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मंथन

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Jun 8, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 08 Jun 2006 00:00:00

ब्रिटिश कूटनीति की विजय है आरक्षण सिद्धांत-5

राष्ट्रवाद के विरुद्ध त्रिसूत्री ब्रिटिश रणनीति

देवेन्द्र स्वरूप

बीसवीं शताब्दी के आंखें खोलते ही भारत में राष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद में खुला संघर्ष प्रारम्भ हो गया। 1857 के स्वातंत्र्य समर की विफलता और साम्राज्यवादी दमन से घायल व मूच्र्छित राष्ट्रवाद ने अपनी सांस्कृतिक इतिहास यात्रा में से पुन: प्राणदायक संजीवनी रस को खोजने का उपक्रम आरम्भ कर दिया। अथर्ववेद के पृथिवी सूक्त के “माता भूमि: पुत्रोऽहं पृथिव्या:” से लेकर पौराणिक काल में चार धामों की तीर्थयात्रा के द्वारा संस्कारित अखिल भारतीय भौगोलिक चेतना को देशभक्ति की आधुनिक शब्दावली में भारत माता की वन्दना के रूप में अभिव्यक्ति दी। देशभक्ति की भावना ही परतन्त्रता का अहसास और स्वतंत्रता की तड़प को जन्म देती है। और देशभक्ति का भाव अतीत के प्रति गौरव भावना, संस्कृति की महानता के बोध और मातृभूमि के प्रति पुत्र भाव में से ही जन्म लेता है। इस अभिव्यक्ति का स्वर 1858 से ही उठना आरंभ हो गया। 1858 में ही बंगाल के एक कवि रंगलाल वन्द्योपाध्याय ने अपनी रचना “पद्मिनी उपाख्यान” में एक देशभक्त की पीड़ा मुखरित करते हुए लिखा, “पराधीनता के अपमान के साथ कौन जीना चाहेगा? कौन अपने पैरों में पराधीनता की बेडियां पहनना चाहेगा?” 1867 में राजनारायण बोस और नब गोपाल मित्र द्वारा आयोजित वार्षिक “हिन्दू” या “राष्ट्रीय मेले” के लिए रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई सत्येन्द्र नाथ ठाकुर ने एक कविता रची जिसके बोल थे, “भारत की सन्तानो! एक साथ मिलकर एक स्वर से भारत मां का गौरव गान गाओ।” कुछ ही वर्ष बाद 1872 में हेमचन्द्र वन्द्योपाध्याय ने “भारत संगीत” नामक कविता में अपनी पीड़ा को उड़ेला, “संसार में हर कोई स्वतंत्र है, केवल भारत ही सोया पड़ा है।” भारत-भक्ति और स्वतंत्रता की इस कामना को ही आगे चलकर बंकिमचन्द्र चटर्जी ने “वन्देमातरम्” गीत का रूप दिया। यह गीत स्वतंत्र रूप में रचा गया था, जिसे आगे चलकर उन्होंने अपने “आनन्द मठ” उपन्यास का अंग बनाकर मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए सर्वस्व न्योछावर करने वाले संन्यासियों का युद्ध गीत बना दिया।

सांस्कृतिक चेतना

देशभक्ति, सांस्कृतिक गौरव और स्वतंत्रता की कामना का यह स्वर केवल बंगाल तक ही सीमित नहीं था। तीर्थयात्रा एवं पुराण कथावाचकों के द्वारा यह सांस्कृतिक चेतना धारा पूरे भारत में प्रवाहमान थी। हर क्षेत्र, हर भाषा में ऐसे स्वर उठे होंगे जो गम्भीर शोध के द्वारा एकत्र किए जा सकते हैं। किन्तु इतना तो सर्वज्ञात है कि स्वामी दयानन्द, बंकिम चन्द्र चटर्जी, स्वामी विवेकानन्द और लोकमान्य तिलक ने अपने स्वतंत्र प्रयासों से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अखिल भारतीय आधारभूमि तैयार की जिसमें से “स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर रहूंगा” जैसा राजनीतिक उद्घोष का जन्म हुआ। 1893 को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के राजनीतिक रूपान्तरण का आरम्भ बिन्दु कहा जा सकता है। उसी वर्ष स्वामी विवेकानन्द ने अमरीका की धरती पर खड़े होकर भारतीय संस्कृति की महानता की विजय पताका फहरायी, उसी वर्ष अरविंद घोष ने भारत लौटकर पाश्चात्य सभ्यता के 14 वर्ष लम्बे संस्कारों की पराजय का उद्घोष किया, उसी वर्ष इंग्लैंड की एनी बीसेन्ट ने भारत पहुंचकर घोषणा की कि “भारत को पश्चिम से नहीं, पश्चिम को भारत से सीखना है।” 1893 में ही लोकमान्य तिलक ने गणपति उत्सव को सार्वजनिक रूप देकर लोक जागरण का माध्यम बनाया और उसी वर्ष भारत की नियति ने मोहनदास करमचन्द गांधी को जीविकार्जन हेतु दक्षिण अफ्रीका में धकेल कर भावी महात्मा और नायक की पृष्ठभूमि तैयार की। तभी से कांग्रेस के भीतर “भिक्षावृत्ति बनाम पूर्ण स्वराज्य” का द्वन्द्व प्रारंभ हो गया। साम्राज्यवाद की सतर्क पैनी आंखें भारतीय राष्ट्रवाद के इस उभार को देखकर चिन्तित हो रही थीं। साम्राज्यवाद ने इस उभार को शैशवावस्था में ही कुंठित और प्राणहीन बनाने के लिए निम्नांकित त्रिसूत्री रणनीति उपनायी-

