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चर्चा-सत्र

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Sep 4, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Sep 2006 00:00:00

राष्ट्रवाद बनाम इस्लाम का समीकरणशंकर शरणअमरीकी राष्ट्रपति बुश की भारत यात्रा के दौरान सभी विरोध प्रदर्शन मुख्यत: मुस्लिम लामबंदी थी। इन प्रदर्शनों में भारतीय हित कहीं नहीं था। सब की सब वैश्विक-इस्लामी मांगें थीं। डेनमार्क-विरोध, इस्रायइल-विरोध, इराक में अमरीकी उपस्थिति का विरोध, ओसामा बिन लादेन और सद्दाम हुसैन के समर्थन तथा अमरीकी-यूरोपीय नेताओं के विरुद्ध अत्यन्त भड़काऊ, घृणित नारे व पोस्टर उनका लब्बो-लुआब थे। (उल्लेखनीय है कि इन प्रदर्शनों में हमारे कम्युनिस्ट भी शामिल थे जो कुछ हिन्दू संगठनों की “हेट स्पीच” के विरुद्ध बयानबाजियां करते हैं। किन्तु इस्लामी प्रदर्शनों में हिंसक, उत्तेजक नारों की खतरनाक भरमार से उन्हें कभी चिंता नहीं होती।) इन प्रदर्शनों के सभी लक्ष्य अन्तरराष्ट्रीय इस्लामी हितों के लक्ष्य थे। यहां तक कि इस्लामी हितों के अनुरूप न चलने पर भारत सरकार व सत्ताधारी दल को सजा देने की धमकियां भी दी गईं। क्या इस्लाम के नाम पर यह भंगिमा देश के विरुद्ध नहीं है?घातक कदमइस संदर्भ में इस्लाम और राष्ट्रवाद का विपरीत सम्बंध पुन: चिंतनीय हो जाता है। सेना या प्रशासन में मुस्लिम भर्ती बढ़ाने के लिए विशेष आदेश (दिसम्बर, 2004) दिए गए हैं। इसी तरह असम में बंगलादेशी मुस्लिम घुसपैठ समर्थक आव्रजन कानून को किसी न किसी रूप में फिर लाने का उपक्रम, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को विशेष अधिकार, देश के न्यायालयों के समानांतर शरीयत अदालतों को मौन स्वीकृति, आदि कदम भी चिंताजनक हैं। यह कदम ऐसे समय उठाए जा रहे हैं जब यूरोप से लेकर कम्युनिस्ट चीन तक संपूर्ण गैर-मुस्लिम विश्व में इस्लामी गतिविधियों पर अंकुश लगाया जा रहा है। बात आम मुसलमानों पर संदेह की नहीं, बल्कि इस्लाम की मजहबी-राजनीतिक प्रवृत्तियों से सावधानी की है। प्रत्येक गैर-इस्लामी देश में चौकसी संगठित इस्लामी घात से बचने के लिए हो रही है। इस्लामी घातियों और देशभक्त मुसलमानों के बीच भेद करना आसान नहीं है। वैसे ही जैसे “अन्तरराष्ट्रीय सर्वहारा हितों” के लिए राष्ट्रीय हितों पर चोट करने वाले कम्युनिस्ट नेताओं, सामान्य कम्युनिस्टों और उनके भोले-भाले समर्थकों के बीच भेद करना कठिन है। इसीलिए सेना-प्रशासन में मुस्लिम भर्ती बढ़ाने या मुस्लिम क्षेत्रों, संस्थानों को विशेष अधिकार देने के निर्णय लखनऊ पैक्ट (1906), कांग्रेस द्वारा खलीफत का समर्थन (1920) या कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने (1948) जैसी ऐतिहासिक भूलों के समान घातक साबित हो सकते हैं।