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रक्षा मंत्री बने एंटोनीचुनौतियों का ताजटी.वी.आर.शेनायए.के. एंटोनी के रक्षा मंत्री बनने की खबर का मैंने कुछ मिलजुली भावनाओं के साथ स्वागत किया। एक केरल का व्यक्ति होने के नाते मुझे खुशी हुई कि मेरे प्रदेश के किसी व्यक्ति ने इतना ऊंचा पद हासिल किया है (जहां तक मुझे याद है कृष्ण मेनन के बाद केरल से एंटोनी ही इस पद पर आए हैं)। और मैं इसलिए भी खुश हूं क्योंकि एंटोनी, जिन्हें मैं पिछले 40 साल से व्यक्तिगत रूप से जानता हूं, को उनकी ईमानदारी और “प्रभाव” से अलिप्त रहने की उनकी खूबी के कारण पुरस्कृत किया गया है।इसके साथ ही मुझे लगता है कि एंटोनी की अपनी कुछ खासियतें उन्हीं के खिलाफ आ खड़ी होंगी। पारदर्शिता के प्रति अपनी साख को लेकर बीते समय में उन्होंने न केवल संवेदनशीलता दिखाई है बल्कि लगभग अतिसंवेदनशील रहे हैं। इससे उन तत्वों के लिए आसानी हो सकती है जो उनको त्यागपत्र देने के लिए मजबूर करें और इसके कारण वे इतने सावधान हो सकते हैं कि कभी कभी प्रशासनिक निर्णयों में भी देरी हो सकती है। मुझे उम्मीद है कि एंटोनी की हर बारीकी पर खुद नजर रखने की प्रवृत्ति इस चुनौती भरे समय में रक्षा मंत्रालय को कमतर नहीं करेगी।एंटोनी की प्राथमिकता होगी भारत के सैनिकों, नौसैनिकों और वायु सैनिकों को सज्ज करना। मीडिया में मिग विमान को “उड़ता ताबूत” कहा जाने लगा है। यह भी अब कोई रहस्य नहीं है कि सेना स्वदेश निर्मित अर्जुन टैंक से खुश नहीं है; इस बात को लेकर संदेह है कि वह पाकिस्तान के टी-80 यू.डी. (यूक्रेन से खरीदा टैंक) और अलखालिद (चीनी सहयोग से निर्मित) के मुकाबले कैसा प्रदर्शन करेगा। भारत शस्त्रों के विकास और निर्माण के लिए पूरी तरह स्वदेशी कार्यक्रमों पर चलना चाहता है या दूसरे देशों के साथ सहयोग पर अथवा सीधे-सीधे बाहर से उपकरण खरीदना चाहता है?समस्या यह है कि रक्षा खरीद से जुड़ी हर चीज का पूरी तरह राजनीतिकरण हो चुका है। बराक मिसाइलों की खरीद को लेकर जार्ज फर्नांडीस के खिलाफ सी.बी.आई. द्वारा दायर मामला इसका ताजा उदाहरण है। इसने नौसेना अध्यक्ष एडमिरल अरुण प्रकाश को यह सार्वजनिक वक्तव्य देने पर मजबूर कर दिया कि बराक सबसे सटीक विकल्प था। इसने त्रिशूल मिसाइल को लेकर भारतीय रक्षा अनुसंधान अधिष्ठान के दावों पर मुसीबतों का पहाड़ खड़ा कर दिया है।रक्षा मंत्रालय में एंटोनी के पूर्ववर्ती प्रणव मुखर्जी ने इस पद से राजनीतिक कौशल को जोड़ा था। मगर जल्दी ही उन्हें पता लगा कि प्रशासनिक सिद्धता और राजनीति के बीच व्यवहार कितना मुश्किल है। रक्षा मंत्री के नाते मुखर्जी द्वारा दिए बयान ने “कारगिल ताबूत” विवाद में जार्ज फर्नांडीस को क्लीन चिट दी थी। यह सही कदम हो सकता है मगर इसके कारण मुखर्जी की अपनी पार्टी के ही कुछ लोगों की भवैं तन गई थीं। बराक मिसाइल मामला एंटोनी के राजनीतिक कौशल की परीक्षा होगी।समस्या का एक भाग तो यह है कि भारत ने रक्षा खरीद के पूरे मामले को ठीक से नहीं देखा है। 20 साल पहले राजीव गांधी ने “दलालों” पर पाबंदी लगा दी थी। व्यवहार में “दलालों” की लगातार बढ़ती सम्पन्नता एक ऐसा खुला रहस्य है कि ब्रिटेन के अखबार द इकोनामिस्ट ने कटाक्ष करते हुए दो लोगों की पहचान की थी, जिनमें से “एक का मध्य दिल्ली में होटल है; दूसरे ने एक कम खर्चे वाली विमान सेवा में अपना हिस्सा खुलेआम घोषित किया है।”