया। पूर्वी बंगाल की तरह ही सैन्य सत्ता से संघर्ष के मुद्दे आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों से परे जाकर प्रान्तीय संसाधनों से रायल्टी, ग्वादर बनने के बाद बाहरी क्षेत्रों से बड़े पैमाने पर लोगों के आने का भय और सत्ता के बंटवारे को लेकर विभिन्न आयामों तक फैल गए। उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रान्त की तरह बलूचिस्तान एक सामंती और कबाइली भूमि बना रहा। गरीबी चहुंओर पसरी है और शैक्षिक तथा समग्र विकास के सूचकांक भी बहुत जर्जर हैं। बंदूकें उठा लेना आम बात है और चारों ओर भय का माहौल फैला है। तालिबान और अलकायदा के उभरने तथा 10 लाख अफगान शरणार्थियों के आने के बाद तो समस्याएं बहुत अधिक बढ़ गई हैं।

यहां 1948 से ही गोरिल्ला कार्रवाइयां रह रहकर होती रही हैं- 1958-60, 1962-69, 1973-77 और 2003 में शुरू हुआ ताजा दौर। 1973-77 के विद्रोह को जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में सेना ने ईरान से प्राप्त कोबरा हेलीकाप्टरों से बमबारी करके निर्ममता से कुचल दिया था। लेकिन राष्ट्रवादी और पृथकतावादी भावनाएं खत्म नहीं हुई थीं। 2004 आते-आते बलूचिस्तान ने संघीय सरकार के विरुद्ध फिर हथियार उठा लिए और इसके तीन प्रमुख विद्रोही गुटों -बलूचिस्तान लिबरेशन आर्मी, बलूचिस्तान लिबरेशन फ्रंट और पीपुल्स लिबरेशन आर्मी- ने विद्रोही कार्रवाइयां चला रखी हैं। जनवरी 2005 में संघर्ष तब और बढ़ गया जब पाकिस्तानी सैनिक ने सुई गैस भण्डार के निकट एक अस्पताल में एक महिला डाक्टर का बलात्कार किया था।

हालांकि सेना ने विद्रोह को दबाने के लिए बड़े पैमाने पर ताकत और बमबारी प्रयोग की, मगर विद्रोही कबिलाई नेता अधिकांश क्षेत्र में समानान्तर सरकारें चलाते रहे हैं। बलूच अधिकारों के पुरोधा माने जाने वाले बलूचिस्तान के पूर्व मुख्यमंत्री बुगती और उनके 40 सहयोगी लड़ाकों की क्वेटा से 220 कि.मी. पूर्व कोहलू क्षेत्र में उनकी गुफा में सेना द्वारा हत्या से ऐसी चिंगारी भड़की है जो न केवल सैन्य शासकों और बलूचियों के बीच संघर्ष को तीखा करेगी बल्कि अन्य असन्तुष्ट प्रांतों को भी उकसाएगी। इसने यह सवाल भी खड़ा किया है कि किस प्रकार प्रान्तीय पहचान और संसाधन के बंटवारे के मुद्दे मौजूदा राजनीतिक तंत्र में सुलझाए जाएंगे और किस प्रकार सैन्य शासन द्वारा अधिकारों की मांगों पर कार्यवाही की जाएगी। एक प्रमुख बलूच नेता नवाबजादा हिरबायर मर्री ने सेना पर बुगती और उनके सहयोगियों की हत्या के लिए क्लस्टर बमों का प्रयोग करने का आरोप लगाया है। उन्होंने मीडिया को कहा, “बुगती की हत्या के लिए सेना द्वारा गुफा दरकने की कहानी लोगों को बहकाने के लिए फैलाया गया दुष्प्रचार है।”

क्वेटा में प्रान्तीय असेम्बली में विपक्षी बलूच विधायकों ने सरकार की भत्र्सना करते हुए 1947 में पाकिस्तान के गठन के बाद असंदिग्ध रूप से सबसे प्रमुख बलूच नेता बुगती की हत्या का बदला लेने का संकल्प लिया है। विपक्षी नेता कचकुलअली बलूच ने कहा है, “बलूच इतिहास में यह एक प्रमुख घटना है। हम 1947 में इस देश से इसलिए नहीं जुड़े थे कि हमारे कबीले के प्रमुख, राजनीतिक नेता और बच्चे मार डाले जाएं।” पुलिस ने तीन विपक्षी विधायकों को बलूचिस्तान असेम्बली भवन से निकलते ही गिरफ्तार कर लिया। घटना के बाद से लगभग 600 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। पूरे प्रान्त में जबर्दस्त आक्रोश फैला हुआ है। प्रान्त की राजधानी क्वेटा में दंगों में कई लोगों की जानें गई हैं और अनेक घायल हुए हैं। ग्वादर में करीब 1000 प्रदर्शनकारियों ने एक बैंक और 2 दुकानें जला डालीं। पूरे पाकिस्तान में प्रमुख विपक्षी दलों और जनप्रतिनिधियों ने इस घटना की भत्र्सना की है। अगले साल चुनावों को देखते हुए निश्चित रूप से यह पाकिस्तान के सैन्य शासक परवेज मुशर्रफ के लिए उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के रास्ते में परेशानी खड़ी करेगा। इन घटनाओं ने ईरान-पाकिस्तान-भारत गैस पाइपलाइन प्रोजेक्ट और चीनी सहायता से चल रहे ग्वादर प्रोजेक्ट पर भी गंभीर शंकाएं खड़ी कर दी हैं।

इस वक्त यह स्पष्ट नहीं है कि 70 लाख बलूची स्वायत्तता अथवा आजादी के अपने उद्देश्य को पाने में सफल होंगे या नहीं। बाधाएं कई हैं और राज्य निर्मम हो सकता है। बहरहाल, अगर ये प्रदर्शन पाकिस्तान में सैन्य शासन के विरोध को सुदृढ़ करने में मददगार हुए और प्रमुख अनसुलझे सवालों- क्षेत्रीय सत्ता बंटवारा, लोकतांत्रिक शासन, संसाधनों से रायल्टी और अब तक विकास के अपनाए गए मार्ग से अलग कोई और मार्ग – को फिर से चर्चा में लाए तो पाकिस्तानी शासन में बहुत दिनों से महसूस किए जाते रहे ढांचागत बदलावों की उम्मीद बंध सकती है।

मानव अधिकारों के उल्लंघन के प्रति चिंता व्यक्त करने, बल प्रयोग न करने और वर्तमान हत्याओं पर खेद प्रकट करने के भारत के दृष्टिकोण का स्वागत किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से पाकिस्तान भारत की राजनीतिक प्रक्रिया में हर संभव तरीके से दखलंदाजी करता आ रहा है। समय आ गया है कि पाकिस्तान अपने राज्य के कामकाज पर ध्यान दे और गंभीर खामियों को दूर करे।

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