गवाक्ष कथा-कुम्भ की निष्पत्तियां शिवओम अम्बर
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गवाक्ष कथा-कुम्भ की निष्पत्तियां शिवओम अम्बर

by
Jun 8, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Jun 2006 00:00:00

अभिव्यक्ति-मुद्राएं

तुम सुधा को खोजते हो मैं अमिय ढुलका रहा हूं,

स्वर जहां पे मौन होते मैं वहां से गा रहा हूं।

इसलिए भाषा तुम्हारी और मेरी और राही,

तुम जहां को जा रहे हो मैं वहां से आ रहा हूं।

-लाखन सिंह भदौरिया “सौमित्र”

एक शाम रवि के प्रति दैन्य भाव जागा,

डूबने को चढ़ता है व्योम में अभागा।

रवि बोला और भला क्या होगा उसका जो,

पूरब में जन्म लेकर पश्चिम को भागा।

-उदयप्रताप सिंह

कदम-कदम पे जिन्दगी दर्द रही है झेल,

ज्यों सुरंग के बीच से गुजर रही है रेल।

-यश मालवीय

पिछले दिनों कोलकाता में भारतीय भाषा परिषद् के तत्वावधान में हिन्दी उर्दू कथा-कुम्भ का आयोजन सफलतापूर्वक सम्पन्न हुआ, जिसमें समकालीन कथा-जगत के अनेकानेक प्रभविष्णु हस्ताक्षरों की सार्थक उपस्थिति रही। भारतीय भाषा परिषद् की पत्रिका “वागर्थ” में इस आयोजन की विस्तृत रपट प्रकाशित हुई है। सम्पूर्ण आयोजन में चले विचार-मंथन के उपरान्त कुछ ऐसे निष्कर्ष सामने आये हैं तथा कुछ ऐसे वैचारिक आयाम प्रकट हुए हैं जिन पर चिन्तन-अनुचिन्तन हिन्दी जगत के लिए समीचीन होगा। यह उल्लेखनीय है कि आधुनिक साहित्यिक परिक्षेत्र में सर्वाधिक प्रचलित प्रत्यय स्त्री-विमर्श और दलित-विमर्श के सन्दर्भ में अधिकांश रचनाकारों का स्वर यही था कि विमर्शों को एक फैशन के रूप में लेना तथा कहानियों में उन्हें आरोपित करना उचित नहीं है।

नीलाक्षी सिंह का प्रश्न सम्यक् है- “स्त्री लेखन, पुरुष लेखन, दलित लेखन, सवर्ण लेखन क्यों? इनसानी लेखन क्यों नहीं? एक आम आदमी बनकर समाज को देखने की चाह से गुरेज क्यों?” इसी परिप्रेक्ष्य में मो. आरिफ द्वारा अपने सहज स्फूर्त भाषण में उठाये गये बिन्दु भी रेखांकित किये जाने योग्य हैं, उन्हीं के शब्दों में-

1. शमोएल साहब ने कहा कि उर्दू में दलित लेखन जैसी चीज न है, न ही उसकी उम्मीद की जानी चाहिए क्योंकि इस्लाम में सभी मुसलमान बराबर हैं, कोई ऊंच-नीच, कोई छोटा-बड़ा, कोई भेदभाव-छुआछूत नहीं है। मैं ऐसा नहीं मानता। बराबरी की सारी बातें मस्जिद के बाहर बेमानी साबित होती हैं। जमीनी हकीकत कुछ और ही है। मुस्लिम समाज जाति-व्यवस्था से उसी प्रकार जकड़ा हुआ है जैसे कि हिन्दू समाज। ऐसी पचास उपजातियों को तो मैं स्वयं जानता हूं जो मुसलमानों की पिछड़ी और दलित शाखाएं हैं। उच्च वर्ग के मुस्लिम इन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं। इनके यहां खाने-पीने से गुरेज करते हैं- शादी-ब्याह की तो बात छोड़िए। उर्द अदब, उर्दू कहानी में न इनके लिए कोई हमदर्दी है, न कोई स्थान।

2. उर्दू वाले अपने शब्दों के उच्चारण को लेकर बहुत संवेदनशील हैं, लेकिन हिन्दी के तमाम शब्दों को अपने ढंग से बोलते और लिखते हैं- जैसे ब्राह्मण को बिरहमन और कृष्ण जी को किशन जी कहते हैं जबकि उर्दू हिज्जे और हर्फ सिस्टम में इन्हें सही-सही उच्चारित करने की पूरी गुंजाइश है। हां, अंग्रेजी शब्दों के साथ वे ऐसी छूट नहीं लेते। ले भी नहीं सकते क्योंकि इससे उनके हंसी का पात्र बनने का खतरा है।

3. हिन्दी सम्पादकीय में, हिन्दी कहानी में, हिन्दी साहित्यिक चर्चाओं में जिस तरह गालिब, मीर, फिराक आदि को उद्धृत किया जाता है उसी तरह उर्दू वाले तुलसी या ऐसे ही बड़े हिन्दी शायरों से क्यों नहीं मदद लेते, उन्हें कभी-कभी क्यों नहीं “कोट” करते?

