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स्त्री
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“स्त्री” स्तम्भ
द्वारा,
सम्पादक, पाञ्चजन्य,
संस्कृति भवन, देशबन्धु गुप्ता मार्ग, झण्डेवाला, नई दिल्ली-55
“कन्या भ्रूण हत्या” विषयक बहस पर आमंत्रित विचारों की पहली कड़ी
कन्या भ्रूण हत्या- कैसे रुके ये पाप?
कौन है जिम्मेदार?
कन्या भ्रूण हत्या का पाप हमारे सर पर किस कदर चढ़ा हुआ है इसका एक नृशंस उदाहरण उदयपुर (राजस्थान) वासियों को पिछले दिनों देखने, पढ़ने को मिला। झीलों के शहर उदयपुर के लोग विगत 2 अगस्त को उस समय शर्मसार हो उठे जब वहां की सुप्रसिद्ध फतहसागर झील में तीन कन्या भ्रूण तैरते मिले। पुलिस और स्थानीय लोगों के अनुसार, “तीनों कन्या भ्रूण अवैध गर्भपात के बाद चुपके से झील में डाले गए। इनकी अवस्था साढ़े चार से साढ़े पांच महीने की थी।” राजस्थान के अखबारों में अगले दिन जिसने भी तीनों कन्या भ्रूणों को झील में फेंके जाने की घटना के बारे में पढ़ा, उसके रोंगटे खड़े हो गए।
कौन है दोषी?
घटना के बारे में प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि 2 अगस्त को दो महिलाएं एक बड़ा बैग लेकर झील के आस-पास टहलती देखी गईं थीं। झील के जिस किनारे पर ये रुकी थीं, उनके जाने के बाद वहीं पर लोगों ने कन्या भ्रूणों को पानी के ऊपर तैरते हुए पाया। इससे प्रथम दृष्टया से तो यही पता चलता है कि इस गर्भपात के पीछे महिलाओं की स्पष्ट भूमिका है। किन्तु सच यह भी है कि घर के पुरुष सदस्यों की सहमति के बगैर यह संभव नहीं हो सकता।
क्या कहता है कानून?
मेडिकल टर्मिनेशन आफ प्रेग्नेन्सी एक्ट-1972″ के अनुसार, “पांच माह अथवा 20 सप्ताह पूरे होने के पूर्व तक कोई महिला अनचाहे गर्भ को गिरा सकती है लेकिन इस तरह का गर्भपात कोई मान्यता प्राप्त संस्थान या चिकित्सक ही कर सकता है।” लेकिन उदयपुर के मामले में यदि वैध गर्भपात होता तो भ्रूणों का निस्तारण भी उचित रीति से किया गया होता। इस तरह झील में भ्रूण फेंक देना सीधे-सीधे अवैध गर्भपात को ही दर्शाता है।
घटना के बाद अनेक सामाजिक संगठनों ने मांग की है कि इसे “तिहरा हत्याकाण्ड” मानकर दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई की जाए। गर्भपात का मौजूदा कानून बदलकर उसकी अधिकतम समय सीमा 20 सप्ताह की बजाए 12 सप्ताह करने की मांग भी उठाई गई है। उल्लेखनीय है कि 12 सप्ताह में भ्रूण के नर या मादा होने का पता नहीं चल पाता।
कुछ विशेषज्ञों के अनुसार, सभी अस्पतालों की सानोग्राफी मशीनें, जो लिंग परीक्षण करती हैं, को एक केन्द्रीय निगरानी व्यवस्था में लाया जाना चाहिए। कम्प्यूटर तकनीकी द्वारा यह संभव भी है। लिंग का पता न चल सकने पर लोग गर्भपात कराने में असमर्थ होंगे।
एक नया खतरा
