कटासराज से दिसम्बर में लौटीं सरिता मेहरा ने बताया
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कटासराज से दिसम्बर में लौटीं सरिता मेहरा ने बताया

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Aug 1, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Aug 2006 00:00:00

कटासराज के बहाने मुशर्रफ ने हिन्दुओं से मजाक किया

गतांक से आगे…

ब्राह्मकुण्ड में कटासराज मंदिर का प्रतिबिम्ब

गाड़ी से सबसे पहले राणा भैया उतरे और उन्होंने कहा, “शायद यही कटासराज है, उतरिए।” गाड़ी एक जीर्ण-शीर्ण मन्दिर के सामने खड़ी थी और दूसरी तरफ एक चमचमाती मस्जिद दिख रही थी। बोझिल मन से हम लोग गाड़ी से उतरे और उस मन्दिर के पास पहुंचे। उसकी हालत देखकर बड़ी निराशा हुई। आस-पास की पुरानी इमारतों की भी यही स्थिति थी। लगभग ढ़ाई कि.मी. के क्षेत्रफल में फैले इस तीर्थस्थल की एक-एक ईंट अपनी दुर्दशा बयान कर रही थी। कभी अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध रहे गाड़ी से सबसे पहले राणा भैया उतरे और उन्होंने कहा, “शायद यही कटासराज है, उतरिए।” गाड़ी एक जीर्ण-शीर्ण मन्दिर के सामने खड़ी थी और दूसरी तरफ एक चमचमाती मस्जिद दिख रही थी। बोझिल मन से हम लोग गाड़ी से उतरे और उस मन्दिर के पास पहुंचे।

जीर्ण-शीर्ण अवस्था में कटासराज मंदिर

उसकी हालत देखकर बड़ी निराशा हुई। आस-पास की पुरानी इमारतों की भी यही स्थिति थी। लगभग ढ़ाई कि.मी. के क्षेत्रफल में फैले इस तीर्थस्थल की एक-एक ईंट अपनी दुर्दशा बयान कर रही थी। कभी अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध रहे यहां के भवन अब केवल जीर्ण-शीर्ण ढांचे के रूप में खड़े हैं। मंदिरों के अन्दर की मूर्तियां तो गायब हैं ही, बाहरी दीवारों पर बने देवी-देवताओं के चित्रों को भी मिटाया हुआ है। मुख्य मन्दिर की दीवार में तो एक जगह उर्दू में “जिहाद” लिखा दिखा। यहां की दुर्दशा को देखकर मुझे गत जून में भाजपा अध्यक्ष श्री लालकृष्ण आडवाणी की पाकिस्तान यात्रा याद हो गई। उस समय पाकिस्तान सरकार द्वारा श्री आडवाणी के हाथों कटासराज की जीर्णोद्धार योजना का शुभारम्भ करवाया गया था। भारत और पाकिस्तान के मीडिया ने इसे भारत-पाकिस्तान सम्बंधों में नए युग की शुरुआत कहकर खूब प्रचारित किया था। किन्तु वहां पहुंचकर मुझे पता चला कि वह सब सिर्फ दिखावा था। शायद आडवाणी जी को दिखाने के लिए उस समय पाकिस्तानी पुरातत्व विभाग ने मंदिर में प्रवेश करने के लिए दस सीढ़ियां बनवाकर एक बोर्ड टांग दिया था। इसके बाद अब तक छह महीने बीत चुके हैं, वहां एक ईंट तक नहीं जोड़ी गई है। उसी समय यह भी सुनने और पढ़ने को मिला था कि भारतीय पुरातत्व विभाग के दो अधिकारियों के निर्देशन में वहां जीर्णोद्धार कार्य होगा। किन्तु वहां की जैसी स्थिति मैंने देखी है उसके अनुसार तो मुझे लगता है कि कटासराज शायद ही अपने पुराने वैभव को प्राप्त कर पाएगा। वहां मुझे दो व्यक्ति मिले। उनसे बातचीत हुई तो वे बोले, “अरे यहां के अधिकारी तो मस्जिदों के पैसे खा जाते हैं, फिर भला वे मन्दिर कहां से बनाएंगे?” मन्दिर के समीप एक पवित्र ब्राह्मकुण्ड है। पुष्कर (राजस्थान) के ब्राह्मकुण्ड के समान ही इसकी भी कभी ख्याति और मान्यता थी। इसकी विशेषता है कि यह कभी सूखता नहीं है। आस-पास के लोग इसी से सिंचाई का काम करते हैं।

