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चर्चा-सत्र

by
Jul 5, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Jul 2006 00:00:00

टी.वी.आर. शेनाय

कम्युनिस्टों का बढ़ता असर क्या रंग लाएगा?

विधानसभा चुनावों में अभी मतदान शेष है, मतगणना और विधायकों की शपथ की बात तो खैर जाने ही दीजिए। मगर इसके बावजूद एक बात बहुत कुछ साफ हो चली है: कम्युनिस्टों ने तीन महत्वपूर्ण स्थानों पर नियंत्रण जमा लिया है। इनमें से दो स्थान भारत की मुख्यभूमि की परिधि पर हैं- प. बंगाल, केरल और तीसरा है सीमा से सटा देश नेपाल। और कुछ कम या ज्यादा मात्रा में ये क्षेत्र योजनाबद्ध तरीके से सोनिया गांधी और उनके प्रधानमंत्री के रूप में चुने गए व्यक्ति द्वारा उपहार के तौर पर सौंपे गए हैं।

प. बंगाल से शुरू करें तो यह वाम मोर्चे की जीत का दृश्य दिखाता है या कहें जल्दी ही दिखाएगा। क्या यहां कभी माक्र्सवादियों के सत्ता से हटने की उम्मीद जगी थी? शायद थोड़ी धुंधली उम्मीद जगी थी जो कांग्रेस के तृणमूल कांग्रेस के साथ “महाजोट” बनाने पर टिकी थी। 2001 में तृणमूल कांग्रेस ने 30.66 प्रतिशत वोट प्राप्त किए थे, कांग्रेस को 7.98 प्रतिशत वोट मिले थे और भाजपा भी 5.19 प्रतिशत वोट पाने में कामयाब रही थी। यह आपस में मिलकर अच्छा खासा 43.83 प्रतिशत होता है, खासकर ऐसे में जब माकपा 36.59 प्रतिशत वोट ही जीत पाई थी। लेकिन माकपा और उसके सहयोगी दलों के वोट मिलकर 47.46 प्रतिशत हुए जिसमें भाकपा के 1.79 प्रतिशत, फारवर्ड ब्लाक के 5.65 प्रतिशत और आर.एस.पी. के 3.43 प्रतिशत वोट थे। (भाकपा को भाजपा से भी कम वोट कैसे मिले, यह तो कामरेड ही बता सकते हैं।)

ईमानदारी से कहूं तो भाजपा, कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस में आपसी तालमेल लगभग शून्य है। ये तीनों दल जिस तीखेपन के साथ अलग रहकर माकपा से लड़े थे अगर आपस में उतने तीखेपन से नहीं लड़े होते तो कौन कह सकता है, क्या हुआ होता। लेकिन आखिरकर राजनीति मे जितना खेल गणित का होता है उतना ही आपसी मेल जोल का होता है।

पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की जीत के प्रति आश्वस्त सोनिया गांधी को कम्युनिस्टों के खिलाफ तीखे भाषण देने की छूट मिल गई। लेकिन जब वे चुनाव प्रचार के लिए केरल जाती हैं तो वाममोर्चे की लचर नीतियों के खिलाफ एक शब्द तक नहीं बोलतीं। माकपा महासचिव प्रकाश करात ने एक साक्षात्कार दिया था जिसमें “समर्थन वापसी” शब्द प्रमुखता से बोले गए थे। जब कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री “प्रचार” के लिए केरल पहुंचे तब भी इन शब्दों की गूंज माहौल में मौजूद थी। और दोनों में से एक ने भी सीधे वाम मोर्चे की भत्र्सना करने का साहस नहीं दिखाया।

संकेत है कि कांग्रेसनीत संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा के पास बाहर से अब भी एक मौका है। मुख्यमंत्री ऊमैन चांडी और उनके सहयोगी केवल विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे हैं। केरल में वाममोर्चे की नीतियां-प. बंगाल में इसके प्रतिरूप से विपरीत-दशकों पहले के चलन से एक इंच आगे नहीं बढ़ी हैं। वी.एस.अच्युतानंदन एक अच्छे इंसान हैं पर अगर सत्ता उनके हाथ आती है तो केरल के बारे में सोचकर मुझे कंपकपी होती है। केरल के लिए सबसे अच्छा यही होगा कि ऊमैन चांडी सत्ता में लौटें।

केरल की मेरी पिछली यात्रा में, जिसे देखो वही वाममोर्चे को स्पष्ट बहुमत की बातें करता दिखा था । मुख्यमंत्री की विकास की बातों और माकपा की गुटबाजी के कारण आज, औसतन बहुमत की खुसरपुसर हो रही है। (इस बात की अफवाह है कि एक बार फिर अच्युतानंदन को उनके साथी कामरेड धोखा देने वाले हैं।) लेकिन तुरूप का पत्ता अब भी माकपा के हाथ में है यानी दिल्ली के कांग्रेसी मंत्रियों को उनकी कुर्सी से गिरा देने की ताकत माकपा के हाथ में अब भी है।

नेपाल की क्या खबर है? लगता है कि हिमालय के इस राष्ट्र में पिछले नाटकीय सप्ताह के कारण भारत की सुरक्षा को थोड़ा झटका लगा है। हम अब भी “पूर्ण राजशाही” और “संसदीय लोकतंत्र” को लेकर चहक रहे हैं। ये अब वास्तविक विकल्प नहीं हैं। नेपाल के सात दलों के उस बड़े गठबंधन को भूल जाएं। नेपाल के एक बड़े हिस्से पर माओवादियों का पहले से ही नियंत्रण है। उनके द्वारा मिठास भरी भाषा छोड़कर काठमाण्डू में अब एक और बड़ी भूमिका की मांग करने में कितना समय लगेगा?

मान लेते हैं कि सात दलों का गठजोड़ महाराजा को उनके सिंहासन से हटा देता है। ऐसे में जब माओवादी अपनी खूनी कार्रवाई जारी करेंगे तब क्या होगा? (मैं “जब” लिख रहा हूं न कि “यदि”।) क्या हताशा में डूबी शाही सेना मुकाबला कर पाएगी? या फिर हम युद्ध से पहले के जर्मनी की पुनरावृत्ति देखेंगे जब पूर्व राजशाही को हटाने वाले कमजोर गणतंत्र के कारण तानाशाही प्रभावी हुई थी?

नेपाल के संदर्भ में भारतीय विदेश नीति बहुत लचर रही। हम या तो माओवादियों के विरूद्ध जंग लड़ रहे राजा ज्ञानेंद्र का समर्थन कर सकते थे या हम पूरी ताकत के साथ लोकतांत्रिक दलों के साथ खड़े हो सकते थे। लेकिन मनमोहन सरकार ने इन दोनों में से कुछ नहीं करने का रास्ता चुना।

साउथ ब्लाक में मंत्रियों का अकाल देखते हुए, लगता है कि माकपा पोलित ब्यूरो सदस्य सीताराम येचुरी को भारत के विदेश मंत्री के रूप में काम करने की छूट दे दी गई। उनके ही निर्देश पर नई दिल्ली में ऐसे निर्णय लिए गए कि हिमालयी साम्राज्य में शेष बचे दोस्त भी निराश हो गए। माओवादी, जो बिहार से लेकर आंध्र प्रदेश तक सरदर्द बन चुके हैं-अब नेपाल में खुली जमीन मिलने के प्रति आश्वस्त हैं। क्या दिल्ली में किसी को चिंता है कि जब माओवादी खुलेआम अपनी गतिविधियां बढ़ाएंगे तब भारत की सुरक्षा पर क्या प्रभाव पड़ेगा? (27.04.06)

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