प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह इस मूर्खतापूर्ण आडम्बर से इतने उकता चुके हैं कि वे रक्षा मंत्रालय में कुछ मात्रा में “उदारीकरण” लाना चाहते हैं। वे कुछ एजेंटों को पंजीकृत करने की छूट देना चाहते हैं ताकि वे लोग सार्वजनिक रूप से अपना दबाव बनाने का काम कर सकें (जैसा कि अमरीका में होता है)। लेकिन आखिर एक कांग्रेसी प्रधानमंत्री राजीव गांधी के फैसले को कैसे पलट सकता है?यह तय है कि इस मुद्दे पर भले कांग्रेस आलाकमान उन्हें हरी झण्डी दे दे, लेकिन विपक्ष प्रधानमंत्री को चैन से नहीं बैठने देगा। पहले तो कहा जाएगा कि वे संदिग्ध व्यापार को वैधता प्रदान कर रहे हैं। दूसरे, प्रधानमंत्री दशकों पुरानी स्वदेशी नीति को पलटने की कोशिश कर रहे हैं और विदेशी सामान लाने की शुरुआत करके भारत के अपने प्रयासों को कमजोर कर रहे हैं।राजनीतिज्ञ जो उठापटक करते हैं उससे तो उन्हें नहीं रोका जा सकता, मगर मुझे लगता है कि इस कीचड़ उछालने के खेल में भारत के सशस्त्र बलों ने अपनी तकनीकी प्रखरता खो दी है। आज हमारे सामने ऐसी परिस्थिति है जहां गुणवत्ता और परिमाण में हमारे स्वदेशी अनुसंधान और उत्पादन कमतर पड़ते हैं।कार्मिकों की भी जबर्दस्त कमी है। पिछले साल प्रणव मुखर्जी ने राज्यसभा को बताया था कि सेना में 12,099 अधिकारी कम हैं, नौसेना में 1,124 और वायु सेना में 429 अधिकारी कम हैं। साफ कहूं तो अधिकारियों को अपने पारिवारिक रिश्ते नातों और जीवन तक के त्याग के बदले में वेतन बहुत कम दिया जाता है। नए रक्षा मंत्री इस मुद्दे को किस तरह देखेंगे?अंतत:, रणनीतिक सिद्धांत की बात करें तो इसमें भी काफी बेसिरपैर की माथापच्ची होती है। हवाना से प्रधानमंत्री ने हमें कहा था कि पाकिस्तान अब हमारा आतंकवाद से मुकाबला करने में नया साथी है। एक महीने बाद टेलीविजन कैमरों के सामने प्रणव मुखर्जी हमें सूचित करते हैं कि आई.एस.आई. ने भारतीय सशस्त्र बलों में घुसपैठ कर ली है। इनमें से सही कौन है? इस बीच हमें चीन से दीर्घकालिक खतरे को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। बीजिंग की सत्ता ने बर्मा में बन्दरगाहों के अधिकार पा लिए हैं और वह पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत में ग्वादर बन्दरगाह बना रहा है। परिणाम यह होगा कि भारत के दोनों किनारों पर चीनी नौसेना को सुरक्षित तट मिल जाएगा। यह दिल्ली में चल रहे इस पसोपेश की ओर संकेत करता है कि भारतीय मंत्रियों की बजाए अमरीकी पाकिस्तान-चीन रिश्तों, खासकर ग्वादर को लेकर कहीं ज्यादा चिंतित हैं। रक्षा खरीद के मुद्दे का जहां तक सवाल है, एंटोनी की सौम्यता और असाधारण ईमानदारी एक सौगात है। लेकिन कुशल अधिकारियों की कमी और आपके प्यारे पड़ोसियों द्वारा पैदा की गईं रणनीतिक समस्याओं पर व्यापक स्तर पर सोचने का कौशल चाहिए।वाई.बी. चव्हाण और जगजीवन राम को छोड़कर ऐसा कोई नहीं दिखता जिसने कुछ बढ़े सम्मान के साथ यह पद छोड़ा हो। इस पद की जटिलताओं ने प्रणव मुखर्जी जैसे कुशल व्यक्ति तक को हताश कर दिया था। एंटोनी को बधाई दें, मगर उनके लिए कुछ प्रार्थना भी करें जिसकी उन्हें जरूरत पड़ेगी! (26 अक्तूबर, 2006)17
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