आखिर राष्ट्रीय परिदृश्य में मुसलमानों की भागीदारी क्यों कम है? वस्तुत: “भेद-भाव” के इस्लामी-वामपंथी प्रचार हिन्दुओं की नई पीढ़ी की आंखों में धूल झोंकने के हथकंडे मात्र हैं, क्योंकि वैसी ही तमाम “संभावित” शिकायतों का एकमुश्त समाधान करने के लिए मुसलमान देश का विभाजन करके पूरा अलग देश ही बना चुके हैं। कारगिल पर पाकिस्तानी आक्रमण के समय भारत के एक सर्वोच्च मदरसे के प्रमुख ने भारत की जीत के लिए दुआ करने से इंकार कर दिया था क्योंकि “इस का अर्थ होगा मुसलमानों की हार के लिए दुआ करना”! कुछ इसी भाव के चलते कश्मीर पर पाकिस्तानी मंसूबों पर भी हमारे मुस्लिम नेताओं को एतराज नहीं है।प्रसिद्ध पत्रकार राजेंद्र माथुर यह हसरत लिए हुए ही स्वर्ग सिधार गए कि कभी हमारे मुस्लिम नेता कश्मीर पर भारत के पक्ष में आवाज बुलंद करेंगे! यह चुप्पी अनायास नहीं है। स्टूडेंट इस्लामी मूवमेंट आफ इंडिया (सिमी) के अनुसार कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। सिमी को समाजवादी पार्टी के नेता अबू आसिम काजमी “मुसलमानों की आवाज” कहते हैं। सिमी ने 1986 में अपने दिल्ली सम्मेलन में “इस्लाम द्वारा भारत की आजादी” का आह्वान किया था। इसके अलीगढ़ सम्मेलन (1997) में मुख्य अतिथि पद से बोलते हुए कश्मीरी मुस्लिम नेता जिलानी ने राष्ट्रवाद को “बेमानी” बताया। मुस्लिम समुदाय द्वारा राष्ट्र-गीत “वंदेमातरम्…” का विरोध भी वही चीज है। काजमी ने मार्च 2001 में स्वयं ठसक से कहा था, “अगर देश के टुकड़े होते हैं तो मुझे कोई परवाह नहीं”। यदि ऐसे इस्लामी रहनुमाओं और विचारधारा की निर्मम, खुली आलोचना के बिना सेना, पुलिस में मुस्लिम भर्ती बढ़ती है तो आगे कैसी बेढब स्थिति हो सकती है, यह कल्पना कठिन नहीं है!समस्या की जड़हाल के वर्षों में भारत में डा. अब्दुल मतीन, अनवर अली, जाहिर (जाहिरा नहीं) शेख आदि कई सुशिक्षित उच्च-पदस्थ मुस्लिम जिन गतिविधियों के कारण चर्चा में आए उस पर ध्यान देना चाहिए। अनवर अली नेशनल डिफेंस अकेडमी, खड़गवासला में प्रवक्ता थे किन्तु पुणे में अपने आवास में वे लश्करे-तोयबा के जिहादियों को हथियार प्रशिक्षण देने का अड्डा चलाते थे। उन्हें मुलुंड बम विस्फोट कांड के बाद पकड़ा गया। इसी प्रकार ब्रिटेन, अमरीका, जर्मनी आदि अनेक देशों में ऐसे मुस्लिम पकड़े गए हैं जो संवेदनशील संस्थानों में ऊंचे पदों पर थे और अंतरराष्ट्रीय इस्लामी संगठनों के लिए अपने ही देश के विरुद्ध काम करते थे। अत: हम देश-हित में विचारें कि समस्या कहां है? निश्चय ही आम मुसलमान उतने ही अच्छे या बुरे हैं जितने आम हिन्दू। समस्या इस्लाम की उस गलत व्याख्या के साथ है जो मुसलमानों को दूसरों से अलग करती है। वह दारुल-हरब और दारुल-इस्लाम का विभाजन कर देशभक्ति की भावना को सिरे से खारिज करती है। इसकी अनदेखी करना आत्मघाती होगा।कम्युनिज्म की तरह इस्लाम में भी आरंभ से ही अंतरराष्ट्रीय मताग्रह रहा है जिसमें “इस्लाम ही कौम” के सिवा परिवार, समाज या देश, किसी भी नाम पर एकता भाव को कुफ्र माना गया। कुरान और हदीसों के अनेक आह्वान मुसलमानों को इस्लाम के सिवा हर सम्बंध ठुकराने का आदेश देते हैं। प्रसिद्ध मुस्लिम इतिहासकार प्रोफेसर आई.