पहला : बौद्धिक मतिभ्रम पैदा करना। भारतीय राष्ट्रवाद के परिचायक “हिन्दू” शब्द को उसके भू-सांस्कृतिक अर्थ से हटाकर इस्लाम और ईसाइयत जैसे उपासना पंथों के समकक्ष उपासना पद्धति का रूप प्रदान करना। हिन्दू धर्म को ब्राह्मणवाद का पर्याय बनाकर क्रमश: “हिन्दू” शब्द के जनाधार को संकुचित करते जाना। हिन्दू शब्द को धर्मवाची अर्थ देकर “इंडियन” शब्द को सर्वधर्मीय व्यापक अर्थ में उछालना।

दूसरा: जाति और जनपद की इतिहास प्रदत्त चेतनाओं को परस्पर पूरक बनाने के बजाय परस्पर प्रतिस्पर्धी व विद्वेषी बनाना। इसके लिए नवोदित आर्य आक्रमण सिद्धान्त को लागू करके विभिन्न जातियों का आर्य-अनार्य नस्ल के आधार पर वर्गीकरण करना, उनमें ऊंच-नीच की स्पर्धा पैदा करना। अखिल भारतीय एकता के दो मुख्य सूत्रों-ब्राह्मण और संस्कृत भाषा के विरुद्ध जातिवादी और क्षेत्रवादी स्पर्धा को जन्म देना। इसके लिए उन्होंने “ब्राह्मण बनाम शूद्र व वनवासी” “आर्य बनाम द्रविड़” जैसे काल्पनिक विवादों को जन्म दिया। जाति और वर्ण व्यवस्था के गुण-कर्म आधार की जगह जनसंख्या को स्पर्धा का आधार बनाया।

तीसरा: भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध मुस्लिम पृथकतावाद एवं कट्टरवाद को हथियार बनाना। यह प्रक्रिया साम्राज्यवाद ने 1869 से ही प्रारम्भ कर दी थी।

इस त्रिसूत्री रणनीति के क्रियान्वयन के लिए साम्राज्यवाद ने जनगणना नीति, अंग्रेजी शिक्षा और सरकारी नौकरियों को प्रगति का लक्षण बनाने व भारतीय समाज की विविधता को स्पर्धी बनाने वाली तथाकथित संवैधानिक सुधार प्रक्रिया को माध्यम बनाया। वस्तुत: ये तीनों ही माध्यम परस्पर पूरक थे और अभिन्नत: गुंथे हुए थे। जनगणना नीति ने “हिन्दू” शब्द का अर्थान्तरण करने, उसकी सीमाओं को संकुचित करने, सिख जैसे संप्रदायों को प्रथक पहचान देने, जाति और जनपद की चेतना को नस्ली रंग देकर परस्पर स्पर्धी बनाने, गुण और कर्म के बजाय संख्या बल का बोध प्रबल करने, अंग्रेजी शिक्षा और सरकारी नौकरियों में तथाकथित अगड़ी जातियों को अपना प्रतिद्वन्द्वी समझने की पृवत्तियों को प्रबल करने में अहम भूमिका निभाई। जनगणना रपटों के आधार पर गजेटियर साहित्य, पूरे भारत के क्षेत्रश: जाति एवं जनजाति सर्वेक्षण में से उत्पन्न 30 खण्ड और गिर्यसन के निर्देशन में पूरे भारत का बहुखंडीय भाषा सर्वेक्षण आदि के रूप में विशाल सन्दर्भ साहित्य का सृजन किया गया, जिसने भारत की जातीय, भाषायी व क्षेत्रीय विविधता को आर्य-अनार्य नस्ली रंग दे दिया। यही साहित्य है जो आज भी भारतीय विश्वविद्यालयों में मानविकी विषयों में शोध का मुख्य सन्दर्भ स्रोत माना जाता है। इसी साहित्य के माध्यम से ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारतीय मस्तिष्क में विकृत बौद्धिक दृष्टि आरोपित की। हमारे विश्वविद्यालय इसी विकृत बौद्धिकता और दृष्टि को आज भी पैदा कर रहे हैं।