कटासराज मंदिर परिसर में स्थित एक भव्य भवन: अब केवल खण्डहर

कटासराज को मत्था टेककर बड़े भारी मन से हम लोग वहां से इस्लामाबाद के लिए चले। चण्डीगढ़ की तरह इस्लामाबाद को भी सुनियोजित ढंग से बसाया गया है। शहर बड़ा सुन्दर लगा, किन्तु लोग तंगदिल लगे। कई लोगों से मिलना हुआ। अधिकांश का कहना था कि भारत तो हमारा शत्रु है। इस्लाम ही सबसे अच्छा मजहब है। खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ हम लोग देर रात लाहौर लौटे। दूसरे दिन पुरखों की माटी देखने की तमन्ना लेकर पुराने लाहौर के शाह आलमी मुहल्ले में पहुंचे। जिस होटल में हम लोग ठहरे थे, उस होटल से शाह आलमी की दूरी लगभग 20 कि.मी. है। रास्ते में अनारकली, शाहदरा जैसी जगहें मिलीं, जो कभी हिन्दुओं के मोहल्ले थे। किन्तु न तो रास्ते में और न ही शाह आलमी में एक भी हिन्दू मुझे मिला। मेरे पिताजी बताते हैं कि विभाजन के समय इन मुहल्लों में विशालकाय मन्दिर थे। किन्तु उस दिन मुझे कहीं भी एक छोटा-सा मन्दिर नहीं दिखा। शाह आलमी के फूड स्ट्रीट में एक मकान मिला। उसके ऊपर अंग्रेजी में “गोपाल निवास” और हिन्दी में “ॐ” एवं “रामनाथ गोपाल” लिखा हुआ है। इस मकान के नीचे एक दुकान है। दुकानदार ही अब इस मकान का मालिक है। मैंने पूछा, “इतने वर्षों बाद भी आपने इस मकान का नाम नहीं बदला है।” उन्होंने कहा कि इधर से गुजरने वाले लोग मेरे मकान की ओर एक बार अवश्य देखते हैं, इसलिए इसे मिटाने की क्या जरूरत है। मेरी पहचान के लिए लोग इसका इस्तेमाल करते हैं।

राणा भैया से मैंने पूछा कि यहां हिन्दू किधर रहते हैं? उन्होंने कहा, “यह तो मुझे भी पता नहीं।” उनके जवाब से मैं हैरान रह गई और मन ही मन सोचने लगी, अब पाकिस्तान में हिन्दुओं के लिए कुछ भी नहीं बचा। लाहौर में मुझे कई गुरुद्वारे दिखे। चारों ओर से उनकी सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था के लिए दीवारें ऊंची की गई हैं और पुलिस का पहरा भी है। हम लोग छह दिन तक लाहौर में रुके। इस दौरान कई परिवारों ने दावतें दीं। लोगों ने हमारी खूब आवभगत की। यहां तक कि एक जगह मेरे पति खाना लेने गए, वहां खड़े एक अनजान व्यक्ति ने कहा, “ये हमारे मेहमान हैं, इन्हें पहले दो।” एक अन्य ने लाख मना करने के बावजूद दुकानदार को खाने का पैसा नहीं देने दिए। उसने कहा, आप इतनी दूर से आए हैं और हम आपके लिए इतना भी नहीं कर सकते।” उनके व्यवहार से लगता ही नहीं था कि हम गैरों के बीच हैं। पर मेरे मन में बार-बार यह सवाल उठ रहा था कि जब यहां के लोग इतने ही मिलनसार हैं, भारतीयों का तहेदिल से स्वागत करते हैं, तो फिर क्या कारण है कि यहां के बचे-खुचे हिन्दू भी मुसलमान बन गए, उनके वर्षों पुराने मन्दिर तोड़ डाले गए? इस सम्बंध में मेरा अनुभव यही रहा कि भले ही ये लोग भारतीयों से मोहब्बत रखते हों, पर मजहब के नाम पर ये अभी भी उतने ही संगठित हैं, जितने 1947 में या उससे पूर्व थे।

(समाप्त)

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