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सोमनाथ चटर्जी से लेकर गुरुदास दासगुप्त तक माक्र्सवादी सांसदों ने संसदीय मर्यादाओं का सदा मजाक ही बनाया है-शंकर शरणसंसद के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप के ममता बनर्जी से संबंधित एक साधारण से तथ्यगत बयान को जिस तरह पिछले दिनों लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी का अपमान कह दिया गया है, वह चकित करता है। ध्यान रखना चाहिए कि सोमनाथ चटर्जी भारत के पहले लोकसभा अध्यक्ष हैं, जो बार-बार विवादों का कारण बनते रहे हैं। इसके पीछे कहीं न कहीं उनकी माक्र्सवादी, मानसिकता, विश्वास या अंधविश्वास भी है। सर्वविदित है कि माक्र्सवाद घोषित रूप से पक्षधरता का दर्शन है। ऐसी स्थिति में विवादों का कारण सहज ही समझा जा सकता है। पिछले दो वर्षों में सोमनाथ जी अपनी तरह-तरह की टिप्पणियों को लेकर कई बार विवादों में आए हैं। यह मानना कठिन है कि सदैव दूसरे ही दोषी थे और सोमनाथ जी निर्दोष। लोकसभा अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने पिछली राजग सरकार, सर्वोच्च न्यायालय और एक बार तो आस्ट्रेलिया सरकार पर भी टेढ़ी टिप्पणियां की हैं। किन्तु जब उनकी इन्हीं प्रवृत्तियों पर कोई टिप्पणी करता है तो इसे लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी का अपमान बताया जाता है। यह कहां का न्याय है?इससे पहले अगस्त, 2005 में वरिष्ठ पत्रकार स्वप्न दासगुप्त के एक लेख को लेकर सोमनाथ चटर्जी ने अपने तेवर दिखाए थे। उस बार उन्होंने स्वयं “अध्यक्ष के सम्मान” का हवाला देकर स्वप्न दासगुप्त को बुरा-भला कहा था। विचित्र बात है कि उस बार भी मौन रहकर बहुसंख्यक सांसदों ने सोमनाथ जी का ही समर्थन किया था। ये प्रसंग दिखाते हैं कि किस तरह लोकतांत्रिक देशों में माक्र्सवादी राजनीतिकर्मी दूसरों को मूर्ख बनाते हैं। किसी ने सोमनाथ जी से नहीं पूछा कि जब लोकसभा के अध्यक्ष बनने के बाद भी वह सार्वजनिक सभाओं में पिछली केन्द्र सरकार को “घातक, विभाजनकारी” आदि कहते रहते हैं, तो यह किस प्रकार की निष्पक्षता है? लेकिन जब इसी प्रवृत्ति की कोई आलोचना करे तो वे संसद के सम्मान की आड़ लेकर आलोचक का मुंह बंद करते हैं। स्पष्टत: माक्र्सवादी नेता अपने दोनों हाथ लड्डू चाहते हैं। वे सर्वोच्च न्यायालय से लेकर हिन्दू सभ्यता तक सबकी आलोचना करेंगे, पर दूसरों को माक्र्सवादियों की आलोचना करने नहीं देंगे।कैसी विडम्बना है कि जिन माक्र्सवादियों की शब्दावली में “संसदीय” रास्ते को ही “भटकाव” माना गया है, वही माक्र्सवादी बंधु संसदीय मान-सम्मान का हवाला देकर एक प्रखर पत्रकार को खरी-खोटी सुना गए। स्वयं कार्ल माक्र्स और व्लादिमीर लेनिन ने बुर्जुआ, संसद को गप्प करने की दुकान तथा “बुद्धिजीवियों का खिलौना” का कहा। और सोमनाथ जी पुराने माक्र्सवादी हैं। क्या वे माक्र्स की इस बात तथा माक्र्सवादियों के हर हाल में पक्षपाती होने से इनकार करते हैं? वस्तुत: 7 अगस्त, 2005 के अंग्रेजी दैनिक द पायनियर में स्वप्न दासगुप्त का लेख और उस पर 12 अगस्त को लोकसभा में सोमनाथ जी द्वारा की गई कड़वी टिप्पणियां पढ़ कर पाठक स्वयं अपनी राय बना सकते हैं कि स्वप्न दासगुप्त और सोमनाथ चटर्जी में कौन सही थे।