साम्राज्यवादी रणनीति

बीसवीं शताब्दी के प्रवेश द्वार पर खड़े होकर हबर्ट रिस्ले ने इस त्रिसूत्री साम्राज्यवादी रणनीति के क्रियान्वयन को पूरे वेग से आगे बढ़ाने की कोशिश की। 1901 की जनगणना में उसने “सामाजिक श्रेष्ठता या वरीयता का सिद्धान्त” प्रतिपादित कर जातीय स्पर्धा को संगठित होने की स्थिति उत्पन्न की। इसके साथ ही अखिल भारतीय एथनोग्राफिक सर्वेक्षण के निदेशक के रूप में पूरे भारत में थर्सटन, एथनोवेन, क्रूक, इ.ए. गेट आदि के सहयोग से आर्य-अनार्य रक्त के आधार पर जातियों एवं जनजातियों की बहुखंडीय जानकारी एकत्र करायी। उसके इस दूरगामी रणनीतिक बौद्धिक योगदान से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने उसे 1903 में भारत सरकार के गृहसचिव जैसा महत्वपूर्ण पद सौंप दिया। इस पद पर बैठकर रिस्ले ने ही लार्ड कर्जन को उदीयमान राष्ट्रवाद के विरुद्ध मुस्लिम पृथकतावाद को खड़ा करने के उद्देश्य से बंगाल का विभाजन करने की योजना प्रदान की। रिस्ले का बौद्धिक योगदान तो बहुचर्चित है पर उसके प्रशासकीय कारनामे अभी पूरी तरह प्रकाश में नहीं आये हैं। बहुत कम लोगों को पता है कि निजाम से प्राप्त किये गये मराठी भाषा बरार क्षेत्र को बम्बई प्रान्त के मराठी भाषी क्षेत्र के साथ मिलाने के बजाय हिन्दी भाषी मध्य प्रदेश के साथ मिलाने का सुझाव रिस्ले ने ही दिया था, क्योंकि वह मराठी भाषी समाज में लोकमान्य तिलक के प्रभाव एवं राष्ट्रीय चेतना की प्रबलता से भयभीत था। इसी रिस्ले को 1908 में इंग्लैंड बुलाकर भारत सचिव के कार्यालय में महत्वपूर्ण दायित्व दिया गया और उस पद पर रहकर 1909 में विनायक दामोदर सावरकर की गिरफ्तारी का जाल बिछाने का कार्य उसी ने किया था।

बंगाल के विभाजन के कुचक्र से आहत होकर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ने राजनीतिक विस्फोट का रूप धारण कर लिया। बंग-भंग विरोधी भावना का स्वदेशी आंदोलन में रूपान्तरण, लाल-बाल-पाल की त्रिमूर्ति के रूप में उसका अखिल भारतीय विस्तार, श्री अरविन्द का राष्ट्रीयता के दर्शनकार के रूप में आविर्भाव, कांग्रेस के भीतर उग्रवाद और चरमवाद का संघर्ष, 1907 में कांग्रेस का विभाजन आदि घटनाचक्र के विस्तृत विवेचन की यहां न आवश्यकता है और न स्थान। संक्षेप में इतना कहना पर्याप्त होगा कि राष्ट्रवाद के इस व्यापक जन स्वरूप से घबरा कर ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने मुस्लिम पृथकतावाद को विश्वास में लिया। वायसराय मिंटो ने अपनी पहल पर मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल का आयोजन कराया। 1906 में उसके लिए मुस्लिम लीग के नाम से एक संगठित मंच की स्थापना करायी। मुस्लिम पृथकतावाद के सहयोग से साम्राज्यवाद ने शूद्र वर्ण की जातियों एवं पहाड़ी जनजातियों को हिन्दू जनसंख्या से अलग करने का कुचक्र आगे बढ़ाया। वायसराय मिंटो के निजी सचिव ने आगा खां के नेतृत्व वाले मुस्लिम प्रतिनिधि दल का प्रतिवेदन तैयार किया और उस प्रतिवेदन में वायसराय से मांग की गई कि निचली जातियों को हिन्दू समाज का अंग न माना जाए। उनकी गणना अलग से की जाय। पहले बताया जा चुका है कि ब्रिटिश जनगणना नीति 1871 से ही इस दिशा में सक्रिय थी। वे हिन्दू समाज की सीढ़ीनुमा अखण्ड जाति व्यवस्था में कृत्रिम विभाजन रेखायें बनाने की दिशा में भी प्रयत्नशील थे। 1880 में ही विलियम हंटर ने आर्य-अनार्य रक्त के आधार पर हिन्दू समाज को तीन वर्गों में विभाजित कर दिया था।

