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हार्वर्ड विश्वविद्यालय की विद्वत परम्परा के विरुद्ध हैं वित्जेल
हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर माइकल वित्जेल “संस्कृत” भाषा के विद्वान हैं, किन्तु इधर उनकी दिलचस्पी भारतीय इतिहास में कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है। शायद इसे उनके भारतीय वामपंथी इतिहासकार मित्रों की संगत का असर ही माना जाएगा कि अब वह हिन्दू संस्कृति पर खुली चोट कर रहे हैं। भारत के वामपंथी इतिहासकारों, जिनमें रोमिला थापर प्रमुख हैं, द्वारा उन्हें इस कार्य में पूरी मदद मिल रही हैं। प्रो. वित्जेल ने अपनी आलोचनाओं में अमरीकी हिन्दुओं-सिखों के वर्तमान रहन-सहन पर भी निशाना साधा है। उनके अनुसार, “अमरीकी हिन्दुओं का हिन्दुत्व अब “बोर करने वाली प्रथाओं” के रूप में ही बचा है। प्रो. वित्जेल ने कैलीफोर्निया की पाठ पुस्तकों में काली देवी को “खून की प्यासी”, आर्यों को आक्रमणकारी, हनुमान को “बन्दर” आदि बताने का समर्थन करते हुए इसे हटाने का पुरजोर विरोध किया है। परन्तु यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रो. वित्जैल ने एक बार भी पाठक्रम संशोधन हेतु गठित विशेषज्ञ समिति के समक्ष कोई लिखित आपत्ति दर्ज नहीं कराई। इसके विपरीत उन्होंने दशकों पुराने “सुनियोजित अनुसंधानों” को ही वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित अन्तिम सत्य घोषित कर दिया है। यह बात अलग है कि अनेक नवीन अनुसंधानों, विद्वतापूर्ण शोधपत्रों, इतिहास के विशेषज्ञों से समुचित विचारोपरांत जब विशेषज्ञ समिति ने संशोधनों हेतु सहमति दे दी तो वे विरोध पर उतारू हो गए। जो भी हो, अमरीका में प्रो. माइकल वित्जेल के विरुद्ध अमरीकी हिन्दुओं ने भी कमर कस ली है। अन्तरताने पर इससे सम्बंधित एक याचिका पर हजारों हिन्दुओं ने हस्ताक्षर कर हार्वर्ड विश्वविद्यालय प्रशासन के समक्ष सवाल खड़ा कर दिया है कि इस तरह के नवीन अनुसंधानों के विरोधी, पूर्वाग्रह से ग्रसित व्यक्ति किस तरह ऐसे विश्वविद्यालय में काम कर रहा है, जिस विश्वविद्यालय का अपना श्रेष्ठ अकादमिक इतिहास रहा है।
एजुकेटर्स सोसाइटी फार द हेरिटेज आफ इण्डिया, अमरीका के संस्थापकों में से एक श्री कंचन बनर्जी कहते हैं कि, “अमरीका में भारतीय इतिहास व संस्कृति से जुड़ी प्रत्येक पाठ पुस्तक में भारतीय जाति व्यवस्था, छुआछूत, गरीबी, पशुओं की पूजा आदि को ही हिन्दू धर्म के रूप में चित्रित किया गया है। और तो और “इनकार्टा” जैसे प्रमाणिक संदर्भ पुस्तकों में भी हिन्दुत्व को नकारात्मक अर्थों में व्याख्यायित किया गया है। परिणामत: न केवल अमरीकी समाज वरन् हिन्दुओं की नई पीढ़ी भी अपने देश, धर्म व संस्कृति के प्रति एक अजीब-सी नकारात्मक मनोदशा से गुजर रही है। ऐसे में पाठक्रम में तथ्यों को ठीक किया जाना बहुत जरूरी था।” कंचन बनर्जी का यह भी मानना है कि अनेक पाश्चात्य विद्वानों जैसे वाल्तेयर, लाप्लास, अल्बर्ट आइंस्टीन, मार्क ट्वेन और विल डयूरां द्वारा भारत और हिन्दू धर्म के संदर्भ में किये गए सकारात्मक वर्णनों से अमरीकी युवा पीढ़ी का परिचय होना आवश्यक है। इससे भारत को समझने में उन्हें मदद मिलेगी। लेकिन इसके विपरीत हिन्दू धर्म एवं हिन्दू संस्कृति के प्रति केवल दूषित मनोवृत्ति रखने के कारण कुछ लोग इस दिशा में परिवर्तनों का विरोध कर रहे हैं।
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