एच. कुरैशी के अनुसार भी 1920-22 के बीच के “संक्षिप्त हनीमून” को छोड़कर यह कभी न हुआ। इन दो वर्षों में भी मात्र इसलिए हुआ क्योंकि कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन का समर्थन करने का निर्णय लिया। यानी यह आंदोलन भी इस्लाम के अंतरराष्ट्रीय खलीफा की सत्ता के पक्ष में किया गया था, न कि किसी भारतीय प्रश्न पर। इसके अलावा मुस्लिम लीग और भारतीय मुसलमानों ने जो सबसे बड़ा काम किया था वह भारत को तोड़कर एक इस्लामी देश बनाना। ध्यान रहे, यह निर्णय सम्पूर्ण भारत के मुसलमानों ने लिया था- केवल बंगाल या पंजाब के मुसलमानों ने नहीं। कांग्रेस के समर्थक छिट-पुट मुसलमानों को मुस्लिम लीग ने “गद्दार” कह कर अपमानित किया था।यह समझना पड़ेगा कि स्वाधीनता संघर्ष से अधिकांश मुसलमानों का उदासीन बने रहना और फिर भारत का विभाजन देशभक्ति के उलट था। वह इस्लाम-भक्ति थी जिसके तहत पहले यहां मुस्लिम सूफी और रहनुमा विदेशी मुसलमानों को भारत पर हमला करने के लिए आमंत्रित किया करते थे ताकि काफिरों को कुचलकर इसे दारुल-इस्लाम बनाया जा सके। यदि किन्हीं पाठकों को यह सब बातें मुस्लिम-विरोधी दुष्प्रचार प्रतीत होती हों तो दोष उनका नहीं, उस इतिहास-लेखन का है जो स्वतंत्र भारत में विशुद्ध मिथ्याचार परियोजना में बदल दिया गया है। हमारे युवा न केवल सम्पूर्ण इस्लामी इतिहास से बल्कि हाल के इतिहास से भी निपट अनजान हैं। आज कितने लोग जानते हैं कि शाह वलीउल्लाह, सैयद बरेलवी, सर सैयद से लेकर, सर इकबाल, मौलाना हाली, मौदूदी, अली बंधु जैसे मुस्लिम रहनुमाओं की पूरी श्रृंखला ने भारतीय राष्ट्रवाद या भारतीय समाज जैसी चीज को सिरे से खारिज किया था? मौलाना मुहम्मद अली को भारत से ऐसी वितृष्णा थी कि वे खुद को दफन भी अरब भूमि में करवाना चाहते थे। फिर अल्लामाइकबाल ने पूरा सिद्धांत ही घोषित किया,”इन ताजा खुदाओं में सबसे बड़ा वतन है।जो पैरहन है उसका वो मजहब का कफन है।”यानी वतनपरस्ती जो मांगती है, वह इस्लाम के लिए मौत समान है। इसलिए वतनपरस्ती को हेय बताते हुए इकबाल कहते हैं,”कौम मजहब से है; मजहब जो नहीं, तुम भी नहीं।जज्बे बाहम जो नहीं, महफिले अंजुम भी नहीं।”मुस्लिम युवक इन विचारों से भ्रमित हुए बिना कैसे रह सकते हैं जब हमने इस विचारधारा से लड़ने के बजाए उसके समक्ष श्रद्धा-नत रहने की राष्ट्रीय नीति बना रखी है? जब हमने भारतीय मुसलमानों को इस्लाम की अंतरराष्ट्रीय-साम्राज्यवादी विचारधारा में फंसे रहने के लिए निहत्था छोड़ दिया है? जिन विचारों की खुली आलोचना नहीं होगी, इसका मतलब यही लिया जाएगा कि उसे हम भी सही मानते हैं। या गलत नहीं मानते।उदारवादियों की स्थितिइस्लाम और राष्ट्रवाद का परस्पर विरोधी सम्बंध वैसा ही विचार है। यह देश और समाज हित में खुलकर विचार करने योग्य है। यह समझना जरूरी है कि मुसलमानों में यदि राष्ट्रवादी, उदारवादी, मानवतावादी लेखक, कवि या नेता कभी होते भी हैं तो वे इस्लाम की उपेक्षा करके ही वैसे हो पाते हैं। इसीलिए उनकी बातों का कोई असर मुस्लिम समुदाय पर नहीं होता। डा. भीम राव अम्बेडकर की “थाट्स आन पाकिस्तान”, जीनत कौसर की