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सम्पादकीय

by
Jul 5, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Jul 2006 00:00:00

न्याय और धर्म का प्रतिष्ठा के लिए जैसे संत की पवित्रता आवश्यक है, वैसे ही योद्धा की तलवार भी।-अरविंद (दि डाक्ट्रिन आफ पैसिव रेसिस्टेंस,दी मारलिटी आफ बायकाट)सरकारहीनता की स्थितिकेन्द्रीय सरकार में मची आपाधापी और प्रधानमंत्री को नीचा दिखाने की उनके ही मंत्रीमंडलीय वरिष्ठ सहयोगी द्वारा की जा रही कोशिशों का खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है। भारत विश्व परिदृश्य में तो क्या, अपने आस-पड़ोस में भी क्षेत्रीय शक्ति के रूप में कभी इतना कमजोर और प्रभाहीन नहीं हुआ था जितना आज है। यदि वामपंथियों के कारण सरकार की आर्थिक व विदेश नीतियां लड़खड़ा रही हैं तो अर्जुन सिंह जैसे संभवत: स्वयं प्रधानमंत्री न बन पाने की कसक वर्तमान प्रधानमंत्री को अस्थिर करके निकालना चाहते हैं। परंतु इस क्षुद्र राजनीतिक खेल में देश का शासन तंत्र नेतृत्वहीन, दिशाहीन और नियंत्रणहीन हो गया है। नेपाल में स्थिरता के लिए भारत की कोशिश नाकामयाब हुईं और आज स्थिति यह है कि आम नेपाली नागरिक व नेता भारत से कोई आशा नहीं रखते बल्कि चीन और अमरीका की ओर अधिक विश्वास के साथ देखते हैं, तो इससे अधिक हमारे लिए राजनयिक विडंबना और क्या हो सकती है?उधर श्रीलंका में लिट्टे के आक्रमण वहां की राजनीति को अस्थिर कर रहे हैं। सेनाध्यक्ष पर ताजा हमला स्थिति की गंभीरता को दर्शाता है। लेकिन श्रीलंका में भारत की भूमिका को अब कोई मान्यता भी नहीं देता। वहां न केवल नार्वे जैसा देश प्रमुख भूमिका निभा रहा है बल्कि पाकिस्तान और इस्रायल जैसे देशों की भूमिकाएं भारत से अधिक बढ़ गई हैं।बंगलादेश भारतीय सुरक्षा, राजनीतिक संतुलन, भौगोलिक अखंडता के लिए सबसे बड़ा आतंकवादी खतरा बन चुका है। पर वहां के बारे में सरकार कुछ कर रही है या करना चाहती है, यह भी किसी को अंदाजा नहीं है।एक तरफ प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह सार्वजनिक रूप से घोषणा करते हैं कि देश की प्रतिभाओं को समान रूप से अवसर उपलब्ध कराएं जाएंगे ताकि वे देश की प्रगति में सहायक बनें, दूसरी ओर सरकार के एक मंत्री मंडल आयोग की दबी पड़ी सिफारिशों को पांच राज्यों में हो रहे चुनावों के बीच ही लागू करने की घोषणा कर देते हैं। इन सिफारिशों के अनुसार सभी केंद्रीय शिक्षा संस्थानों सहित भारतीय प्रबंधन संस्थान (आई.आई.एम.) तथा भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.) में अन्य पिछड़े वर्ग (ओ.बी.सी.) के अभ्यर्थियों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। फलत: देश में एक बार फिर प्रतिभा बनाम आरक्षण की बहस चल पड़ी है। दिल्ली में मेडिकल छात्र तो दो दिन तक आंदोलन करने के बाद अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले गए। आरक्षण विरोधी यह चिंगारी दिल्ली से उड़कर रोहतक, चंड़ीगढ़ तक फैल चुकी है। देशवासी चिंतित हैं कि कहीं यह भड़ककर शोला न बन जाए, पर केंद्र है कि प्रधानमंत्री से लेकर मंत्री तक “हम सरकार”, “हम सरकार” खेलने में मगन हैं। एक तरफ प्रधानमंत्री प्रतिभा के सरंक्षण की बात करते हैं तो दूसरी ओर भारतीय उद्योग परिसंघ के वार्षिक अधिवेशन में यह कहकर परोक्ष रूप से निजी क्षेत्र में आरक्षण की पैरवी करते हैं कि-“उद्योग जगत को अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को समझना चाहिए। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि विकास के लाभ से कोई भी वर्ग वंचित न रह जाए।” हालांकि इशारों में कही गई इस बात का उद्योगपतियों ने स्पष्ट रूप से विरोध किया और कहा कि यदि जोर-जबरदस्ती से निजी क्षेत्रों में आरक्षण लागू किया जाएगा तो उससे लाभ नहीं मिलेगा बल्कि कटुता बढ़ेगी। प्रधानमंत्री के इस बयान के हफ्तेभर बाद ही वाणिज्य और उद्योग मंत्री कमलनाथ हनोवर से बयान देते हैं कि नई उद्योग नीति निजी क्षेत्र में आरक्षण की जरूरत को ही समाप्त कर देगी। फिर विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने अर्जुन सिंह का खुलेआम विरोध करते हुए कहा, “ऐसा कुछ नहीं किया जाना चाहिए जिससे विश्व बाजार में प्रतिस्पद्र्धा के भारत के प्रयासों पर पानी फिर जाए। ऐसी कोई नीति नहीं बनाई जानी चाहिए जो अनुसंधान एवं विकास तथा शैक्षणिक संस्थानों के स्तर में कमी लाए, वह भी उस समय जब पश्चिमी देश हमारी इस योग्यता के लिए हमारी ओर उन्मुख हो रहे हों।” पर अर्जुन सिंह इससे विचलित नहीं दिखते। वे आरक्षण की आग पर राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए पूरी तरह तैयार हैं। भले ही उनके सहयोगी मंत्री अलग-अलग बयान दे रहे हों, पर उनका कहना है कि आरक्षण कानून को लागू करना सरकार की जिम्मेदारी है क्योंकि यह “मंत्रिमंडल” का निर्णय है। हां, वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि यह आरक्षण अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों पर लागू नहीं होगा। पर अर्जुन सिंह इस बात का जवाब नहीं दे रहे हैं कि उच्च शिक्षण संस्थानों में 22.5 प्रतिशत से बढ़कर जब आरक्षण 49.5 प्रतिशत हो जाएगा तो सामान्य वर्ग के विद्यार्थियों का क्या होगा? शिक्षण संस्थानों में स्थानों की संख्या बढ़ाकर भरपाई इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि फिर शिक्षकों की संख्या बढ़ाने की समस्या होगी जो सरकार के लिए संभव नहीं है।6

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