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गुरिल्लाओं से गुरिल्लाओं की तरह युद्ध करेंगे तोनक्सलवाद का विष मिटेगा- वरुण गांधी4सितम्बर, 1999 को आंध्र प्रदेश काडर के एक युवा आईपीएस अधिकारी चंदलवादा उमेश चन्द्र, जो नक्सलियों के विरुद्ध अपने अभियानों के लिए विख्यात थे, की नक्सलियों ने हत्या कर दी थी। अक्तूबर, 2004 में पीपुल्स वार ग्रुप ने 5000 एकड़ भूमि को “पुन: वितरण” के लिए चिन्हित किया, भूमि के स्वामियों और माइक्रोसाफ्ट से लेकर इन्फोसिस जैसी कम्पनियों तक को धमकी दी। जनवरी, 2006 में चार राजधानी एक्सप्रेस गाड़ियों को नक्सली धमकी के कारण गया के निकट रोक दिया गया था। पिछले 16 वर्षों में अकेले आंध्र प्रदेश में ही नक्सलियों ने लगभग 2000 नागरिकों, 500 सुरक्षाकर्मियों की हत्या की है और 200 करोड़ रुपए की संपत्ति को क्षति पहुंचाई है। बिहार में उन्होंने पुलिस के शस्त्रागार को लूटा, अपने साथियों को जेल से छुड़वा लिया और जहानाबाद शहर पर कब्जा कर लिया। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के प्रभुत्व वाले क्षेत्रों में पुलिसकर्मी तैनात ही नहीं होना चाहते हैं। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने नक्सल प्रभावित भारत के 13 राज्यों के मुख्यमंत्रियों के एक सम्मेलन में कहा, “यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि नक्सलवाद की समस्या आंतरिक सुरक्षा की सबसे बड़ी चुनौती है।”आखिर ये नक्सली कौन हैं? ये पीपुल्स वार ग्रुप (पीडब्ल्यूजी), माओवादी कम्युनिस्ट सेन्टर (एमसीसी), कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी), कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माक्र्सवादी लेनिनवादी) और जनशक्ति जैसे उग्र वामपंथी समूह हैं। इनका उद्देश्य गुरिल्ला युद्ध के द्वारा कम्युनिस्ट क्रांति करके संसदीय लोकतंत्र को उखाड़ फेंकना और चीन की तर्ज पर एक कम्युनिस्ट राज्य की स्थापना करना है। चारू मजूमदार के लेख उग्र वामपंथियों के वैचारिक आधार हैं। 1965-66 में मजूमदार ने तर्क दिया कि भारतीय प्रजातंत्र एक धोखा है इसलिए उन्होंने भारतीय राजनीति में माक्र्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी विचारों के मिश्रण को समानान्तर रूप से अपनाए जाने के लिए एक अवधारणा तैयार की। मजूमदार की पहल ने क्रांति आधारित कम्युनिस्ट राजनीति को बढ़ावा दिया। उनकी प्रस्तुति को “आठ ऐतिहासिक दस्तावेज” कहते हैं। 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी क्षेत्र में सशस्त्र जनजातीय लोगों के समूहों ने अपने को हथियारों से लैस किया और अपनी जमीनें वापस लेना शुरू कर दिया। यह लड़ाई मजूमदार समर्थित जनजातीय समूहों और सरकार के मध्य थी। “नक्सल” नाम नक्सलबाड़ी से बना है। यह जनजातीय विद्रोह 72 दिन तक चला और इसे “नक्सलबाड़ी विद्रोह” कहा गया। मजूमदार को 16 जुलाई, 1972 को कलकत्ता में गिरफ्तार किया गया और आठ दिन बाद पुलिस हिरासत में ही उसकी मृत्यु हो गई। उसी वर्ष आंध्र प्रदेश के कम्युनिस्ट नेता कोन्डापल्ली सीतारमैया ने उग्र वामपंथियों को पुन: संगठित किया।