पुस्तक “इस्लाम एंड नेशनलिज्म” अथवा शबीर अहमद व आबिद करीम की “द रूट्स आफ नेशनलिज्म इन द मुस्लिम वल्र्ड” आदि पुस्तकों के अध्ययन से इसे समझा जा सकता है। भारत ही नहीं, पूरी दुनिया में आम मुसलमानों में उदार लेखकों, नेताओं की नहीं चलती। यह पहले भी सच था, और आज भी। खुद जिन्ना जैसे आधुनिक, सेकुलर, तेज-तर्रार नेता मुसलमानों के बेताज बादशाह तभी बने जब उन्होंने इस्लामी लफ्फाजी अपनाई। जबकि निजी जीवन में उनका इस्लाम से कोई मतलब न था। फिर भी गैर-इस्लामी जीवन जीने वाले, किन्तु इस्लामी मांगें रखने वाले जिन्ना ही मुसलमानों के स्वीकार्य नेता बने। इसके उलट पूरे इस्लामी तरीके से चलने वाले बादशाह खान अब्दुल गफ्फार खान मुसलमानों के मान्य नेता न हो सके, क्योंकि वे इस्लामी मांगें नहीं कर रहे थे। यह अंतर ध्यान देने योग्य है।अत: जैसे उस जमाने में बादशाह खान जैसे नेता आम मुसलमानों को प्रभावित नहीं कर पाए थे, वैसे ही हमारे वर्तमान राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम भी आज नहीं कर पाते। बल्कि राष्ट्रपति कलाम जैसों को तो मुसलमान ही मानने से इंकार किया जाता है! आज भी अब्दुल्ला बुखारी ही मुस्लिमों के नेता हैं जो भारत के विरुद्ध जिहाद का आह्वान करने वाले ओसामा बिन लादेन को अपना नायक मानते हैं। या सैयद शहाबुद्दीन, जो बात-बात में अरब देशों की तानाशाही और जहालत को सिर नवाते हैं अथवा स्वाधीनता दिवस का बहिष्कार कर देश-भक्ति के भाव के प्रति अपनी खुली अवहेलना प्रकट करते हैं।दुर्भाग्य से इतिहास की कांग्रेसी-कम्युनिस्ट लीपा-पोती के कारण आज शायद ही कोई भारतीय युवा जानता है कि आधुनिक भारत के लगभग हर मनीषी ने राष्ट्र-द्रोही दुराग्रही जिहादी सोच के “इस्लाम” को दु:खपूर्वक नोट किया था। जब प्रसिद्ध मुस्लिम नेता मौलाना शौकत अली ने भारत पर अफगानिस्तान के हमले की सूरत में अफगानिस्तान का साथ देने की घोषणा की, तो कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर ने अनेक मुस्लिम महानुभावों से स्वयं पूछा था कि यदि कोई मुस्लिम हमलावर भारत पर हमला कर दे तो वे किसका साथ देंगे? उन्हें संतोषजनक उत्तर नहीं मिला (टाइम्स आफ इंडिया, 18 अप्रैल, 1924)। उसी प्रसंग में प्रख्यात विदुषी और कांग्रेस अध्यक्षा रही डा. एनी बेसेंट ने 1921 में कहा था, “मुसलमान नेता कहते हैं कि यदि अफगानिस्तान भारत पर हमला करता है तो वे आक्रमणकारी मुस्लिमों का साथ देंगे और उनसे लड़ने वाले हिन्दुओं का कत्ल करेंगे। हम यह मानने के लिए मजबूर हैं कि मुसलमानों का मुख्य लगाव मुस्लिम देशों से है, मातृभूमि से नहीं।… वे अच्छे और विश्वसनीय नागरिक नहीं हो सकते।… स्वतंत्र भारत में मुस्लिम आबादी स्वतंत्रता के लिए एक खतरा होगी।” छ: वर्ष पहले कारगिल युद्ध के समय दूसरे अली मियां उसी परंपरा को निबाह रहे थे। सदैव अयातुल्ला खुमैनी, बिन लादेन, तालिबान, सद्दाम हुसैन जैसी विदेशी हस्तियों के आह्वान पर भारत समेत सारी दुनिया में लाखों मुसलमानों का उठ खड़े होना उसी प्रवृत्ति का प्रमाण है। यह प्रवृत्ति जाने या अनजाने देश-विरोधी प्रवृत्ति ही है, इससे आंखें मूंदना आत्मघाती होगा। सेकुलरवादी हिन्दू बुद्धिजीवी इस पर विचार करें।