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चर्चा सत्र

by
Sep 7, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Sep 2006 00:00:00

संयुक्त राष्ट्र महासचिव पद के लिएशशि का नाम किसने सुझाया?टी.वी.आर. शेनायसंयुक्त राष्ट्र महासचिव पद के लिए भारत के उम्मीदवार के रूप में शशि थरूर का नाम आगे करने का विचार किसका था? क्या दिल्ली में इस पर कोई चर्चा हुई थी या कि यह उम्मीदवार द्वारा इस संयुक्त राष्ट्र की नौकरशाही रूपी स्वार्थी लोगों की टोली को संभालने के काम के लिए अपना नाम खुद आगे कर दिए जाने का मामला है?शशि थरूर के हार जाने की सूरत में जो बदनामी होगी वह तो अलग बात है मगर एक कहीं ज्यादा प्रासंगिक सवाल पर ध्यान दें : अगर थरूर जीत भी जाते हैं तो उससे भारत को क्या फायदा होगा?यह तो मानना पड़ेगा कि उम्मीदवार ने खुद अपनी निष्ठाओं पर साफगोई दिखाई है। वह कहते हैं, “मैं एक भारतीय महासचिव तो होऊंगा पर भारत का महासचिव नहीं।” दूसरे शब्दों में, शशि थरूर जब सुविधा होगी तब भारतीय पासपोर्ट दिखाएंगे- यानी जब उम्मीदवारी की बात आएगी-लेकिन बाकी मौकों पर नागरिक के अन्य कर्तव्यों को किनारे रख देंगे। भारत के हितों को पूरी प्रखरता से आगे बढ़ाने की बजाय वह तटस्थता बनाए रखेंगे।सच यह है कि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव पद की कोई बड़ी ताकत नहीं होती और इस पद पर बैठने वाला महाशक्तियों के पिछलग्गू से ज्यादा कुछ नहीं होता। जरा पद पर बैठ चुके पुरुषों-इस पंक्ति में कोई महिला नहीं है- पर नजर दौड़ाएं। आपको एक भी अमरीकी, रूसी, चीनी, फ्रांसीसी या ब्रिटिश नाम नहीं मिलेगा। 1946 में नार्वे के त्रिग्वे हल्वदन ली के चुनाव से लेकर 1996 में घाना के कोफी अन्नान तक, यह पद हमेशा ही किसी छोटे देश के नागरिक को मिला है। सूची में नार्वे, स्वीडन, बर्मा, आस्ट्रिया, पेरू, इजिप्ट और घाना के नाम हैं- यानी ऐसे देश नहीं हैं जो राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या सैन्य ताकत कहे जा सकें।बहुत पहले त्रिग्वे ली के काल में ही इस पद की अनुपयुक्तता जाहिर हो गई थी। अमरीका ने दूसरे कार्यकाल के लिए उनकी उम्मीदवारी का समर्थन किया था, लेकिन सोवियत संघ ने उन्हें महासचिव मानने से इनकार कर दिया था। ली ने 1952 में इस पद से इस्तीफा दे दिया था जबकि उनका कार्यकाल 1956 तक खत्म नहीं हुआ था। तब से, हर समझदार महासचिव ने इस बात की पूरी कोशिश की है कि महाशक्तियां न भड़कें। शीत युद्ध काल में संयुक्त राष्ट्र की कोई भूमिका नहीं थी और अमरीका की एकछत्र महाशक्ति के सामने पिछले 15 सालों से यह उतना ही बेअसर रहा है।विडम्बना ही है कि यह बात 2001 में तब और रेखांकित हुई जब नोबुल शांति पुरस्कार संयुक्त राष्ट्र और इसके महासचिव को संयुक्त रूप से दिया गया था। सम्मान पत्र पर लिखा था कि यह पुरस्कार “दुनिया को अधिक नियोजित और शांतिपूर्ण बनाने की दिशा में उनके काम” के सम्मान स्वरूप दिया जा रहा है। यह अमरीका द्वारा अफगानिस्तान पर बम बरसाए जाने की पृष्ठभूमि में कहा गया था और उस वक्त जब ध्वस्त वल्र्ड ट्रेड सेंटर के अवशेषों से धुंआ उठता देखा जा सकता था, जो कि संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय से बहुत दूर नहीं था। उसके बाद भी अन्नान और संयुक्त राष्ट्र हतबल जैसे अमरीका को सद्दाम के इराक को रौंदते देखते रहे।