अस्पतालों में पूरी तरह प्रतिबन्धित होने के बावजूद लिंग परीक्षण आज भी जारी है। अब एक नया खतरा सामने है। अमरीका की एक कंपनी वेबसाइट पर ऐसी तकनीकी बेच रही है जिसमें डाक्टर की मदद के बिना ही लिंग परीक्षण संभव है। इस तकनीकी में एक जांच किट द्वारा गर्भवती महिला के रक्त का नमूना लेकर उसके भ्रूण के लिंग का पता कर लिया जाता है। यह किट पंजाब और हरियाणा में इस समय बहुत प्रचलित भी है। कन्या भ्रूण हत्या के लिए यह तकनीकी खतरे की भयावह घंटी है।
गर्भपात का वीभत्स रूप
0 सोलह सप्ताह के अधिक उम्र के भ्रूण को मारने के लिए एक लंबी सूई से एक विशेष रसायन गर्भाशय में डाला जाता है। एक घंटे में भ्रूण दम तोड़ देता है।
0 अल्ट्रासाउंड में देखकर भ्रूण के पैरों को टेढ़े मुंह वाली भोथरी कैंची से बाहर खींचा जाता है। बाहर आने पर इसके मस्तिष्क के पृष्ठ भाग को कैंची से प्रहार कर नष्ट कर देते हैं।
0 18 सप्ताह के भ्रूण को नष्ट करने हेतु एक तरीका यह भी है कि गर्भाशय के भीतर ही भ्रूण को नुकीली कैंची घोंप-घोंप कर मार देते हैं।
0 एक अध्ययन के अनुसार अपने देश में प्रतिवर्ष पचास लाख गर्भपात होते हैं, इसमें 90 प्रतिशत कन्याएं होती हैं। 80 प्रतिशत गर्भपात नर्सिंग होम ही कराते हैं। स्पष्ट रूप से अधिक से अधिक रुपए कमाने की होड़ ने ही हमारे चिकित्सकों की आंखों पर पर्दा डाल दिया है।
इस महापाप को रोकने की जिम्मेदारी सभी की है। सरकार, समाज, धार्मिक, सामाजिक संस्थाएं, स्त्री-पुरुष सभी के प्रयत्नों से यह रुक सकता है। विभिन्न धार्मिक ग्रन्थों में भी कहा गया है- सारे पापों का प्रायश्चित है किन्तु भ्रूण हत्या के पाप का बोझ जन्म-जन्म तक हत्यारों का पीछा नहीं छोड़ता।
महिलाएं ही इस बुराई के खिलाफ एकजुट हों
मंजूषा श्रीहरि आठल्ये
महिलाओं पर अनेक प्रकार से अत्याचार हो ही रहे थे पर अब तो अजन्मी कन्याओं पर भी अत्याचार बढ़ गए हैं। महिलाएं आज कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। न बाहर, न गर्भ में। एक ओर हमारा समाज नवरात्रों में कन्याओं को पूजता है तो दूसरी ओर अजन्मी कन्याओं की हत्या करता है। समाज में आज भी लड़के की अपेक्षा लड़की के जन्म पर उतनी खुशी नहीं होती। कारण अनेक हो सकते हैं। उसमें से एक है दहेज प्रथा। कितने कानून हैं या बनाये जाएंगे, लेकिन दहेज प्रथा बंद नहीं होती। इसलिए लड़के की चाह में कन्या भ्रूण हत्याओं का सिलसिला जारी रहता है। इन सभी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है महिलाओं में परस्पर एकता का अभाव। यदि एक महिला दूसरी महिला को इज्जत से, बगैर प्रतिस्पर्धा के देखे तो न देवरानी-जेठानी में लड़ाई होगी, न सास-बहू में झगड़े होंगे और न किसी की बेटी दहेज की बलि चढ़ेगी। किसी के मन में कन्या भ्रूण हत्या का विचार भी नहीं आएगा। सास-बहू यदि एकमत होकर निर्णय लें कि हम कन्या भ्रूण हत्या नहीं होने देंगे, तो उनका विरोध करने का साहस किसी में भी नहीं होगा। कन्या भ्रूण हत्या का घाव अब कोढ़ बनता जा रहा है। इसके इलाज के लिए नारी को स्वयं काली का रूप धारण करना होगा।
मंजुषा श्रीहरि आठल्ये
“साईंकृपा”, श्रीराम नगर,
आवलाइनरी
जिला-बालाघाट (म.प्र.)
