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– डा. कमल किशोर गोयनका
मृदुला गर्ग हिन्दी की प्रतिष्ठित लेखिका हैं और उन्हें काफी बड़े-बड़े पुरस्कार भी मिले हैं। इधर “इंडिया टुडे” में वे “मेहमान का पन्ना” नाम से एक नियमित स्तम्भ लिखती हैं। इसके 21 दिसम्बर, 05 के अंक में उन्होंने “एक पंथ: दो काज” शीर्षक से अक्षरधाम मंदिर पर बहुत ही आपत्तिजनक टिप्पणी लिखी है। वामपंथी राजेन्द्र यादव ने हनुमान को आतंकवादी लिखा था तो देश में घोर प्रतिक्रिया हुई थी। अब मृदुला गर्ग उससे भी भयंकर बात लिखती हैं कि अक्षरधाम के निर्माण में 200 करोड़ खर्च हुए हैं, जिन्हें एक करोड़ शौचालय के निर्माण में खर्च करना अधिक उपयुक्त था। इनके कई तर्क हैं- मंदिर का निर्माण परलोक सुधार का प्रलोभन मात्र है, मंदिर जाने वाले काली करतूतों को करने में उस्ताद होते हैं, प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपति जैसे लोग मंदिर के उद्घाटन पर जाकर पाप-कर्म को आगे बढ़ाते हैं और जनसंख्या विस्फोट को नहीं रोकते, मंदिर निर्माता अपना इहलोक सुधारते हैं और जनता का परलोक। उनका प्रतिपाद्य यह है कि अक्षरधाम के 200 करोड़ से एक करोड़ शौचालय बनाये जाने चाहिए थे क्योंकि वह हमें रोगों से बचा सकते हैं।
मृदुला गर्ग के ये विचार इतने निजी हैं कि उन्हें सार्वजनिक करने का कोई औचित्य नहीं था। वे अक्षरधाम मंदिर के स्थान पर शौचालय बनाने का प्रस्ताव करती हैं तो वह खुद इस काम को शुरू क्यों नहीं करती हैं? वे स्वयं करोड़पति हैं, करोड़ों के मकान में रहती हैं और सुना है कि उनके घर में मंदिर भी है, तब वे अपनी सम्पत्ति तथा अपने मकान से शौचालय का निर्माण शुरू क्यों नहीं करतीं? वे यदि ऐसा कुछ चाहती हैं, जैसा उन्होंने लिखा है, तो इस पुण्य-कार्य को उन्हें अपने घर से आरम्भ करना चाहिए। मैं जानता हूं वे “पर उपदेश कुशल बहुतेरे” नहीं हैं। मृदुला जी को मंदिरों से यदि इतनी ही घृणा है तो उन्हें सैकड़ों मंदिरों के निर्माता बिड़ला जी के साहित्यिक पुरस्कार लेने वाले लेखकों की भी भत्र्सना करनी चाहिए। मृदुला गर्ग मंदिर को शौचालय में बदलना चाहती हैं, पर क्या वे मस्जिद और चर्च के साथ भी इसी नीति की घोषणा करेंगी? उनमें यही वास्तविक साहस है तो वे दूसरे मत-पंथों के पूजास्थलों के सम्बन्ध में ऐसा वक्तव्य देकर दिखायें? वे जिस पंथनिरपेक्षता का लबादा ओढ़ रही हैं, वह हिन्दू धर्म पर ही हथियार चलाता है। उन्होंने देश के बहुसंख्यक हिन्दू समाज की आस्था पर चोट की है, मेरी आस्था पर भी चोट की है। मंदिर के स्थान पर शौचालय की कल्पना ही मुझे व्यथित और उद्वेलित करती है। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है, एक व्यक्ति द्वारा करोड़ों लोगों की आस्था पर जोरदार प्रहार है।
वे मानती हैं, मंदिर परलोक सुधारने का प्रलोभन देता है। वे तो मंदिर नहीं जातीं तो उन्हें कैसी चिंता है? आप दूसरों को रोकने वाली कौन हैं? वे कहती हैं, मंदिर जाने वाले काली करतूतों में उस्ताद होते हैं। किन्तु मस्जिद या चर्च में जाने वाले कैसे होते हैं, मृदुला जी इसे लिखने में क्यों भयभीत हैं? उनका यह वक्तव्य भी आपत्तिजनक है। मंदिर में जो भक्त जाते हैं, उन्हें आप गुंडे-बदमाश कहें, काली करतूतों वाले कहें तो आप ऐसा लांछन लगाकर हिन्दू धर्म को अपमानित करती हैं और उसे असामाजिक लोगों का धर्म बताती हैं। मृदुला जी जब मंदिर नहीं जाती हैं तो भी वे अपने भव्य मकान में बैठे-बैठे ही गुंडे-बदमाशों को पहचान लेती हैं। उन्हें इसकी तकलीफ है कि राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री ने अक्षरधाम मंदिर का उद्घाटन क्यों किया। मंदिर पूरे राष्ट्र का है, अत: राष्ट्रनायकों के जाने पर उन्हें प्रसन्न होना चाहिए था। पर वे हिन्दू धर्म को इस सरकारी संरक्षण से व्यथित हो उठी हैं। उन्हें चाहिए था कि वे इसके विरोध में जन्तर-मन्तर पर सत्याग्रह करतीं या मंदिर के द्वार पर बैठकर विरोध करतीं, पर वे अपने आचरण को विचारों के अनुकूल नहीं बनातीं। उनकी एक आपत्ति यह है कि सरकार जनसंख्या विस्फोट को रोकने में रुचि नहीं रखती है। ऐसी स्थिति में उन्हें उन पंथों तथा जातियों के विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए जो देश की जनसंख्या बढ़ा रहे हैं। उन्हें कम-से-कम इसके लिए कुछ सुझाव ही दे देने चाहिए थे। देश के कुछ प्रदेशों में करोड़ों बंगलादेशी आकर देश की जनसंख्या बढ़ा रहे हैं, उनके बारे में मृदुला जी क्यों नहीं सोचतीं? वे यह भी लिखती हैं कि अक्षरधाम जैसे मंदिरों के निर्माता अपना इहलोक सुधारते हैं, अर्थात एकत्र धन में से अपरिमित धन खा जाते हैं। उनके पास इसका कोई प्रमाण है या उन्हें हर हिन्दुस्थानी, विशेष रूप से धार्मिक हिन्दू, बेईमान नजर आते हैं। देश के नेता इतने वर्षों से जनता का धन लूट रहे हैं, और विदेशी पंथों के प्रचार के लिए अरबों रुपया बाहर से आता है, उस लूट तथा देशद्रोही काम पर वे क्यों चुप रहती हैं? यह खेदजनक है कि वे मंदिर की जगह शौचालय बनवाना चाहती हैं। उन्हें इसके लिए अस्पताल, स्कूल आदि क्यों याद नहीं आये?
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