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चर्चा-सत्र

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Aug 10, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Aug 2006 00:00:00

जो वन्दे मातरम् का सम्मान नहीं करता उसे भारत में रहने का अधिकार नहींराजनाथ सिंहराष्ट्रीय अध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टीगत 25 सितम्बर को भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह ने वन्दे मातरम् अभियान का श्री गणेश किया। (रपट पृष्ठ 17 पर) यहां प्रस्तुत हैं दिल्ली में आयोजित समारोह में श्री राजनाथ सिंह द्वारा दिए गए वक्तव्य के मुख्य अंश-वन्दे मातरम् अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय जनमानस के संघर्ष की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है, जो 19वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध में बंकिम चन्द्र चटर्जी के उपन्यास आनन्द मठ में प्रकट होकर सामने आई, बल्कि यह सनातन भारतीय राष्ट्र के अनादिकाल से चले आ रहे उस राष्ट्रीयता के भाव की अभिव्यक्ति है जो अथर्व वेद में “माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:” के रूप में उत्पन्न होता है। इसलिए वन्दे मातरम् भारत की राष्ट्रीयता के स्वर की चिरंतन अभिव्यक्ति है। आधुनिक भारत के इतिहास में पहली बार वन्दे मातरम् 1896 के कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया, जिसकी अध्यक्षता प्रख्यात मुस्लिम विद्वान मौलाना रहमतउल्ला सैयानी ने की थी। इसके बाद 1905 के बंग-भंग के विरोध में बंगाल के गली-मुहल्लों में वन्दे मातरम् का ऐसा गान हुआ कि लार्ड कर्जन द्वारा किये गये बंगाल के साम्प्रदायिक विभाजन को 1911 में ब्रिटिश सरकार को वापस लेना पड़ा। वामपंथी इतिहासकार प्रो. विपिन चन्द्र ने भी अपनी आधुनिक भारत नामक पुस्तक में लिखा है कि “7 अगस्त, 1905 को कलकत्ता की सड़कें बंग भंग के विरोध में वन्दे मातरम् से गूंज उठीं। लोगों ने गंगा में स्नान कर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नेतृत्व में सड़कों पर नंगे पैर वन्दे मातरम् के नारे लगाते हुए प्रदर्शन किया। इसके बाद यह गीत रातों-रात राष्ट्रीय गीत बन गया।” कलकत्ता में सबसे पहले वन्दे मातरम् पारसी बागान चौक में गाया गया था। यहां जो राष्ट्रीय ध्वज लहराया गया, उसके ऊपर भी वन्दे मातरम् लिखा हुआ था। मदाम भीकाजी कामा और देश निकाला दिए गए क्रान्तिकारियों के समूह ने जर्मनी के स्टुटगार्ड शहर में 22 अगस्त, 1907 को अन्तरराष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस आयोजित कर वहां जिस तिरंगे को लहराया था, उसके मध्य में भी वन्दे मातरम् लिखा था। बाद में यह ध्वज समाजवादी नेता इंदूलाल याग्निक छुपाकर भारत ले आए और इसे बाल गंगाधर तिलक के पुणे स्थित “मराठा” और “केसरी” अखबार समूह के पुस्तकालय में प्रदर्शित किया गया। संसद में मदाम कामा की जो तस्वीर लगी है उसमें भी यह ध्वज दिखाया गया है।जुलाई, 1909 में मदनलाल धींगरा ने लंदन के इंडिया हाउस में कुख्यात अंग्रेज अफसर कर्जन वाइली की हत्या की थी। बाद में जब उन्हें फांसी पर लटकाया गया तो उनके मुख से निकला हुआ आखिरी शब्द था- वन्दे मातरम्। सन् 1920 में गदर पार्टी के नेता लाला हरदयाल और सोहनलाल भाकना को जब गिरफ्तार कर न्यायालय में पेश किया गया तो उन्होंने वहां वन्दे मातरम् के नारे लगाए। 