छोड़ो ऐसी मान्यताएं
शारदा सैनी
जबसे भ्रूण परीक्षण जैसी वैज्ञानिक सुविधा मनुष्य को उपलब्ध हुई है तब से वह कन्या भ्रूण हत्या के पाप से दबता जा रहा है। वास्तव में भ्रूण परीक्षण का उद्देश्य गर्भस्थ शिशु की शरीरिक विकृतियों अथवा विकास सम्बन्धी गड़बड़ियों को जानना व समय रहते वांछित चिकित्सा सुविधा सुलभ कराना था, परन्तु लोगों ने इस सुविधा का प्रयोग मात्र लिंग परीक्षण के लिए करना शुरु कर दिया है। गर्भस्थ शिशु लड़की है, यह जानकारी मिलने पर उसका खात्मा करने की तो मानो आज होड़ लग गई है।कुछ प्रचलित मान्यताएं हैं, जिन पर हमारे समाज को फिर से सोचने की जरूरत है। हाल ही में मेरे पूज्य ससुर जी का स्वर्गवास हुआ। पंडित जी गरुड़ पुराण की कथा का वाचन कर रहे थे। श्रोताओं में बहुमत स्त्रियों का था। कथा वाचन करते समय पंडित जी कह रहे थे कि माता-पिता के अंतिम संस्कार तथा मरोणापरांत होने वाले अन्य कर्मकाण्डों के लिए लड़का होना आवश्यक है अन्यथा मृतात्मा को मुक्ति प्राप्त नहीं होती। वहां महिलाओं में कई ऐसी महिलाएं भी थीं जिनकी केवल बेटियां ही हैं। गरुड़ पुराण कथा सुनने के बाद उनके मन में निश्चित आया होगा कि लड़के का होना वास्तव में जरूरी है। समाज का बहुसंख्यक वर्ग आज भी लड़की को पराया धन मानकर लड़के को वंश चलाने के लिए अनिवार्य मानता है। समाज की मानसिकता इतनी विकृत है कि एक या दो लड़कियों के बाद भी लड़की को जन्म देने वाली महिला को परिवार में निम्न स्तर के ताने सुनने पड़ते हैं। उसे वंश डुबाने वाली, कलमुंही, कुलच्छनी, यहां तक की चुड़ैल जेसे विशेषणों से प्रताड़ित किया जाता है। ऐसी स्थिति में कोई भी महिला निर्दोष होते हुए भी स्वयं को दोषी मानने लगती है और वह पुत्र चाहने लगती है। और इसी सोच के कारण भ्रूण परीक्षण के द्वारा वह कन्या भ्रूण हत्या के पाप की भागीदार बन जाती है। कन्या भ्रूण हत्या के परिणामस्वरूप आज स्त्री-पुरुष के बीच जो सन्तुलन बिगड़ रहा है, वह भविष्य में एक बड़े खतरे का सूचक है। कन्या भ्रूण हत्या के पाप को रोकने में जहां एक ओर शिक्षा व जागृति महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है वहीं सरकार को भ्रूण परीक्षण पर रोक को और अधिक कड़े दण्ड-प्रावधानों के साथ लागू करना चाहिए।
शारदा सैनी (अध्यापिका)
मकान नं. 1373, विवेक बिहार, हरबर्टपुर,
देहरादून (उत्तराञ्चल)
बदलें नजरिया
सरोजनी शर्मा
बेटी पैदा होती है तो परिवार का कोई बिरला ही प्रसन्न होता है। फिर शुरु होती है उसके लिए दहेज जुटाने की कवायद। उसे पढ़ाना भी जरूरी है। उच्च शिक्षा दिलाएंगे तो लड़के अच्छे मिलेंगे की प्रवृत्ति रहती ही है। पढ़ी-लिखी लड़की को भी कोई मुफ्त में तो ले नहीं जाएगा। और यहीं से प्रारम्भ होता है माता-पिता का आर्थिक शोषण। बुढापे में बेटा सहारा होगा, यह सोच भी बनती है। यहीं से स्वार्थ की पराकाष्ठा शुरु हो जाती है। बेटी तो पराए घर का धन है, ऐसा अहसास होने लगता है। माता-पिता की सोच परिवर्तित हो जाती है। उसकी प्रतिध्वनियां बेटी के व्यक्तित्व से टकराने लगती हैं। यह तो परिवार की बात हुई। बाहरी परिवेश में स्त्री शरीर को भोग्या अर्थात भोग की वस्तु माना जाता है। समाज उसे केवल बच्चा पैदा करने, परिवार की देख-रेख करने वाली आया समझने की भूल करता है। चूंकि स्त्री का व्यक्तित्व केवल देने की परम्परा निभाता है अत: उस स्थिति में बेटी पैदा करना उसे सजा लगने लगता है। वह नहीं चाहती कि जो उसके माता-पिता ने भोगा, वह उसकी बेटी को व स्वयं उसे भोगना पड़े। इस जघन्य पाप की जड़ में यही मानसिकता है। इस पाप से बचने के लिए हम सबकोअपना नजरिया बदलने की जरूरत है।
सरोजनी शर्मा
नगर परिषद के सामने,
भीलवाड़ा
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