मजूमदार से पूर्व के दिनों में भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन मूलत: माक्र्सवादी-लेनिनवादी प्रेरित अथवा “पाश्चात्य” था। चारू मजूमदार ने माओवादी पद्धति के आधार पर इसे “पूर्वी रूप में ढालने” का प्रयास किया जबकि सीतारमैया ने “गांवों की ओर चलो अभियान” के माध्यम से कृषि आधारित कम्युनिस्ट क्रांतियों का प्रचार कर माओवादी दृष्टिकोण को “भारतीय रूप में ढालने” का प्रयास किया। 1980 में माओ के उलट उन्होंने वैध कम्युनिस्ट क्रांति के एकमात्र प्रकार के रूप में “वर्ग शत्रुओं” के पूर्ण विनाश को नकार दिया और बड़े संगठन बनाने पर जोर दिया। उन्होंने पीपुल्स वार ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) की स्थापना की, तबसे पीडब्ल्यूजी ने आंध्र प्रदेश के गांवों में सशस्त्र समूह बनाए हैं जिन्हें “रैडिकल यूथ लीग यूनिट” भी कहा जाता है। पीडब्ल्यूजी दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्रों में अपने आधार बनाता है जहां सुरक्षा एजेंसियों का पहुंचना कठिन होता है, फिर उन्हें गुरिल्ला क्षेत्र में बदल देता है। स्थानीय सरकारी तंत्र को समाप्त करने के पश्चात यह एक समानान्तर सरकार की स्थापना करता है जैसे कि “क्षेत्रवार कब्जा करना” और “शहरों को घेरना”। पीडब्ल्यूजी का उद्देश्य अपनी कम्युनिस्ट क्रांति को प्रारम्भ करना है जिसे यह “नई प्रजातांत्रिक क्रांति” (एनडीआर) कहता है। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि पीडब्ल्यूजी ने अपने संस्थापक सीतारमैया को निष्कासित कर दिया था। सीतारमैया की 12 अप्रैल, 2002 को गुमनामी में मृत्यु हो गई।सेन्ट्रल कमेटी (सीसी) पीडब्ल्यूजी में शीर्षस्थ नीति निर्धारक निकाय है। इसमें 21 स्थायी और 6 वैकल्पिक सदस्य होते हैं। इसकी दो शाखाएं हैं- राजनीतिक तथा सैन्य। सैन्य शाखा के शीर्ष पर एक “सेन्ट्रल मिलिट्री कमीशन” (सीएमसी) होता है। राजनीतिक शाखा के महासचिव मुपाला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति सीएमसी के भी महासचिव हैं। मिलिट्री कमीशन वर्तमान में प्रत्येक स्तर पर राजनीतिक समिति के समानान्तर है। सबसे निचले स्तर पर ग्राम सुरक्षा दस्ता (वीडीएस) है, जिसकी व्यवस्था एक सैन्य टुकड़ी के रूप में की जाती है। इस समूह की लड़ने वाली प्रमुख इकाई अथवा एक प्लाटून में 25 से 30 अत्यधिक प्रशिक्षित गुरिल्ला योद्धा शामिल होते हैं। दिसम्बर, 2004 में बनाए गए पीडब्ल्यूजी के युद्ध करने वाले दल को “पीपुल्स गुरिल्ला आर्मी” (पीजीए) कहते हैं। इसका अपना एक अलग झंडा तथा चिन्ह है। सशस्त्र उग्र वामपंथियों की संख्या लगभग 10,000 है और यह “रेड कारीडोर” कहे जाने वाले एक क्षेत्र में फैली हुई है, जो भारत के 27 प्रतिशत भूभाग को प्रभावित करता है। नक्सलवादी आंदोलन स्वेच्छानुसार हमला करने की क्षमता को बढ़ा रहा है। हजारों सशस्त्र गुरिल्ला योद्धा अब छिट-पुट हमले नहीं करते बल्कि बड़े पैमाने पर सशस्त्र हमले करने लगे हैं और उन्होंने सीमा पार से भी संबंध स्थापित कर लिए हैं। वर्ष 2001 में माओवादी कम्युनिस्ट सेन्टर (एमसीसी) और भारत, नेपाल, बंगलादेश तथा श्रीलंका के नौ अन्य नक्सली संगठन दक्षिण एशिया में उग्र वामपंथियों की गतिविधियों को एकीकृत तथा समन्वित करने के उद्देश्य से “कोर्डीनेशन कमेटी आफ माओइस्ट पार्टीज एंड आर्गेनाइजेशन्स” नामक एक अन्तरराष्ट्रीय महासंघ बनाने के लिए इकट्ठे हुए।