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केरल चुनाव मेंवाम ही वाम, कांग्रेस के दामक्या आप कल्पना कर सकते हैं कि 1920 में किस प्रकार का जीवन होता होगा? सिनेमा जाने का अर्थ था बिना आवाज की काली-सफेद तस्वीरें देखना। चाल्र्स लिंडबर्ग ने तब तक अटलांटिक को हवाई जहाज से पार नहीं किया था। अलैक्जेंडर फ्लेमिंग ने पैनिसिलिन की खोज नहीं की थी। और भारत में जार्ज पंचम, एलिजाबेथ द्वितीय (जो 1926 तक पैदा नहीं हुईं थीं), के दादा के नाम पर शासन किया जाता था। इन सबके बावजूद उस काल में पैदा हुए दो व्यक्ति 21 वीं सदी के केरल की राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहे हैं।हाल ही में होने वाले विधानसभा चुनाव शायद उन दो वयोवृद्ध नेताओं, के.करुणाकरण (जन्म, 5 जुलाई 1918) और वी.एस. अच्युतानंदन (जन्म, 20 अक्तूबर 1923) के लिए पासे की अंतिम चाल हो सकते हैं। लेकिन जहां राजनीति की बात आती है तो उनकी शूरता- और उनके आस-पास के बौने नेताओं की- इस बात से सिद्ध हो जाती है कि वे अब भी स्थिति को डगमगा सकते हैं।अच्युतानंदन के हाव-भाव, बहस का उनका तरीका और उनकी माक्र्सवाद की पुरानी मान्यता ने भले ही उस व्यक्ति को टेलीविजन के नक्कालों में चर्चित किया हो पर कोई भी उस व्यक्ति की जनाकांक्षाओं पर पकड़ को नकार नहीं सकता। वह ईमानदार हैं और बिना आगा-पीछा सोचे बेबाक बोलते हैं। अच्युतानंदन 1996 में मुख्यमंत्री बन गए होते अगर उनकी अपनी पार्टी के ही लोगों ने उनके चुनाव को धराशायी न किया होता तो (इसके बाद केरल में दूसरी बार नयनार सरकार बनी थी।) बहरहाल, आम तौर पर समझा जाने लगा था कि वे 2006 के चुनावों में मुख्यमंत्री बन जाएंगे। जब उनके प्रतिद्वंद्वियों ने उनको टिकट दिए जाने के रास्ते में ही बाधा खड़ी कर दी तो सबको बड़ा आश्चर्य हुआ था! इतना अधिक गुस्सा उबल पड़ा था कि शक्तिशाली माकपा पोलित ब्यूरो को अपना फैसला बदलना पड़ा। अगर मुझे ठीक-ठीक याद है तो अब वह मालमपुझा से चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन यह संकेत तो चला ही गया कि आज माकपा में ऐसे व्यक्ति, भले ही उसकी कुछ और कमियां रही हों, की जगह नहीं है जो भ्रष्टाचार को कभी बर्दाश्त नहीं करेगा।माकपा नेतृत्व को बचाने की जिम्मेदारी कांग्रेस पर आन पड़ी। 1996-2001 के दौरान रही नयनार सत्ता इतनी बेकार साबित हुई कि केरल के मतदाताओं ने कांग्रेस नीत संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे को दमदार बहुमत दिया। 140 के सदन में आश्चर्यजनक रूप से अकेले कांग्रेस ने 62 सीटें जीतीं। और इस अभूतपूर्व समर्थन का कांग्रेस ने क्या किया ? कांग्रेस ने करूणाकरण और एंटोनी के बीच जबरदस्त आपसी संघर्ष का प्रदर्शन करके उसे गवां दिया। 2004 आने तक केरलवासी इतने झुंझला चुके थे कि कांग्रेस को 17 में से एक भी लोकसभा सीट नहीं मिली।मुझे लगा था कि लोकसभा चुनावों के बाद बुरा वक्त गुजर गया था। एंटोनी ने मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया और करूणाकरण ने कांग्रेस से निकलकर डी.आई.सी.(के.) बना ली। इसका परिणाम यह निकला कि भले ही यह इकाई छोटी थी पर एकजुट थी। मगर विशेष प्रभावी नहीं थी। और अब लगता है कि वह पूरी नौटंकी एक बार फिर खेली जाएगी।कांग्रेस आलाकमान ने तय किया है कि जब तक करूणाकरण को वापस अपने साथ नहीं मिलाया जाएगा तब तक कांग्रेस का प्रदर्शन स्तरहीन रहेगा। जितना मैं समझ पाया हूं, सोनिया गांधी की निगाह विधानसभा चुनाव- जिसको निजी तौर पर एक बुरा वक्त कहकर भुला दिया गया है- पर नहीं है। वे केरल में 20 लोकसभा सीटों में से कम से कम आधी सीटें जीतना चाहती हैं और जो ऐसी सूरत में संभव नहीं होगा जब करूणाकरण अपने उम्मीदवार उतारने पर आमादा होंगे। तब वोट बटेंगे तथा माकपा के मोर्चे को फायदा होगा।