मैं आरिफ साहब को साधुवाद देना चाहता हूं कि उन्होंने उन प्रश्नों को सामने लाने की चेष्टा की जो मेरे जैसे तमाम साहित्य-पाठकों के चित्त में उभरते हैं। यदि कोई साहित्यिक समारोह सार्थक प्रश्नों को सफलतापूर्वक उठा पाता है तो वह अनायास उनके स्वस्तिकर समाधानों की पूर्व-पीठिका भी रच देता है।

हरकत न हुई ईंट कई बार उछाली

मुम्बई में घटित हाल की त्रासदी में दो बातें बहुत स्पष्टता के साथ उभरीं-मुम्बई के आम आदमी का चरित्र और भारतीय राजनीति के सत्ता-पुरुषों का चेहरा! मुम्बईवासियों के आचरण के नाम डा. कुंवर बेचैन का यह शेर-

कोई उस पेड़ से सीखे मुसीबत में अड़े रहना,

कि जिसने बाढ़ के पानी में भी सीखा खड़े रहना

और भारत के सत्ता-पुरुषों के नाम भी उन्हीं की अगली पंक्तियां-

मैं कितने ही बड़े लोगों

की नीचाई से वाकिफ हूं,

बहुत मुश्किल है दुनिया में

बड़े बनकर बड़े रहना।

एक ओर हताहतों की भारी संख्या हर संवेदनशील चित्त को गहन विषाद से भर रही थी और दूसरी ओर आतंकवादियों का सहयोग करने के लिए जिस मुस्लिम संगठन की ओर जांच करने वाली एजेन्सियां शक की उंगली उठा रही थीं, उसकी पैरवी करने के लिए कुछ राजनेताओं में होड़ लगी हुई थी। एक बार फिर बहुत याद आए दुष्यन्त कुमार-

जिन्दगानी का कोई मकसद नहीं है,

एक भी कद आज आदमकद नहीं है।

पेड़-पौधे हैं बहुत बौने तुम्हारे,

रास्तों में एक भी बरगद नहीं है।

बड़े लोगों की भयावह नीचाइयां निर्वसन होकर नृत्य करती प्रतीत हो रही थीं जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, उनके मंत्रिमण्डल के वरिष्ठ सदस्य तथा समाजवादी पार्टी के सचिव स्तर के नेतागण टी.वी. चैनलों पर “सिमी” को “क्लीन चिट” देते हुए उसके मुखर प्रवक्ता बनकर खड़े हो गए थे। अपेक्षाकृत उदार छवि वाले राजनेता पूर्व विदेशमंत्री सलमान खुर्शीद (प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष) ने भी निभ्रन्ति भाव से स्वीकार किया कि उच्चतम न्यायालय में वह बिना किसी हिचकिचाहट के सिमी के अधिवक्ता हैं।

तब चित्त में बार-बार उभरीं तुफैल चतुर्वेदी की पंक्तियां-

सियासी भेड़ियो, थोड़ी-बहुत गैरत जरूरी है,

तवायफ भी किसी मौके पे घुंघरू तोड़ देती है!

लेकिन कविता चीखती रहती है और ये देश अपने स्वनामधन्य नायकों के नेतृत्व में वैसे ही चलता रहता है, फिर कुछ दिनों बाद कहीं विस्फोट और फिर वही परम्परागत शोक प्रस्ताव! कभी-कभी सचमुच एक प्रश्नचिह्न कविता की आत्मा की गहराइयों से निकलकर सारे परिवेश को आक्रान्त करता हुआ प्रतीत होता है-

ये मुल्क है या दलदली तालाब है कोई,

हरकत न हुई ईंट कई बार उछाली? -रामावतार त्यागी

तलपट

फॉर्चून की 500 कंपनियों की सूची में भारतीय स्टेट बैंक शामिल

आर्थिक ताकत बनने की ओर अग्रसर भारत ने एक और उपलब्धि हासिल की है। देश के घरेलू प्रतिष्ठान भारतीय स्टेट बैंक (एस.बी.आई.) को विश्व की प्रतिष्ठित पत्रिका फॉर्चून ने इस वर्ष दुनिया की शीर्ष 500 कम्पनियों की सूची में शामिल किया है। फॉर्चून की सूची में स्थान पाने वाला भारतीय स्टेट बैंक देश का 6ठवां प्रतिष्ठान बन गया है। इससे पहले रिलायंस इंडस्ट्रीज, इंडियन आयल कारपोरेशन, भारत पेट्रोलियम कारपोरेशन लि., हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कारपोरेशन लि. तथा तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम इस सूची में शामिल हैं।

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