लाला लाजपत राय ने भी इस्लामी कानून और इतिहास का अध्ययन करके यही लिखा कि राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं की सदिच्छाओं के बावजूद हिन्दू-मुस्लिम एकता असंभव है क्योंकि “कौन मुस्लिम नेता कुरान को दरकिनार कर सकता है?” महान लेखक शरतचंद्र ने भी हिन्दू जनता पर मुस्लिम गुंडागर्दी पर टिप्पणी करते हुए 1926 में कहा था कि “यहां हजार सालों से लूट-पाट, मंदिरों का विध्वंस, तोड़-फोड़, बलात्कार आदि व्यवहार मुसलमानों की हड्डियों में रच-बस गए हैं।” महात्मा गांधी ने भी (1920 में) स्पष्ट कहा था कि “मेरा अनुभव बताता है कि आम तौर पर मुसलमान आक्रामक होता है और हिन्दू कायर”, जिसका कारण, गांधी जी के ही शब्दों में, मुसलमानों की “सदियों से साम्राज्य विस्तार की परम्परा” रही है। डा. भीमराव अम्बेडकर ने इस्लाम को एक “क्लोज कारपोरेशन” यानी एक बंद समाज की संज्ञा देते हुए कहा था कि इस्लाम का बुनियादी कानून ही मुसलमानों और गैर-मुसलमानों के बीच स्थायी और पक्का दुराव निश्चित करता है, जिसका कोई उपाय नहीं। मुंशी प्रेमचंद ने अपनी पत्रिका हंस के प्रवेशांक, मार्च 1930, में लिखा था, “आज अगर कोई मुसलमान पहले हिन्दुस्थानी होने का दावा करे, तो उस पर चारों ओर से बौछारें होने लगेंगी। … लेकिन इसका मुसलमानों की मनोवृत्ति पर जो बुरा असर पड़ता है, वह देश-हित के लिए घातक है।”ऐसे अनगिनत ऐतिहासिक आकलन मौजूद हैं जिन्हें हिन्दू-द्वेषी नेहरूवादी अकादमिक प्रतिष्ठानों और माक्र्सवादियों ने यत्न व छल-पूर्वक छिपाया है। क्योंकि सभी अनुभव और आकलन दिखाते हैं कि सिद्धांत-व्यवहार में इस्लामी मनोवृत्ति और देश-हित के बीच छत्तीस का आंकड़ा है। अत: यदि इसके प्रति चौकसी न रखी गई तो ऐन वक्त पर बाड़ ही खेत को निगल सकती है। तब ऐसी स्थिति में उपाय क्या है? इस्लामी इतिहास, सिद्धांत और व्यवहार को देखते हुए महर्षि अरविन्द ने कोई सौ वर्ष पहले ही कहा था कि “चाटुकारिता से हिन्दू-मुस्लिम एकता नहीं बनाई जा सकती तथा मुसलमानों के तुष्टीकरण से राष्ट्रीय एकता नहीं बनेगी।” उन्होंने 1926 में ही सम्पूर्ण समस्या का सटीक उपाय भी बता दिया था। महर्षि अरविन्द के शब्दों में, “मुसलमानों को तुष्ट करने का प्रयास मिथ्या कूटनीति थी। सीधे हिन्दू-मुस्लिम एकता उपलब्ध करने की कोशिश के बजाय यदि हिन्दुओं ने अपने को राष्ट्रीय कार्य में लगाया होता तो मुसलमान धीरे-धीरे अपने-आप चले आते। …एकता का पैबंद लगाने की कोशिशों ने मुसलमानों को बहुत ज्यादा अहमियत दे दी और यही सारी आफतों की जड़ रही है”।दुर्भाग्य से हिन्दुओं ने तब भी भीरू, शुतुरमुर्गी, तुष्टीकरणवादी रास्ता अपनाया था। परिणाम 1947 में बंटवारे के रूप में सामने आ गया। आज फिर ठीक वही कोशिशें पूरे उत्साह से हो रही हैं। हम भिन्न परिणाम की आशा भी किस आधार पर कर सकते हैं?7

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