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दोराहे पर श्रीलंका
लिट्टे के विरुद्ध भारत से सैन्य मदद की आस
– प्रमितपाल चौधरी
श्रीलंका शांति समझौते के नार्वेजियाई पर्यवेक्षकों ने हाल ही में जो कहा वह हर उस देश के राजनयिक पिछले दो महीनों से लगातार कहते आ रहे हैं जिनका श्रीलंका से थोड़ा-बहुत हित जुड़ा हुआ है। क्या है वह बात? उन नार्वेजियाई पर्यवेक्षकों ने कहा था कि इस देश पर लम्बे समय से शिथिल पड़े गृह युद्ध के फिर शुरू होने का खतरा मंडरा रहा है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय और अधिकांश श्रीलंकाई भी मानते हैं कि भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जो श्रीलंका में हिंसा की वापसी को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की स्थिति में है।
आखिर श्रीलंका अचानक गृह युद्ध की दहलीज पर कैसा आ खड़ा हुआ है? इस बारे में कई तरह के मत सामने आए हैं।
लिट्टे प्रमुख वी. प्रभाकरन की मंशा भांपना कोई मुश्किल बात नहीं है। पिछले कुछ महीने उसके लिए अच्छे नहीं गुजरे हैं, खासतौर पर उसके एक निकट सहयोगी “करूणा” द्वारा संगठन के भीतर उसके खिलाफ बगावत बुलंद किए जाने के बाद तो उसकी मुश्किलें बढ़ी ही हैं। लम्बी खिंचती शांति प्रक्रिया के कारण संगठन पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखना उसके लिए खासा मुश्किल साबित हो रहा है। नवम्बर में उसने कहा था कि सुनामी ने गृह युद्ध फिर से शुरू करने की उसकी योजना को बाधित कर दिया था।
लिट्टे के लिए समस्या यह भी है कि वह खुद को शांति प्रक्रिया को भंग करने का जिम्मेदार दिखाना गंवारा नहीं कर सकता। यह अंतरराष्ट्रीय समुदाय की ताकत को लेकर लिट्टे की चिंता ही प्रदर्शित करता है। प्रभाकरन इस बात को लेकर भी विशेष तौर पर चिंतित है कि कहीं यह भारतीय सैन्य कार्रवाई को आमंत्रित न कर दे।
महेन्द्र राजपक्षे के राष्ट्रपति पद पर चुनाव ने लिट्टे को एक अच्छा बहाना उपलब्ध करा दिया। महेन्द्र राजपक्षे, जो पिछले दिनों भारत की अपनी पहली राजकीय यात्रा पर आए थे, ने कट्टर सिंहली दृष्टिकोण अपनाया, जिसमें विशिष्ट प्रकार का श्रीलंकाई राष्ट्रवाद और धुर माक्र्सवादी दर्शन, दोनों का मिश्रण था। उन्होंने संघीय समाधान का विरोध किया, जिसे अब तक तमिलों के प्रति कोलम्बो की ओर से संभावित न्यूनतम राजनीतिक छूट की तरह देखा जा रहा था। उन्होंने उदारवादी तमिल राजनीतिक दलों को हाशिए पर रखते हुए खुद को कट्टर जे.वी.पी. पार्टी के पाले में खड़ा कर लिया।
पिछले कुछ सप्ताहों के दौरान लिट्टे ने श्रीलंकाई सुरक्षाकर्मियों के विरुद्ध संघर्ष और हमलों की गति धीरे-धीरे बढ़ाई है। इसका मकसद राजपक्षे के अपने वचन की परीक्षा और उन्हें तमिल आतंकवादियों के विरुद्ध हमला करने को उकसाना ही दिखाई देता है। अगर लिट्टे यह तर्क देने की स्थिति में है कि उस पर शांति प्रक्रिया को खत्म करने का दोष नहीं मढ़ा जा सकता तो कम से कम वह बंटे हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय पर कुछ उम्मीद तो रख ही सकता है।
राजपक्षे की भारत यात्रा का कम से कम एक परिणाम तो सामने आया, और वह है सिंहली नेता के पहले के आक्रामक रुख में थोड़ा लचीलापन आना। पहली बार उन्होंने समाधान के एक पहलू की तरह समस्या को मिलकर सुलझाने सम्बंधी बात की। भारत को शांति प्रक्रिया से सीधे जोड़ने की कोशिश के बाद यह स्थिति बनी है। और इस जुड़ाव में यह समझ भी निहित है कि अगर शांति प्रक्रिया टूटने लगे तो भारत को इसके बचाव में सैन्य दखल के बारे में कम से कम विचार तो करना ही चाहिए।
श्रीलंका में भारत का रणनीतिक लक्ष्य बहुत सीधा सा है: शांति प्रक्रिया जारी रखी जाए और चुपचाप दोनों पक्षों पर आवश्यक समझौतों का दबाव बनाया जाए जो गृह युद्ध के राजनीतिक समाधान का रास्ता साफ करे। इसमें सिंहलियों और तमिलों को एक संघीय समाधान स्वीकार करने की ओर बढ़ाना भी शामिल है।
असली समस्या है कि दोनों श्रीलंकाई पक्ष जानते हैं कि भारत की असली ताकत उसकी सैन्य कार्रवाई की सामथ्र्य में निहित है। भारत ऐसा पहले करके दिखा चुका है जिसके मिले-जुले परिणाम रहे थे। अगर बीते कुछ सालों में लिट्टे ने अपनी बंदूकें कमोबेश खामोश रखी हैं तो इसका कारण इतना भर है कि नई दिल्ली ने फिर से दखल देने के सम्बंध में धुंधलके की स्थिति बनाई हुई है। भारत के अगले कदम के बारे में अनिश्चितता के कारण ही लिट्टे ने युद्ध छेड़ने की अपनी योजना पर लगाम लगा रखी है।
राजपक्षे सिंहली भावना के उस पक्ष को इंगित करते हैं जो मानता है कि शांति प्रक्रिया ने लिट्टे को कुछ ज्यादा ही छूट दे दी है, पर वे यह भी चाहते हैं कि अगर बात बिगड़ती है तो भारत गारंटी दे कि इसके जवान ही लिट्टे को काबू करेंगे।
पहले जब भारत ने श्रीलंका में सैन्य दखल दी थी तब इसको बहुत कुछ झेलना पड़ा था। लेकिन अगर भारत खुद को एक बड़ी ताकत के रूप में स्थापित करना चाहता है तो इसे एक बार फिर श्रीलंका के बिखराव की स्थिति में दखल देने के लिए तैयार रहना चाहिए। लेकिन यह तब की बात है जब कोई अन्य रास्ता न बचे।
राजपक्षे के उदार दृष्टिकोण की तरफ बढ़ते रुख को देखकर अभी तो लगता है कि कूटनीति के सफल होने की उम्मीदें कम ही हैं। जो बात अभी अनिश्चित है और जहां भारत को एक कठोर संदेश देना पड़ेगा, वह यह है कि क्या लिट्टे मानता है कि उसके पास कोलंबो की सत्ता के साथ युद्ध करने का मौका है?
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