सबसे बड़ी बाधा

उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ से ही ईसाई मिशनरियों ने अपने अध्ययन और अनुभव से यह पाया कि अकेला ब्राह्मण वर्ग ही सही अर्थों में अखिल भारतीय है। शेष तीनों वर्णों के अन्तर्गत आने वाली अनेकानेक जातियां एकाध क्षेत्र तक सीमित हैं। राजस्थान, महाराष्ट्र, आन्ध्र एक तमिलनाडु की क्षत्रिय जाति एक वर्ग का अंग होते हुए भी सामाजिक धरातल पर एक-दूसरे से अलग है। क्षेत्रश: उनके नाम भी अलग हैं। उनमें पारस्परिक वैवाहिक सम्बंध भी नहीं है। इन सबको जोड़ने वाली सामाजिक कड़ी है- वर्ण व्यवस्था और सांस्कृतिक कड़ी है- ब्राह्मण वर्ण, जो अपनी आध्यात्मिक-बौद्धिक शक्ति के कारण सबकी श्रद्धा केन्द्र है और पूरे भारतीय समाज को एक सांस्कृतिक चेतना से अनुप्राणित करता है। ईसाई मिशनरियों के समकालीन लेखन से स्पष्ट है कि ब्राह्मण समाज की बौद्धिक-दैविक तेजस्विता एवं भारतीय समाज में व्याप्त उसके प्रति गहरी श्रद्धा ही धर्मान्तरण के उनके प्रयासों में सबसे बड़ी बाधा थी। इसीलिए सीरामपुर बैप्टिस्ट मिशनरियों के अखबार “फ्रेन्डस आफ इंडिया” ने लिखा कि ब्राह्मण वर्ण के प्रति श्रद्धा को ध्वस्त करते ही भारतीय सभ्यता रेत के कणों के समान बिखर जाएगी। अत: ब्राह्मण विरोधी भावना को जगाना, गुण के संख्या बल को शैक्षणिक, सामाजिक एवं राजनीतिक स्पर्धा का आधार बनाना ब्रिटिश नीति का मुख्य लक्ष्य बन गया। इस स्पर्धा को खड़ा करने के लिए जनगणना नीति, अंग्रेजी शिक्षा, सरकारी नौकरियों में भर्ती व संवैधानिक सुधार प्रणाली को माध्यम बनाया गया।

