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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक प. पू. श्री गुरुजी ने समय-समय पर अनेक विषयों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। वे विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने पहले थे। इन विचारों से हम अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ सकते हैं और सुपथ पर चलने की प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। इसी उद्देश्य से उनकी विचार-गंगा का यह अनुपम प्रवाह श्री गुरुजी जन्म शताब्दी के विशेष सन्दर्भ में नियमित स्तम्भ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। -संक्रियाशील और शक्तिवान बनोवर्तमान की शोकांतिका यह है कि देशभक्ति की भावना रखने वाले लोग निष्क्रिय हैं और अराष्ट्रीय प्रवृत्ति के लोग प्रचंड शक्ति के साथ काम कर रहे हैं। रावण ने सक्रिय होकर लड़ाई में तीनों लोक जीत लिए थे, जबकि जनक और दूसरे लोग बैठकर ब्राह्मचर्चा किया करते थे अथवा तपस्या में जीवन व्यतीत करते थे। धर्मात्मा श्रीराम के अवतार लेने के बाद ही परिस्थिति बदली। इसका कारण उनकी आत्यंतिक सक्रियता थी। वनवास के नाम पर उन्होंने समूचे देश में भ्रमण किया और बड़ी सेना एकत्रित कर रावण को पराजित किया। इसका अर्थ यही है कि केवल अच्छे बने रहना ही पर्याप्त नहीं होता। हमें क्रियाशील, शक्तिवान बनना चाहिए तभी बुराई को नियंत्रित किया जा सकता है।(साभार: श्री गुरुजी समग्र : खंड 9, पृष्ठ 141)4
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