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शिव ओम अम्बर
मनोहर श्याम जोशी
भावतरल मनोहर, संघर्षशील जोशी
अभिव्यक्ति-मुद्राएं
सड़कों पर मेरे पांव हुए कितने घायल,ये बात गांव की पगडण्डी बतलायेगी।सम्मान सहित हम सब कितने अपमानित हैं,ये चोट हमें जाने कितना तड़पायेगी।
-रमानाथ अवस्थी
एक सुदर्शन मुखाकृति हर कोई ओढ़े है,आंखें नीलम जैसी पर पलकों में नमी नहीं।संवेदन ही सुन्न कर दिया जहां मशीनों ने,वहां सभी कुछ मिल सकता है पर आदमी नहीं।
-चन्द्रसेन विराट
अधर-अधर को खोज रही है यूं भोली मुसकान,महानगर में जैसे कोई ढूंढे नया मकान।
-डा. कुंअर बेचैन
“कुरु कुरु स्वाहा” के फ्लैप पर प्रकाशित पंक्तियां हैं- उपन्यास का नायक है मनोहर श्याम जोशी, जो इस उपन्यास के लेखक मनोहर श्याम जोशी के अनुसार सर्वथा कल्पित पात्र है। यह नायक तिमंजिला है। पहली मंजिल में बसा है मनोहर- श्रद्धालु, भावुक, किशोर। दूसरी मंजिल में जोशी जी नामक इण्टेलेक्चुअल और तीसरी में दुनियादार श्रद्धालु “मैं” जो इस कथा को सुना रहा है।
जोशी जी के सुचर्चित उपन्यास के नायक के सन्दर्भ में प्रस्तुत की गईं उपर्युक्त पंक्तियां वस्तुत: उनके त्रि-आयामी व्यक्तित्व को समझने की कुंजिकाएं भी हैं। एक सहृदय साहित्यकार, एक तर्कनिष्ठ विश्लेषक और एक सफल पत्रकार के परस्पर विरोधी रूपों के मध्य सामञ्जस्य बिठाने वाले जोशी जी ने हिन्दी कथा-साहित्य में अभिनव प्रयोगों द्वारा तथा दूरदर्शन जैसे आधुनिक संचार माध्यमों में “हम लोग” तथा “बुनियाद” जैसे धारावाहिकों द्वारा ऐतिहासिक उपलब्धियों के स्वर्णिम मानक रचे।
साहित्यिक बिरादरी और सुधी पाठकों का समुदाय एक लम्बे समय तक उनके साहित्यिक अवदान की विशिष्टताओं को रेखांकित करता रहेगा। आज भी यदि उनका स्मरण करते हुए उपन्यासकार श्री कृष्ण बलदेव वैद कहते हैं कि जोशी जी के उपन्यासों में शीर्षक से लेकर अन्त तक भाषा के साथ एक क्रीड़ा का रिश्ता है, उनके उपन्यासों की ध्वनि उनके शीर्षकों के साथ ही शुरू हो जाती है जैसे हरिया हरक्यूलिस की हैरानी, तो अभिनेता ओमपुरी उनके उपन्यास “कसप” को सामान्य पात्रों के बीच उच्च उपलब्धियों की आकांक्षा का विराट रूप दिखलाने वाला उपन्यास मानते हैं। उनके पर्याप्त विस्तृत रचना-संसार में उपन्यास (कुरु कुरु स्वाहा, कसप, टटा प्रोफेसर, हरिया हरक्यूलिस की हैरानी, हमजाद, क्याप) भी हैं, व्यंग्य-संग्रह (नेताजी कहिन, उस देश का यारो क्या कहना) भी तथा कहानी- संग्रह भी (एक दुर्लभ व्यक्तित्व, कैसे किस्सागो, मंदिर घाट की पैड़ियां, एक पेच)। उन्होंने 21वीं सदी की पटकथा के लेखन का परिचय देने वाली एक पुस्तक के अलावा टी.वी. धारावाहिक हम लोग, बुनियाद, मुंगेरी लाल के हसीन सपने, कक्का जी कहिन, हमारी जमीन- आसमान, गाथा का लेखन ही नहीं किया भ्रष्टाचार, अप्पू राजा, पापा कहते हैं तथा हे राम जैसी फिल्में भी लिखीं। अपेक्षाकृत बाद में लिखे गये उनके तीन उपन्यासों वधस्थल, कपीश जी, कौन हूं मैं और गिनुवा के प्रकाशन की उनके पाठकों को प्रतीक्षा है। लखनऊ मेरा लखनऊ तथा रचनाओं के बहाने रघुवीर सहाय संस्मरण लिखकर श्री जोशी ने अपने समय के परिप्रेक्ष्य में स्वयं को और स्वयं के परिप्रेक्ष्य में अपने समय को विश्लेषित और विवेचित करने की सफल चेष्टा की है।