1942 में चित्तू पांडे और मतंगिनी हजारा द्वारा भी यह गीता गाया। इस प्रकार चाहे सशस्त्र क्रांतिकारी रहे हों या असहयोग और सविनय अवज्ञा आन्दोलन के आन्दोलनकारी- वन्दे मातरम् सभी के लिए युद्धघोष और ब्रिटिश हुकूमत को हिलाने का शंखनाद बन गया था। भारतीय राष्ट्रवाद की सशक्त पहचान के रूप में वन्दे मातरम् कंठ कंठ का स्वर बन गया। लेकिन एक शताब्दी पूर्व जो गीत साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रतीक था, उसे ही आज साम्प्रदायिक राजनीति के कारण साम्प्रदायिक विद्वेष का प्रतीक बना दिया गया है।1923 में कांग्रेस के काकीनाडा अधिवेशन में पहली बार अली बंधुओं ने कांग्रेस के मंच पर इस गीत का विरोध किया और इस महान गीत पर साम्प्रदायिकता का ठप्पा लगाया। इन अली बंधुओं द्वारा शुरू किए गए खिलाफत आंदोलन का समर्थन करके कांग्रेस ने देश में साम्प्रदायिक राजनीति की शुरूआत की। पृथकता के स्वरों को कांग्रेस के 1916 के लखनऊ अधिवेशन में और बल मिला। पृथक निवार्चन क्षेत्रों की मांग होने लगी। 1920-21 में खिलाफत आंदोलन को असहयोग आंदोलन बनाकर चलाया गया। कांग्रेस की इन्हीं गलतियों का परिणाम था कि देश का आगे चलकर साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन हो गया।14-15 अगस्त,1947 की रात जब स्वतंत्र भारत की पहली संविधान सभा की बैठक प्रारम्भ हुई तो वह वन्दे मातरम् के गायन के साथ प्रारम्भ हुई। अर्थात् आजादी की लड़ाई न सिर्फ वन्दे मातरम् के साथ शुरू हुई, आगे बढ़ी वरन् वन्दे मातरम् के स्वरों के साथ ही स्वतंत्र भारत का अस्तित्व भी प्रकट हुआ। भारत की संविधान सभा में राष्ट्रगीत वन्दे मातरम् को राष्ट्रगान जन-गण-मन के बराबर स्थान और सम्मान दिए जाने की बात कही गई है। संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद ने यह सर्वसम्मत निर्णय लिया था। वस्तुत: 26 जनवरी, 1950 को जब भारत को एक गणराज्य घोषित किया जाना था, उस समय राष्ट्रपति के चुनाव से पूर्व राष्ट्र गान पर निर्णय होना था। कांग्रेस ने इसी समय वन्दे मातरम् के साथ खेल खेला। पं. नेहरू ने राष्ट्रगान के रूप में जन-गण-मन को स्वीकार करने की घोषणा कर दी। उस समय यह घोषणा कांग्रेस सहित देश के अनेक बुद्धिजीवी-विचारकों के लिए आश्चर्य वाली बात थी। इसके पूर्व भी 1937 में जब जिन्ना ने पं. नेहरू पर राष्ट्रगान और राष्ट्र ध्वज दोनों का परित्याग करने का दबाव बनाया तब नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में स्थिति को संभाला था। इनके प्रयासों से वन्दे मातरम् के प्रथम दो अनुच्छेदों के गायन को कांग्रेस ने स्वीकृति दी।1905 में कांग्रेस ने अपने वाराणसी अधिवेशन में वन्दे मातरम् गायन द्वारा अधिवेशन शुरू करने की परम्परा शुरू की थी। तब से लगातार यह परम्परा जारी रही। पं. नेहरू ने 14 अगस्त, 1947 की मध्य रात्रि लोकसभा में जब अपना सुप्रसिद्ध पहला ऐतिहासिक भाषण दिया था तो उसके पूर्व भी वन्दे मातरम् का गायन हुआ था। कुछ ही वर्ष पूर्व जब कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी ने जब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष का पदभार ग्रहण किया था, उस अधिवेशन के प्रारम्भ और अन्त, दोनों में वन्दे मातरम् गाया गया था। उस समय जब कांग्रेस पर यह आक्षेप लगा कि कांग्रेस नरम हिन्दुत्व की नीति पर चल रही है तो कांग्रेस नेताओं ने जवाब दिया था कि वन्दे मातरम् का संबंध राष्ट्रीयता से है, धर्म से नहीं। किन्तु दुर्भाग्य, आज भी वही कांग्रेस अध्यक्षा हैं लेकिन वन्दे मातरम् के शताब्दी वर्ष में कांग्रेस कार्यालय में कांग्रेस नेताओं द्वारा इस गीत की उपेक्षा की गई। अगर कांग्रेस अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह 7 सितम्बर