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पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की पुस्तक पर टिप्पणी करते हुए जो वक्तव्य दिया, यहां प्रस्तुत हैं उसके मुख्य अंश-
जनरल मुशर्रफ की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक के बारे में अखबारों में छपी रपटों को मैंने देखा है। अभी मुझे पुस्तक देखनी है लेकिन आगरा शिखर वार्ता की असफलता पर उनके द्वारा बताई गई टिप्पणी से मैं आश्चर्यचकित हूं। तब न किसी ने उनको अपमानित किया और निश्चित रूप से न किसी ने मुझे।
मार्च 1998 से ही, जब राजग सरकार बनी थी, भारत-पाकिस्तान संबंधों को सुधारना हमारी कार्यसूची का एक प्रमुख मुद्दा था। लेकिन सरकार में हर कोई यह भी जानता था कि सीमा पार आतंकवाद के समाप्त हुए बिना भारत और पाकिस्तान के संबंधों में कोई सुधार नहीं हो सकता, जिसके कारण हजारों निर्दोषों को अपनी जान गंवानी पड़ी है।
इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए मैं बस यात्रा पर लाहौर गया ताकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के साथ बैठकर मैं इस समस्या और अन्य समस्यओं का भी हल निकाल सकूं। इस यात्रा की सभी ने प्रशंसा की। पर इसका कोई परिणाम नहीं निकला और जब पाकिस्तान में तख्ता पलट हो गया, हमारी सरकार ने जनरल मुशर्रफ को आगरा बैठक हेतु निमंत्रित किया। जनरल मुशर्रफ ने हमारे निमंत्रण को स्वीकार किया और वे दिल्ली आए लेकिन आगरा में उन्होंने जम्मू कश्मीर में चल रही हिंसा को “आतंकवाद” मानने से इंकार कर दिया। उन्होंने राज्य में चल रहे “रक्तपात को जनता द्वारा लड़े जा रहे स्वतंत्रता-संग्राम” की संज्ञा दी।
जनरल मुशर्रफ के इस रुख को हमने नहीं स्वीकारा और आगरा वार्ता की असफलता के पीछे यही बात उत्तरदायी है। पाकिस्तान ने जनवरी, 2004 के संयुक्त वक्तव्य में हमारे दृष्टिकोण को स्वीकार किया और वह इस बात पर सहमत हुआ कि पाकिस्तान अपने देश या इसके नियंत्रण के किसी भू-भाग को, आतंकवादी उद्देश्यों के लिए प्रयोग करने की अनुमति नहीं देगी।
जनवरी, 2004 का यह संयुक्त वक्तव्य ही दोनों देशों की परस्पर बातचीत का आधार बना। अगर जनरल मुशर्रफ ने सन् 2000 में ही हमारे दृष्टिकोण को मान लिया होता तो आगरा वार्ता सफल हो गई होती और इसके बाद के तीन वर्ष शांति प्रयासों की दिशा में बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध हुए होते।
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