साप्ताहिक हिन्दुस्तान के सम्पादक के रूप में उनका पत्रकार वाला स्वरूप भी अपनी सजगता तथा जन-पक्ष धरता के लिए पर्याप्त सम्मानित रहा। उनकी आत्मकथात्मक कृति “लखनऊ मेरा लखनऊ” उनके कैशोर्य और यौवनकाल के संघर्षों तथा रूमानी प्रसंगों से हमारा परिचय कराते हुए हमारे समक्ष उस युग के साहित्यिक मूल्यों तथा अपमूल्यों का भी स्पष्टता के साथ उल्लेख करती है। इस स्तम्भ में आज इसी कृति के कुछ महत्वपूर्ण उद्धरणों द्वारा हिन्दीभाषी समाज तथा हिन्दी के साहित्यकारों की प्रकृति को निरुपित करने की चेष्टा की जा रही है। लखनऊ के तत्कालीन परिवेश का चित्रण करते हुए जोशी जी कहते हैं- जहां उर्दू और हिन्दी वालों में जबरदस्त मेलजोल था वहां जबरदस्त झगड़ा भी। इसकी एक वजह तो यह थी कि उर्दू वाले बतर्ज रघुपति सहाय फिराक आधुनिक हिन्दी साहित्य को खासा हास्यास्पद ठहराते थे। दूसरी और ज्यादा बड़ी वजह यह थी कि उर्दू वाले इस मुहिम का विरोध कर रहे थे कि उर्दू को हिन्दी की ही एक शैली मानी जाए और दोनों भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि अपना ली जाए, छात्रों को हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत उर्दू साहित्य भी पढ़ाया जाए। उर्दू वाले अलग लिपि की मांग पर अडिग थे। उर्दू वालों का तेवर यह था कि उर्दू जुबां तो आते-आते ही आती है। हिन्दी की कोई जुबान ही नहीं है, उसमें सब चलता है। समय साक्षी है कि हिन्दी की सहज सहिष्णुता और सर्वसमाहारी प्रकृति पुन: पुन: प्रवंचित हुई है। हिन्दी और हिन्दुस्थान दोनों को ही भाई लोगों ने धर्मशाला मान लिया है और उसके अलग-अलग कक्षों पर प्रेमपूर्वक आधिपत्य जमाकर उन पर अपनी अलग परिचय-पट्टिकाएं टांग रहे हैं!
तिमंजिले व्यक्तित्व वाले इस नायक की आत्मकथा में भी उसी सुपरिचित शैली का उपयोग हुआ है। उत्तम पुरुष “मैं” कथा का प्रवक्ता है जो भावतरल मनोहर और संघर्षशील जोशी जी का अन्य पुरुष के रूप में वर्णन उपलब्ध कराता चलता है। लखनऊ से दिल्ली आने के बाद की उनकी मन:स्थिति का एक चित्र द्रष्टव्य है- वह (जोशी जी) जब भी अमीर, आभिजात्य और अंग्रेजीदां किस्म के लोगों के बीच होते अपने को जनसाधारण का नुमाइन्दा मानकर उनसे वैर पाल बैठते। और जब जनसाधारण के बीच होते तो अपने तथाकथित आभिजात्य को याद करते हुए उन पर नाक-भौं सिकोड़ते। इस दुचित्तेपन के कारण ही उन्हें दिल्ली के उच्चवर्गीय कम्युनिस्ट हास्यास्पद और घृणास्पद दोनों ही प्रतीत होने लगे।
श्रद्धेय अमृतलाल नागर को अपने कथागुरु के रूप में स्वीकारने वाले मनोहर श्याम जोशी ने अपनी आत्मकथा में बड़े ही भावपूर्ण ढंग से उनका स्मरण किया है- “नागर जी की काफी विस्तार से इसलिए चर्चा कर दी है कि जोशी जी अपने को उनका शागिर्द मानते हैं और नागर जी से उन्हें बहुत प्यार मिला था।… जोशी जी नागर जी को एक यादगार शख्सियत मानते हैं। यादगार शख्स वह होता है जिसकी नकल उतारने की तबीयत हो और यादगार लेखक वह जिसकी पैरोडी करने को मन ललके। नागर जी दोनों ही थे। उन्होंने जोशी जी को एक यादगार सीख यह भी दी कि कान खोलकर सुनना सीखो मनोहर! भाषा पढ़ने से उतना नहीं आती जितना सुनने से।” और कथा लेखक मनोहर श्याम जोशी के इस कथन से अपनी पूर्ण सहमति प्रकट करते हुए इस आलेख को विराम देता हूं।
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