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मलय पवन सनन्-सनन् कलियों के खुले नयन
-डा. रमानाथ त्रिपाठी
भारतीय साहित्य परिषद् के संस्थापक श्री रत्नसिंह शाण्डिल्य मेरे घर आये हुए थे। वेे “नवभारत टाइम्स” के उप-सम्पादक थे, भारतीयता के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने प्रचार किया था कि त्रिवेन्द्रम को तिरुअनन्तपुरम् और कालिकट को कोझिकोड कहा जाए। लोगों में आंग्ल नववर्ष मनाने की रुचि बढ़ती जा रही थी। गांव-कस्बे के लोग भी इस अवसर पर छपे बधाई कार्ड भेजने लगे थे। कनाट प्लेस में लोग शराब पीकर फूहड़ प्रदर्शन करते थे। इससे शाण्डिल्य जी व्यथित थे। वे बोले, “त्रिपाठी जी, हमें आंग्ल नववर्ष के स्थान पर विक्रम नववर्ष का प्रचार करना चाहिए। आप नववर्ष पर कोई कविता बनाकर दीजिए। मैं इसे नवभारत टाइम्स में छाप दूंगा। दो दिन के भीतर कविता चाहिए।”
मेरी धर्मपत्नी हेम चाय की ट्रे लेकर आ गयीं। मैंने संकेत किया कि शाण्डिल्य जी को बातों में उलझाये रहो। मैं उठकर दूसरे कमरे में आ गया। मैंने मन को एकाग्र किया। मुझे याद आया कि आज से कई वर्ष पूर्व जब चैत्र मास में मैं कानपुर के कम्पनी बाग में घूम रहा था तो भीनी-भीनी सुगन्ध हवा में फैली हुई थी। मालियों ने बताया था कि यह सुगन्ध नीम और नींबू के फूलों की है। आमों पर बौर छा गये थे, कच्ची अंबियां भी उग गई थीं। मैंने उमंग में आकर कविता लिख डाली थी। कुछ पंक्तियां इस प्रकार थीं-
आम की तरुणाई बौरा गयी,
अंबिया गदरा गयी।
नीम और नींबू की भीनी महक
प्राण में समा गयी।
मन्द-मन्द पवन में
मस्त मन डोल रहा,
संयम के कृत्रिम बन्ध
बरबस अब तोड़ रहा…
मुझे याद आया कि अभी कुछ दिन पूर्व ही होली का मस्तीभरा पर्व बीता है और यह भी याद आया कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के आठ दिन बाद अत्याचारी असुरों का मर्दन करने वाले धनुर्धर राम का जन्म हुआ था। मेरी लेखनी चलने लगी-
नया वर्ष आया
नीम और नींबू के
फूल शिशु महक उठे,
बौरायी अमराई पर
मधुप दल झूम उठे।
मलय पवन सनन्-सनन्,
कलियों के खुले नयन।
वसुधा से अम्बर तक
नवोल्लास छाया,
नया वर्ष आया।
फाग-राग त्यागो हे,
चण्ड तरुण जागो हे।
अब न यह तिमिर सहो
अग्नि-बाण साधो हे।
असुर-दल व्यग्र-त्रस्त,
दनुज-दलन धनुष-हस्त,
राघव के उदय का
शुभ संदेश लाया।
नया वर्ष आया।
जब मैंने ओज-भरे स्वर में ये पंक्तियां सुनाईं तो शाण्डिल्य जी गद्गद् हो उठे थे। उन्होंने इसे “नवभारत टाइम्स” में प्रकाशित कर दिया था। लगभग 20 वर्षों के पश्चात् पाञ्चजन्य साप्ताहिक ने भी इसे प्रकाशित किया था। “अब न यह तिमिर सह्र” से मेरा तात्पर्य था कि राष्ट्र के समक्ष अनेक भीषण समस्याओं का जो अन्धकार छाया हुआ है अब वह सहने योग्य नहीं है। पाञ्चजन्य के सम्बद्ध सम्पादक ने शब्द को सरल बनाकर “सहो” कर दिया था। “अब न यह तिमिर सहो”, मैंने अब इसे स्वीकार कर लिया है। तब से यह कविता अनेक पत्रिकाओं में छप चुकी है। मैंने कई मंचों से इसका पाठ किया है। इसका महत्व यही है कि शायद विक्रम नववर्ष पर यह एकमात्र कविता है। मैंने एक साहित्यिक शरारत भी की थी। कविता के नीचे टिप्पणी दी थी कि पंक्ति “चण्ड तरुण जागो हे” के स्थान पर किया जा सकता है- तरुण विजय जागो हे। सम्बद्ध सम्पादक मेरे इस विनोद पर मुस्कुराकर रह गए होंगे। उनके चिर तरुण प्रधान सम्पादक तो पहले से ही जागे हुए हैं।
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