नक्सली खतरे की पहचान करने और इससे तत्काल निपटने में सरकारों की विफलता तथा दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव ने नक्सलवाद को प्रभावी तथा उग्र करने में मदद की। जब राजनीतिक दलों को चुनावों में नक्सलियों के समर्थन की जरूरत होती है तो वे नक्सलवाद को एक सामाजिक समस्या कहते हैं। प्रधानमंत्री डा. सिंह ने हाल ही में नक्सलवाद से निपटने के लिए “दोस्तरीय नीति” अपनाने को कहा, जोकि नक्सलवाद को न केवल एक कानून एवं व्यवस्था की समस्या मानना है बल्कि नक्सलवाद को सीधे पिछड़ेपन से जोड़ना है। परन्तु सरकार नक्सलवाद को एक सामाजिक समस्या कैसे कह सकती है, क्योंकि इसके पास “सेन्ट्रल मिलिट्री कमीशन” है, जिसका उद्देश्य भारतीय प्रजातंत्र को उखाड़ फेंकना है? इसलिए सरकार को एक नक्सल विरोधी चार्टर बनाना चाहिए। प्रभावित राज्यों में सक्रिय सरकारी पहल प्रारम्भ की जानी चाहिए। यह एक त्रिस्तरीय पहल होनी चाहिए- शिक्षित करने का प्रयास, पुनर्वास का प्रयास तथा युद्ध।नक्सलवाद के असली चेहरे को बेनकाब करने के लिए विशेष प्रचार कार्यक्रम बनाए जाने चाहिए, जो यह दिखाएं कि यह विचारधारा अपहरण, बलात्कार, धन की उगाही (फिरौती) तथा हत्याएं करती है। नक्सली आंदोलन का वीभत्स रूप सामने लाना कठिन नहीं है। नक्सली अत्याचार की घटनाओं के वृत्तचित्र बनाकर लोगों को दिखाए जा सकते हैं। लोगों को नक्सलवाद तथा इसकी वास्तविकताओं के बारे में बताने के लिए शहरों तथा गांवों में बड़े-बड़े बोर्ड लगाए जाने चाहिए। नक्सलियों द्वारा अपने कार्यकर्ताओं के यौन शोषण करने के भी कई मामले सामने आए हैं। ग्राम स्तर पर ही इसे प्रकट किया जाना नक्सलियों के भर्ती क्षेत्रों को बंद कर देगा और युवाओं को गुमराह किए जाने को कठिन बना देगा। नक्सलियों की क्रूरता का पूरा तिथिवार विवरण और ग्रामीण आधारभूत ढांचे पर उनके हमलों को न केवल लोक-विरोधी बल्कि भारत-विरोधी तथा प्रगति-विरोधी प्रमाणित करते हुए इसे एक छोटी पुस्तक के रूप में स्थानीय भाषाओं में बनवाया और वितरित किया जाना चाहिए।दूसरे, समर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए एक पुनर्वास कार्यक्रम होना चाहिए और उनके पूर्व के साथियों के आक्रमणों से उनकी रक्षा का प्रावधान भी किया जाना चाहिए। समर्पण करने वाले नक्सलियों को समझाया जाना चाहिए और उन्हें व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर वापस समाज की मुख्यधारा में लाया जाना चाहिए। पुनर्वास कार्यक्रम तथा प्रचार जितना बेहतर होगा, उतने अधिक नक्सली उग्र वामपंथ को छोड़कर वापस लौटेंगे। साथ ही, सरकार को नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के ढांचागत विकास के लिए विशेष योजनाएं चलानी चाहिए। एक सर्वांगीण आर्थिक विकास स्वत: ही लोगों को नक्सलियों द्वारा दिखाए जाने वाली कम्युनिस्ट क्रांति की झूठी आशा के लालच से बचाएगा। पुनर्वास कार्यक्रम नक्सलियों के विरुद्ध युद्ध में मारे गए सुरक्षाकर्मियों के परिवारों के लिए भी होना चाहिए। प्रत्येक सुरक्षाकर्मी का कम से कम 10 लाख रुपए का बीमा करवाया जाना चाहिए।