मुझे लगता है सोनिया के फैसले पर मुस्लिम लीग का कुछ हद तक प्रभाव है। लेकिन यह पिछले एक साल के दौरान मुख्यमंत्री चैंडी और केरल कांग्रेस के अध्यक्ष रमेश चैन्नीथला द्वारा किए काम को निष्प्रभावी कर देता है; इन दोनों ने भले ही कोई प्रशासनिक चमत्कार न किया हो पर कम से कम कांग्रेस को एक अनुशासित इकाई तो बनाया ही है। करूणाकरण के लौटने से यह सब बह जाएगा।आंकडों के लिए बता दूं, इस वक्त कांग्रेस और डीआईसी (के.) के बीच “चुनावी समझौते” से अधिक कुछ नहीं है। लेकिन इसको लेकर कोई बहकावे में नहीं है-करूणाकरण के बेटे और अधपके राजनीतिज्ञ मुरलीधरन द्वारा इस रहस्य को खोले देने के बावजूद कि विधानसभा चुनावों के बाद विलय पर बात हो सकती है, असलियत सबको पता है। करूणाकरण तब तक संतुष्ट नहीं होंगे जब तक कि मुरलीधरन और वे खुद कांग्रेस की कमान नहीं संभाल लेंगे। वास्तव में तो सोनिया गांधी ने पार्टी में उसी भितरघात के पुराने रोग की बुनियाद फिर से डाल दी है। तथापि, गुपचुप फुसफुसाहटों को एक ओर कर दें तो, ऐसा कोई कांग्रेसी नहीं है जिसमें सोनिया गांधी के सामने खड़े होकर उनके मुंह पर यह कह सकने की ताकत हो कि उन्होंने गलती की है।अगर कांग्रेस अपनी इसी नीति पर आगे बढ़ी तो वह वही गलती करेगी जो 1999 में पड़ोसी कर्नाटक में भाजपा ने की थी। उस समय कर्नाटक में जनता दल की सरकार थी, और उसका प्रशासन जे.एच. पटेल सरकार की अकुशलता के कारण मजाक की वजह बन गया था। 1998 में भाजपा 28 में से 13 लोकसभा सीट जीत चुकी थी और उसकी सहयोगी रामकृष्ण हेगड़े की लोकजनशक्ति पार्टी को तीन सीटें और मिल गई थीं। एक साल बाद हेगड़े और समता पार्टी (जार्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार) ने जनता दल (कर्नाटक में पटेल, बिहार में रामविलास पासवान और शरद यादव) के साथ हाथ मिलाने का फैसला किया था। दिल्ली में भाजपा नेतृत्व भी कर्नाटक की राज्य इकाई के विरोध के बावजूद उस रौ में बहता गया। परिणाम यह निकला कि पार्टी का आंकड़ा 13 लोकसभा सीट से 6 पर आ गिरा, जिसने बिहार में भी उसे लाभ से वंचित कर दिया। इसके साथ-साथ हुए विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस सत्ता में लौट आई।भाजपा और कांग्रेस के पार्टी नेतृत्व ने, ऐतिहासिक रूप से, दक्षिणी भारत की तरफ कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है। मुझे लगता है कि करूणाकरण को वापस कांग्रेस में लाने का सोनिया गांधी का फैसला कहीं 1999 में कर्नाटक में भाजपा द्वारा अंतिम समय में गठबंधन करने जैसा ही उल्टा न पड़ जाए। लेकिन इसमें एक महत्वपूर्ण अंतर है। कर्नाटक को कृष्णा जैसा मुख्यमंत्री मिला था जो आगे चलकर एक बेहतर प्रशासक साबित हुए। मुझे नहीं लगता कि केरलवासी उसके आधे भी भाग्यशाली साबित होंगे। अगर वाम लोकतांत्रिक मोर्चा चुनाव में बाजी मारता है, जैसा कि चारों ओर से संकेत आ रहे हैं, तो क्या अच्युतानंदन मुख्यमंत्री होंगे ? अगर मान भी लें कि उनके कामरेड इस बार उनके चुनाव में गड़बड़ी नहीं करेंगे तो भी वे अपने उन सहयोगियों से किस तरह के सहयोग की उम्मीद कर सकते हैं जिन्होंने उनको टिकट दिए जाने के रास्ते में ही षडंत्र रचा था? लेकिन अगर किसी चमत्कार की तरह कांग्रेस नीत संलोमो जीत जाता है तो क्या गुटबाजी और झगड़े के वही पुराने दृश्य दिखने के अलावा कुछ और होगा ? एक विज्ञापन दावा करता है कि केरल “ईश्वर की अपनी भूमि है”। मैं प्रार्थना करता हूं कि यह ऐसा लिखने वाले की कल्पना से कहीं बेहतर हो। भगवान केरल पर नजर बनाए रखें क्योंकि इसके नेता केवल खुद को ही देखते हैं।द 30.03.200617
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