संयुक्त राष्ट्र में कोफी अन्नान का लंबा कार्यकाल आखिर उनके अपने देश घाना के लिए किस तरह मददगार रहा है? क्या बूतरोस-बूतरोस घाली का कार्यकाल मध्य एशियाई देशों को नजदीक ला सका था? क्या म्यांमार एक बंद समाज ही नहीं बना रहा है, भले ही 1961 से 1971 तक यूं थांट इस संगठन के महासचिव रहे हों? यह इतिहास देखते हुए, भारत को शशि थरूर के समर्थन में अपना समय और संसाधन क्यों खपाने चाहिए?विदेश विभाग के मेरे दोस्त बताते हैं कि थरूर की उम्मीदवारी की घोषणा उनको स्तब्ध कर गई थी। उन्होंने अंदाजा लगाया था कि हर महाद्वीप को एक मौका दिए जाने की परम्परा देखते हुए कोई एशियाई इस पद पर रखा जाएगा। इसलिए कई नामों की चर्चा सुनाई दी- दक्षिण कोरिया के विदेश मंत्री बान कि-मून, सिंगापुर के पूर्व प्रधानमंत्री गोह चोक तोंग और श्रीलंका के राजनयिक जयंता धनपाला। जार्डन के सत्तारूढ़ परिवार के सदस्य को भी आगे बढ़ाने की बात चली थी।एक समझदार भारतीय विदेश नीति की मांग थी कि दिल्ली तसल्ली रखती और उक्त सभी पक्षों को अपने तक पहुंच बनाने देती। यह पद तो एक अर्थहीन आडंबर ही है मगर एक-दूसरे का समर्थन करने का वादा करके थोड़ी साख तो बढ़ाई ही जा सकता थी। ठीक यही तो कर रहे हैं चीनी।इसके बजाय, शशि थरूर का समर्थन करने की आपाधापी करके भारत ने खुद को कई छोटे देशों के विरोध में खड़ा कर लिया है। पाकिस्तान नाक चिढ़ाते हुए मलीहा लोधी का नाम आगे करने की सोच रहा है जो एशियाई तो हैं ही, महिला भी हैं। अरब वाले शायद जार्डन के युवराज, अगर वे मैदान में उतरते हैं, के पीछे खड़े होंगे। आसियान देश शायद सिंगापुर के उम्मीदवार का समर्थन करें। सार्क देश भारत, पाकिस्तान और श्रीलंका के बीच बंट जाएंगे। (मुझे लगता है परेशानी खड़ी करने के इरादे से जनरल मुशर्रफ श्रीलंका के पक्ष में अपने उम्मीदवार को बैठा लेने का महान दिखावा करेंगे!) हर कोई समर्थन के लिए बीजिंग की गुहार करेगा और दिल्ली की विदेश नीति, एक बार फिर, उघड़ जाएगी।बड़े से बड़ा जीत का अंदाजा, जो मुझे शशि थरूर की उम्मीदवारी पर सुनाई दिया है, कहता है कि उनकी जीत के 30 प्रतिशत आसार हैं। वैसे मुझे तो संयुक्त राष्ट्र को लेकर भारतीय जुनून से ही चिढ़ है। 7 दिसम्बर, 1971 के बाद से ही इस संगठन के प्रति मेरे भीतर अवमानना ही रही है। उस दिन संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने बंगलादेश युद्ध में भारत की स्थिति के खिलाफ 11 के मुकाबले 104 वोट डाले थे। (उस वक्त यू थांट महासचिव हुआ करते थे!) इंदिरा गांधी ने उसे अनदेखा करते हुए भारतीय राष्ट्रीय हितों पर ही चलने का फैसला लिया। काश, उनके जैसी पैनी दृष्टि रखने वाला कोई आज दिल्ली में होता!वोल्कर कमेटी रपट ने उजागर कर दिया कि संयुक्त राष्ट्र भी भ्रष्ट और निष्प्राण है। इसकी यूनिसेफ और डब्ल्यू.टी.ओ. सरीखी संस्थाएं भले ही कुछ कर रही हों मगर भारत को मुख्य संगठन पर सटीक और पैनी नजर डालनी चाहिए। क्या भारत को महासचिव पद की ऐसी सस्ती प्रसिद्धि पाने या सुरक्षा परिषद् में जगह (जो ब्रिटिश और फ्रांस साम्राज्य का पतन नहीं रोक सकी) पाने में अपनी ताकत जाया करनी चाहिए?अगर शशि थरूर जीत भी जाते हैं तो भी भारतीय हित आगे नही बढ़ेंगे। अगर वे हार गए तो भारतीय हितों पर झटका जरूर लगेगा। मैं अपने मूल सवाल पर लौटता हूं- किसने उनकी उम्मीदवारी को आगे बढ़ाया और इसका तर्क क्या दिया था? (29 जून, 2006)7

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