स्वयं माओ के शब्दों में कहें तो “बंदूक की भाषा को सब समझते हैं।” इसलिए केन्द्र में एक बहुआयामी विशेष कार्यदल बनाया जाना चाहिए जिसका उद्देश्य नक्सलियों से युद्ध करना हो। गुरिल्लाओं से गुरिल्लाओं की तरह युद्ध। सेना तथा अद्र्ध-सैनिक बलों में से ही लोगों को इस कार्यदल में शामिल किया जाना चाहिए। इसकी अपनी हवाई कमान भी होनी चाहिए। प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा बलों के शीघ्र पहुंचने के लिए अतिरिक्त हवाई पट्टियां बनाई जानी चाहिए। प्रभावित क्षेत्रों की उपग्रह से निगरानी किए जाने की भी आवश्यकता है।गुप्तचर एजेंसियों को अपनी सूचनाएं एकत्र करने की क्षमताओं में सुधार करना चाहिए और नक्सली नेताओं के बारे में सूचना प्राप्त करने के लिए नकद प्रोत्साहन योजना चलानी चाहिए। स्थानीय ग्राम स्तरीय रक्षा तथा गुप्तचर दल इस युद्ध रणनीति में सबसे प्रमुख हैं। नक्सलियों के छिपने के स्थानों तथा प्रशिक्षण स्थलों का पता लगाया जाना चाहिए। सरकार की युद्ध नीति में कार्यकर्ताओं से लड़ने की बजाय नेतृत्व को समाप्त करने की होनी चाहिए। नक्सली नेतृत्व को विशेष रूप से लक्ष्य बनाए जाने के लिए एक गुप्त रणनीति बनाई जानी चाहिए। गिरफ्तार किए गए नक्सली नेताओं को गुप्त रूप से उच्च सुरक्षा वाली जेलों में रखा जाना चाहिए ताकि जब कोई छुड़ाने का प्रयास करे तो किसी भी तरह के दबाव से मुक्त रहकर मुकाबला किया जा सके। नक्सली मुकदमों को निपटाने के लिए विशेष त्वरित अदालतें बनाई जानी चाहिए। आक्रमणों के अवसरों को कम करने के लिए नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से गुजरने वाली सड़कों तथा रेल लाइनों की निगरानी बढ़ाई जानी चाहिए। नक्सलियों के प्रभाव को दबाने के लिए न केवल राज्य की सीमाओं के साथ वाली सड़कों बल्कि पहाड़ों तथा मैदानों के साथ-साथ भी सुरक्षा को बढ़ाते हुए एक “अन्तर्राज्यीय नक्सली गतिविधि अवरोधक” योजना बनाई जानी चाहिए। यह नक्सलियों को एक दूसरे राज्य में जाने से रोकेगी और इस तरह वे एक ही स्थान पर घिर जाएंगे। सरकार को नक्सली नेतृत्व से गंभीर शांति वार्ता प्रारंभ करने से पूर्व व्यापक आत्मसमर्पण हेतु किसी कार्यक्रम का अच्छी तरह से प्रचार करना चाहिए, जिसका उद्देश्य सशस्त्र विद्रोह को समाप्त करना होना चाहिए। परन्तु शांति वार्ताओं से पहले सरकार को तीन शर्तें रखनी चाहिए- अपने कार्यकर्ताओं को शस्त्र रहित करो, युद्ध की क्षमता तथा प्रशिक्षण केन्द्रों को समाप्त करो और सैन्य कार्रवाइयां बंद करो। यदि ऐसी शांति वार्ता विफल हो जाती है तो सरकार को तुरंत ही उग्र वामपंथियों के विरुद्ध ऐसी नीति अपनानी चाहिए जिसमें कोई भी नक्सली गतिविधि बर्दाश्त न की जाए और नक्सली नेतृत्व को समाप्त करने के आदेश देने चाहिए। इससे नक्सलियों की आक्रमण करने की क्षमता को गहरा आघात पहुंचेगा। यदि भारत को एक संसदीय प्रजातंत्र बने रहना है तो नक्सलवाद के विष से तत्काल निपटना चाहिए, अन्यथा जैसे-जैसे भारत में नक्सलवाद फैलेगा, वैसे-वैसे जिस भारत को हम जानते हैं, वह लाल-झंडे द्वारा और अधिक धमकाया जाने लगेगा।9
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