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पाञ्चजन्य पचास वर्ष पहले

by
Aug 1, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Aug 2006 00:00:00

वर्ष 10, अंक 19, सं. 2013 वि., 26 नवम्बर, 1956, मूल्य 3 आने

सम्पादक : तिलक सिंह परमार

प्रकाशक – श्री राधेश्याम कपूर, राष्ट्रधर्म प्रकाशन लि., गौतमबुद्ध मार्ग, लखनऊ (उ.प्र.)

पिछले 7 मासों में स्टर्लिंग कोष से भारत ने 155 करोड़ रु. निकाले

आर्थिक संकट के लिए स्वेज नहीं, शासन उत्तरदायी

(विचार- वीथी: श्री “पाराशर”)

आयात परामर्शदाता समिति के समक्ष भाषण करते हुए श्री मोरारजी देसाई एवं करमरकर दोनों ने ही इस बात पर बल दिया है कि हमें विदेशों से आयात को कम करना चाहिए। प्रधानमंत्री पं. नेहरू ने भी कलकत्ते में इस ओर ध्यान आकृष्ट किया था। चारों ओर इस बात की आशंका प्रकट की जा रही है कि निकट भविष्य में वस्तुओं का भारी अभाव होगा, जिससे मूल्यों में वृद्धि हो सकती है। विदेशी विनिमय की दृष्टि से भारत की स्थिति दिन-प्रतिदिन गम्भीर होती जा रही है। स्टर्लिंग कोष से पिछले 7 मास में हम 155 करोड़ रुपए निकाल चुके हैं जबकि हमने पंचवर्षीय योजना की अवधि में 200 करोड़ रुपए मात्र निकलवाने का निश्चय किया था। मशीनों एवं उत्पादन साधनों के अतिरिक्त हमें कच्चा माल एवं खाद्य-पदार्थ भी बाहर से मंगाने पड़ रहे हैं।

। । । । ।

उर्दू को अनुचित रूप में लादने का कुचक्र;

आन्ध्र और हैदराबाद के विधानों का एकीकरण शीघ्र आवश्यक

(निज प्रतिनिधि द्वारा)

हैदराबाद : 1 अक्तूबर, 1953 को कर्णूल में भारत के प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने आंध्र राज्य का उद्घाटन किया था। इसके ठीक तीन वर्ष एक माह के पश्चात 1 नवम्बर, 1956 को नए आन्ध्र प्रदेश का उद्घाटन हैदराबाद में नेहरू जी ने किया। 2 हजार वर्ष के पश्चात आन्ध्र पुन: अपने अस्तित्व में आ रहा है। सम्राट चन्द्र गुप्त प्रथम और अशोक के इतिहास में भी आंध्र राज्य का वर्णन मिलता है। आंध्र, उस्मानिया और वेंकटेश्वर नामक तीन विश्वविद्यालय इस प्रदेश में मिलते हैं।

मुख्यमंत्री नीलम संजीव रेड्डी ने नए राज्य का कार्यभार संभालते ही जो महत्वपूर्ण आदेश प्रसारित किए हैं उनमें से मुख्य यह है कि तेलंगाना निवासी पहले की भांति ही मुख्यमंत्री के नाम प्रार्थनापत्र उर्दू में दे सकेंगे।

आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने तेलंगाना के वकील वर्ग की भाषा विषयक कठिनाइयों को अनुभव करते हुए उन्हें सहूलियतें प्रदान की हैं कि वे लोग हाई कोर्ट में उर्दू में बहस कर सकेंगे।

। । । । ।

हमारी विदेश नीति

भारतीय विदेश नीति के सम्बंध में लोकसभा में वाद-विवाद हुआ। दो विषयों पर गरमागरम चर्चा हुई। भारत और राष्ट्रमण्डल, हंगरी के सम्बंध में भारत सरकार की नीति। जहां तक भारत का राष्ट्रमण्डल में बने रहने का सम्बंध है, यद्यपि हम स्वीकार करते हैं कि स्वयं की समस्याओं (गोआ, कश्मीर, दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों के हित के प्रश्न) पर राष्ट्रमण्डल से अलग न होकर भारत का दूसरे राष्ट्र-मिस्र की समस्याओं के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने मात्र के लिए अलग होना, बुद्धिमानी का द्योतक नहीं समझा जा सकता, तथापि प्रधानमंत्री द्वारा उन हितों पर प्रकाश डाला जाना आवश्यक अनुभव करते हैं, जिनके कारण भारत राष्ट्रमण्डल में बना हुआ है क्योंकि इसके अभाव में भारतीय जनता के अंतर में सदैव यह शंका बनी रहेगी कि हमारी विदेश नीति ब्रिटेन के निर्देशों से मुक्त नहीं है। जहां तक हंगरी के सम्बंध में भारत सरकार की नीति का सम्बंध है, लोकसभा के सदस्य एक मत नहीं हो सके। कम्युनिस्टों ने सरकारी नीति का समर्थन किया, जबकि उनके अतिरिक्त समस्त विरोधी पक्षों ने, जिन्हें आचार्य कृपलानी ने “राष्ट्रीय विरोधी पक्ष” का नाम प्रदान किया, उसकी तीव्र आलोचना की।

(सम्पादकीय)

(19 नवम्बर, 1956 को प्रकाशित अंक 18 अभिलेखागार में उपलब्ध नहीं है।)

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