माक्र्सवादी भाषा में किसी कम्युनिस्ट को “संसदीय पथ” पर चलने वाला कहना सदैव गाली जैसा ही लिया जाता रहा है। यह क्रांतिवादी का उलटा, और इसलिए कम्युनिस्ट पथ से भटकाव (पार्लियामेंटरी डेविएशन) माना गया है। स्वयं नेहरू जी ने बांडुंग सम्मेलन के जमाने में (1955 के आस-पास) इंडोनेशिया के शासक सुहार्तों से हंसी में कहा था कि, “हमने कम्युनिस्टों को संसद में डाल दिया है, आपने उन्हें जेल में क्यों डाला!” चूंकि नेहरू जी स्वयं कम्युनिस्ट विचारधारा से गहरे प्रभावित थे, इसलिए उनकी बात का अंदाज समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि संसद कम्युनिस्टों को भटकाने वाली संस्था है। आज हमारे देश के लोग जानते भी नहीं हैं कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) में पहले विभाजन, अर्थात् 1964 में यह भी उग्र वैचारिक मतभेद का एक मुद्दा था। जिन लोगों ने माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) बनाई, वे भाकपा नेताओं को “संशोधनवादी” बताते थे। उनका आरोप था कि मूल पार्टी के नेता “संसदीय भटकाव” के शिकार हो गए हैं और क्रांति के लक्ष्य को भूलकर “बुर्जुआ के सहभागी” बन बैठे हैं। बाद में माकपा से अलग हुए नक्सली गुट ने वही आरोप माकपा पर दुहराए और स्वयं चुनावी राजनीति से अलग रहने का निर्णय किया। अंतत: वे नक्सली भी चुनावों में हिस्सा लेने लगे, यह दीगर बात है। किन्तु यह निर्विवाद है कि “बुर्जुआ संसद” को घृणा से देखना माक्र्सवादी परम्परा का अभिन्न अंग है। आज भी वे उसका सम्मान नहीं, महज दुरुप्रयोग कर रहे हैं। जिस तरह पश्चिम बंगाल में चुनाव प्रक्रिया और परिणामों को “साइंटिफिक रिंगिंग” की विस्तृत व्यवस्था करके माकपा का बंधक बना लिया गया है, उस पर ठीक से ध्यान देना चाहिए।संसद का सम्मान तो दूर रहा, माकपा लंबे समय तक भारत की अखंडता का भी सम्मान नहीं करती थी। नवम्बर 1971 में माकपा की केन्द्रीय समिति के प्रस्ताव ने “भारत को विभिन्न राष्ट्रों का स्वैच्छिक संघ” बनाने का लक्ष्य घोषित किया था। जिसका स्पष्ट मंतव्य था कि भारत एक राष्ट्र नहीं, वरन कई राष्ट्रों का ऐसा संघ है जिसमें कइयों को इसमें जबरन रखा गया है। प्रमोद दासगुप्त जैसे पड़े माकपा नेताओं के भाषणों का अध्ययन करें तो स्पष्ट होगा कि माकपा भारत के उत्पीड़ित “राष्ट्रों” को मुक्त करने का भी लक्ष्य रखती थी। अशोक मित्र जैसे माकपा के वर्तमान बौद्धिक नेता अभी भी कश्मीर को भारत से “जाने देने की” पैरवी करते हैं। यानी भारत का क्रमश: विखंडन उन्हें अभी भी ईष्ट है। 1970 में माकपा के नारों में एक यह होता था: “इंदिरा-याहिया एक हैं।” यानी, पश्चिम बंगाल के माक्र्सवादी नेता भारतीय प्रधानमंत्री और पाकिस्तानी तानाशाह को अपने लिए एक जैसा मानते थे। किस आधार पर? इसी आधार पर न कि उनके लिए दोनों एक जैसे पराए थे!