को वन्दे मातरम् गायन में किसी कारण से शामिल नहीं हो सके तो उन्हें आगे किसी अन्य कार्यक्रम में सम्मिलित होकर वन्दे मातरम् गायन करना चाहिए था। वस्तुत: इस मुद्दे पर कांग्रेस ने भारी गलती की है। पहले तो कांग्रेस अध्यक्षा और प्रधानमंत्री वन्दे मातरम् गायन समारोह में सम्मिलित नहीं हुए और जब देशभर में इसकी तीव्र भत्र्सना हुई तो कांग्रेस के किसी विद्वान प्रवक्ता ने वन्दे मातरम् के शताब्दी वर्ष की तिथि पर ही संदेह खड़ा कर दिया। वास्तव में यह मूल मुद्दे से देश को हटाने का निम्नस्तरीय प्रयास था। प्रश्न यह नहीं है कि तिथि कौन सी थी? प्रश्न यह है कि वे गायन में शामिल क्यों नहीं हुए? और जहां तक तिथि का प्रश्न है तो सरकार देश की जनता को बताए कि वास्तविक तिथि क्या है? देश में यह धारणा बनती जा रही है कि विभाजन के पूर्व की मुस्लिम लीग की अवधारणाओं को अब कांग्रेस ने अपना लिया है।संविधान की धारा 51ए में राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज के साथ साथ अन्य ऐसे सभी मानकों के प्रति सम्मान की बात नागरिकों के मौलिक कर्तव्य के रूप में अंकित है। इन मानकों में स्वाभाविक रूप से वन्दे मातरम् भी शामिल है तो भी भारतीय जनता पार्टी धारा 51ए में संशोधन चाहती है ताकि राष्ट्रगीत वन्दे मातरम् का स्पष्ट रूप से बिना किसी विवाद के राष्ट्रगान के साथ नागरिकों के मौलिक कर्तव्य की सूची में उल्लेख हो। यदि संप्रग सरकार यह संशोधन प्रस्ताव लाती है तो भारतीय जनता पार्टी इसका समर्थन करेगी। और यदि कांग्रेस ऐसा नहीं करती है तो भारतीय जनता पार्टी आने वाले समय में जब भी संसद में बहुमत में होगी, अपने बल पर यह संशोधन पारित कराएगी। हमारा स्पष्ट मानना है कि जो भी वन्दे मातरम् का सम्मान नहीं करता, उसे भारत में रहने का अधिकार नहीं है।अपने इस उद्बोधन में श्री राजनाथ सिंह ने हवाना में जारी किए गए भारत-पाकिस्तान संयुक्त वक्तव्य की चर्चा करते हुए कहा कि जब तक सीमा पार से आतंकवाद न रुके तब तक पाकिस्तान से किसी भी प्रकार की वार्ता का कोई औचित्य नहीं है। उन्होंने कहा कि जब राजग की सरकार थी तब प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान के राष्ट्रपति श्री परवेज मुशर्रफ को वार्ता के लिए आगरा बुलाया। पर सीमा पार से आतंकवाद रोके जाने का ठोस आश्वासन न मिलने के कारण कोई समझौता नहीं किया गया। श्री सिंह ने आगामी दिसम्बर मास में दोनों देशों की गुप्तचर संस्थाओं की सम्भावित संयुक्त बैठक की भी निंदा करते हुए कहा कि कुख्यात पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था आई एस आई भारत में आतंकवाद फैलाने, आतंकवादियों को प्रशिक्षण देने का कार्य करती है, इस बात के पुख्ता प्रमाण भी हैं। ऐसी संस्था को तो आतंकवाद की निगरानी के लिए बनी अन्तरराष्ट्रीय सूची में डाला जाना चाहिए, उसके साथ वार्ता करना औचित्यहीन है।श्री सिंह ने कहा कि कुछ दिनों पूर्व अमरीकी उपविदेश मंत्री श्री स्ट्रोब टालबोट भारत आए थे। यहां उन्होंने आब्जर्वर फाउण्डेशन द्वारा आयोजित एक समारोह में भी भाग लिया था। समारोह में बोलते हुए उन्होंने कहा कि परमाणु बम विस्फोट तथा कारगिल युद्ध के समय भारत द्वारा अपनाई गई रणनीति के कारण विश्व में भारत की साख बढ़ी है। श्री सिंह ने कहा कि यह दोनों काम श्री अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में हुए। उनके कार्यकाल में विश्वभर में भारत की जो साख बढ़ी थी, वर्तमान सरकार अपने क्रियाकलापों से उसको धक्का पहुंचा रही है।7

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