1871 से ही तथाकथित निचली जातियों और वनवासी पहाड़ी जनजातियों को हिन्दू जनसंख्या से अलग करने का कुचक्र प्रारंभ हो गया था। वनवासियों के लिए “एनीमिस्ट” नामकरण चलाने की कोशिश की गई किन्तु उन्हें प्रकृति पूजा के आधार पर हिन्दू समाज से अलग सिद्ध करना बहुत कठिन था। अत: इस विषय को लेकर ब्रिटिश जनगणना अधिकारियों में आपसी मतभेद हमेशा बना रहा और एक ही जनजाति की संख्या विभिन्न जनगणनाओं में बदलती रही। हिन्दू समाज की तथाकथित निम्न या अस्पृश्य जातियों को एकसूत्र में पिरोने की दृष्टि से 1901 में एक नया शब्द फेंका गया “डिप्रेस्ड क्लासेज”। इस शब्द को अंग्रेजी पढ़े-लिखे समाज सुधारकों ने तुरन्त अपना लिया। 1906 में बम्बई प्रान्त में “डिप्रेस्ड क्लासेज लीग” नामक मंच की स्थापना भी हो गई। 1906 में ही मुस्लिम प्रतिनिधिमण्डल ने उनकी गणना हिन्दू समाज से अलग करने की मांग उठा दी। 1901 की जनगणना में “सामाजिक वरीयता के सिद्धान्त” की प्रतिक्रिया में जो बवंडर खड़ा हुआ और ब्राह्मण-क्षत्रिय वर्णों में सम्मिलित होने की जो होड़ प्रारंभ हुई उससे परेशान होकर ब्रिटिश शासकों ने मई 1910 में आदेश जारी किया कि 1911 की अगली जनगणना में “सामाजिक वरीयता” के आधार पर जातियों का वर्गीकरण न किया जाए। किन्तु साथ ही तथाकथित निचली जातियों को हिन्दू समाज से अलग करने हेतु 12 जुलाई 1910 को एक नया आदेश जारी किया गया कि इन जातियों को “डिप्रेस्ड क्लासेज” शीर्षक के अन्तर्गत अलग से गिना जाय। इसे 1906 की मुस्लिम मांग की पूर्ति के रूप में भी देखा जा सकता है और 1871 से चली आ रही ब्रिटिश नीति का मुस्लिम कंधों पर सवार होकर क्रियान्वयन। किन्तु इस आदेश का जाग्रत राष्ट्रवाद ने सुरेन्द्र नाथ बनर्जी जैसे नेताओं के नेतृत्व में इतना कड़ा विरोध किया कि ब्रिटिश सरकार को 10 दिसम्बर, 1910 का अपना यह आदेश वापस लेने की सार्वजनिक घोषणा करनी पड़ी। यहां उल्लेखनीय है कि 1910 में पहली बार वेलंटाईन चिरोल नामक एक अंग्रेज लेखक ने लाल-बाल-पाल की त्रिमूर्ति द्वारा प्रवर्तित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को “हिन्दू पुनरुत्थानवाद” नाम दे दिया जो आगे चलकर मुस्लिम पृथकतावाद और वर्तमान सेकुलरवादियों की प्रिय ढाल बन गई।

विभाजन रेखा

साम्राज्यवाद के सामने एक समस्या यह थी कि “डिप्रेस्ड क्लासेज” शब्द फेंक तो दिया पर उसके अन्तर्गत किन जातियों को रखा जाय, किनको नहीं। आखिर, अस्पृश्यता की विभाजन रेखा इस सीढ़ीनुमा अखंड संरचना में कहां खींची जा सकती है? अस्पृश्यता की विभाजन रेखा को खोजने के लिए वे अंधेरे में टटोल रहे थे। 1911 के जनगणना आयुक्त ई.ए. गेट ने सभी जनगणना अधिकारियों को एक परिपत्र भेजकर अस्पृश्य जातियों की पहचान के लिए दस सूत्र प्रदान किये,

1. जो जाति ब्राह्मणों का वर्चस्व नहीं मानती

2. जो ब्राह्मणों या हिन्दू गुरुओं से मंत्र नहीं लेती

3. वे वेदों को प्रमाण नहीं मानती

4. जो प्रमुख हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा नहीं करती

5. जो ब्राह्मणों को पुरोहित नहीं बनाती

6. अच्छे ब्राह्मण जिनका पौरोहित्य नहीं करते

7. जिनका हिन्दू मंदिरों में प्रवेश वर्जित है

8. जिनके स्पर्श या छाया से प्रदूषण होता है

9. जो अपने मुर्दों को गाड़ते हैं

10. जो गोमांस खाते हैं और गाय को माता नहीं मानते।

1917 में बंगाल सरकार ने गुप्त रूप से 31 समूहों की “दलित वर्गों” के अन्तर्गत पहचान करायी। इनमें से 21 निचली जातियां 6 पहाड़ी व वनवासी जातियां तथा 4 अपराधी जातियां थीं। ब्रिटिश सरकार ब्राह्मण से दूरी के आधार पर “डिप्रेस्ड क्लासेज” खोज रही थी, जबकि तथाकथित डिप्रेस्ड जातियां ब्राह्मण वर्ण में गिने जाने की मांग कर रही थीं। 1921 और 1931 की जनगणना रपटें ऐसे प्रतिवेदनों के उल्लेख से भरी पड़ी हैं। 1915 से भारत में गांधी जी के आगमन के बाद से राष्ट्रवाद ने विशाल जनान्दोलन का जो रूप धारण किया उससे जातिवादी चेतना का राष्ट्रवादी चेतना में तेजी से उन्नयन व विगलन हुआ। (क्रमश:) (28 जुलाई, 2006)

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