पुराने कम्युनिस्टों के संस्मरणों पर विश्वास करें तो लंबे समय तक माकपा मानती रही कि भारत का विखंडन तो होना ही है। माकपा नेतृत्व पर स्तालिन और माओत्से तुंग का प्रभाव जग-जाहिर है। भाकपा नेताओं के अनुसार, माकपा ने माओवादी चीन के निर्देश पर ही भाकपा को तोड़कर अलग पार्टी बनाई। ध्यान रहे कि माकपा 1962 के भारत-चीन युद्ध में भारत को ही आक्रमणकारी मानती रही है! इस माओवादी प्रभाव की पृष्ठभूमि में ही वर्चस्व स्थापित करने के माओवादी निर्देशों का भी स्मरण करें। जैसे, “गुरिल्ला युद्ध” और “मुक्त इलाकों का निर्माण” आदि। भाकपाइयों के अनुसार माकपा इसीलिए पश्चिम बंगाल और केरल में ही सक्रिय रही क्योंकि उसे लगता था कि सीमावर्ती होने के कारण इन प्रांतों को “मुक्त” कराया जा सकता है।आज भी माकपा को भारत की एकता-अखंडता की कोई चिंता नहीं है। जिस तरह माकपा नेतृत्व ने पश्चिम बंगाल के अपने ही मुख्यमंत्री को “संदिग्ध मदरसों के माध्यम से पाकिस्तान की आई.एस.आई. की गतिविधियों” पर जबरन चुप कराया और उसके हाथ बांधे, उससे साफ है कि देश की अखंडता या सुरक्षा माकपा की चिंताओं में अब भी शामिल नहीं। न उसे लोकतांत्रिक संस्थाओं, मूल्यों की चिंता है। उसे हर कीमत पर केवल सत्ता की परवाह है। यह केवल आज की बात नहीं। ममता बनर्जी और तपन सिकदर जैसे नेताओं पर जानलेवा हमले उस माकपा तकनीक का अटूट अंग हैं जिसे आरंभ में ही “हत्या और आतंकवाद की जुड़वां नीति” की संज्ञा दी गई थी। ये सभी उद्धरण भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के प्रकाशन पश्चिम बंगाल में माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का आतंक (1970) से लिए गए हैं।35 वर्ष पहले लिखे इन शब्दों पर ध्यान दें, “15 सितम्बर, 1970 को समाप्त होने वाली तिमाही में करीब सौ हत्याएं की गईं, जिनमें 73 हत्याएं केवल माकपा द्वारा की गई थीं।” यह शब्द पश्चिम बंगाल के जाने-माने कम्युनिस्ट नेता प्रभात दासगुप्त ने लिखे थे। “हत्याओं के पूरक के रूप में” माकपा द्वारा लोगों को “संत्रस्त करने के अभियान” की तकनीक का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं, “अकस्मात् बमों, लाठियों, बंदूकों और अन्य सांघातिक हथियारों से लैस और लाल स्कार्फ बांधे हुए स्वयंसेवकों का कोई समूह एक इलाके में प्रकट होगा, सड़कों पर एक छोर से दूसरे छोर तक परेड करेगा और अपने राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ जान से मार डालने संबंधी नारे लगाएगा। कभी-कभी अपने अंतध्र्यान होने से पहले वह अपने मार्च को जीवंत बनाने के लिए कुछ बमों के विस्फोट भी कर देगा। इन सशस्त्र मार्चों का अर्थ बहुत सरल है। माकपा इलाके की जनता से कहती है, “बेहतर हो कि आप हमारा समर्थन करें वरना आप हमारे बमों के विस्फोट तो सुन ही चुके और हमारी बंदूकों को देख ही चुके!” आज भी ठीक यही हो रहा है। चार वर्ष पहले मिदनापुर इसीलिए सुखियों में आया था। इसके बाद के चुनाव में माकपा कार्यकर्ताओं ने कुछ इलाकों में ताबूत और सफेद साड़ी दिखाकर स्त्रियों को संकेत दिया था कि यदि उनके घरों से वोट किसी और को गए तो क्या होगा! बिलकुल हाल के पश्चिम बंगाल चुनावों में जिस रहस्यमय ढंग से चुनाव आयोग के प्रतिष्ठित अधिकारी के.जे.राव को चलता किया गया, उससे माकपा की “साइंटिफिक रिगिंग” की तकनीकों का एक संकेत मिल सकता है।आइए इतिहास देखें। सितम्बर 1970 में माकपा ने प. बंगाल में जबरन एक शिक्षक हड़ताल आयोजित की। इसका एक विवरण देते हुए प्रभात दासगुप्त लिखते हैं, “एक स्कूल में, जो हड़ताल के पहले दिन खुला था, एक अर्ध-नग्न आदमी प्रधानाध्यापिका के दफ्तर में घुस गया और मेज पर इत्मीनान से बैठकर प्रधानाध्यापिका से पूछा कि क्या उसने अपने अंतिम संस्कार के बारे में कभी कुछ सोचा है। भौंचक प्रधानाध्यापिका कुछ समझ नहीं पाई। तब उसने खुलासा करते हुए कहा कि यदि वह अविलंब अपने स्कूल को बंद नहीं करेगी तो उसे अपने अंतिम संस्कार के लिए प्रबंध करना पड़ेगा।” प्रभात दासगुप्त आगे कहते हैं, “मेरे पास 21 ऐसे कुख्यात अपराधकर्मियों की सूची मौजूद है, जिन्होंने चौबीस परगना के बड़ा नगर, पानी हाटी, बेलघारिया इलाके के समस्त माकपा हमलों का नेतृत्व किया।…. (जो) ज्योति बसु के गृह मंत्री बन जाने के बाद माकपा में शामिल हो गए। उनमें से एक अब माकपा का सचिव है। उनमें से कई के नाम अपराधियों के रूप में पुलिस सूची में दर्ज हैं।” आज स्थिति बदतर और सुसंगठित हुई है, यह कोई भी कोलकातावासी बता सकता है।अत: पश्चिम बंगाल में माकपा की अक्षुण्ण सत्ता का रहस्य संसदीय प्रणाली का सम्मान नहीं, बल्कि उसके निरंतर बलात्कार की कहानी है। वहां के अखबार पीछे पलटते चलें तो माकपा नेताओं द्वारा “जान लेने” और विरोधियों का सशरीर “सफाया” करने के खुले आह्वान और कांड बार-बार मिलेंगे। सुप्रसिद्ध सांसद और अत्यंत प्रतिष्ठित कम्युनिस्ट नेता भूपेश गुप्त ने स्पष्ट रूप से कहा था कि माकपा ने अपराधियों और समाज-विरोधी तत्वों को अपने साथ करके वहां अपना कब्जा जमाया है। और, उनके शब्दों में “पश्चिम बंगाल में तब तक सामान्य स्थिति होने की आशा नहीं है, जब तक कि माक्र्सवादी अपने बमों को हुगली नदी में फेंक नहीं देते और बंदूकें और छुरे चलाना छोड़ नहीं देते। यह भी न भुलाया जाए कि माकपा का आतंकवाद खत्म हुए बिना पश्चिम बंगाल में सामान्य स्थिति की वापसी असंभव सी है।” उन्होंने कितना सच कहा था।एक सर्वप्रतिष्ठित कम्युनिस्ट नेता की ही यह टिप्पणी आज भी पश्चिम बंगाल और माकपा पर बिलकुल सटीक बैठती है। यह हमारे गैर-माक्र्सवादी सांसदों, राजनीतिक नेताओं और दिल्ली के सीमित दृष्टि बुद्धिजीवियों पर व्यंग्य ही है कि उन्होंने लोकतांत्रिक संस्थाओं का खुला विध्वंस करने वालों को ही सुंदर, मानवीय मूल्यों का वाहक मानने का भ्रम पाल रखा है। वे माकपा प्रचारकों से ही, लोकतंत्र और फासिज्म की परिभाषा सीखते हैं। बहुत खूब! यही कारण है कि मन ही मन हंसते हुए सोमनाथ चटर्जी ऊपर से रंज होते हैं। वह लोकसभा अध्यक्ष बाद में हैं, एक माक्र्सवादी पक्षधर राजनीतिकर्मी पहले। कौन किस पर हावी होता है, ये घटनाएं और उनकी टिप्पणियां बताती रहती हैं।14
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