…और गीता के पर करती भाई परमानंद की पुस्तक पुन: प्रकाशित

Published by
Archive Manager

दिंनाक: 11 May 2006 00:00:00

यूरोप में फैलेगी हमारे धर्म की लहरपुस्तक परिचयपुस्तक का नाम – मेरा अंतिम आश्रय: श्रीमद्भगवद्गीतालेखक – भाई परमानंदप्रकाशक – प्रभात प्रकाशन, 4/19 आसफ अली रोड, नई दिल्ली-110002मूल्य – 200/- (सजिल्द), पृष्ठ -198असंख्य क्रांतिकारियों, हुतात्माओं, वीतरागियों, भक्तों एवं विद्वानों की कंठहार श्रीमद्भगवद्गीता का बखान वर्णनातीत है। स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी भाई परमानंद द्वारा प्रणीत यह पुस्तक “मेरा अंतिम आश्रय-श्रीमद्भगवद्गीता” उन्होंने अंदमान जेल में वीतराग अवस्था में लिखी थी। आज गीता प्राय: बौद्धिक उपासना- कर्मकांड का विषय बन गयी है। इसके विपरीत लेखक ने गीता को जिया, इसके रहस्य को उद्घाटित किया। यह पुस्तक सर्वप्रथम उर्दू में “गीता के राज” नाम से सन् 1921 में प्रकाशित हुई थी। हिन्दी में इसका पहला संस्करण “गीता अमृत” था। उसके बाद दूसरा संक्षिप्त रूपान्तर श्री धर्मवीर ने तैयार किया, जो सरस्वती श्रृंखला में “मेरे अंत समय के विचार” शीर्षक से प्रकाशित हुआ। अब यह पुस्तक नए कलेवर में प्रस्तुत है। इस संस्करण कीविशेषता यह है कि मूल ग्रन्थ में जिन श्लोकों का उल्लेख आया है, इसमें वे साथ-साथ पाद-टिप्पणी के रूप में दिये गये हैं। भाई परमानंद ने अपनी पुस्तक को अट्ठारह परिच्छेदों में विभक्त किया है। इसमें भी ज्ञान-मार्ग, भक्ति-मार्ग, कर्म-मार्ग, धर्म-अधर्म का विवेचन है। कर्तव्य की मीमांसा है। अज्ञानी मनुष्य पशुओं की तरह दु:ख उठाता है। उसे अपनी क्षमता का पता नहीं होता। आखिर इस अज्ञान का कारण क्या है? इसका समाधान गीता करती है, “यह तृष्णा हमारे सारे अज्ञान का मूल कारण है। तृष्णा कभी तृप्त नहीं हो सकती।” यहीं पर गीता ज्ञान-प्राप्ति का तरीका भी बताती है, “वही योगी जिसने तृष्णा को मार कर मन को अपने काबू में कर लिया है, ब्राह्मानंद को प्राप्त कर सकता है। अध्याय “ज्ञान-मार्ग” में अष्टावक्र और जनक के मध्य सम्पन्न धर्म-विवेचन को भी सारगर्भित रूप में प्रस्तुत किया गया है।भाई परमानंद ने राष्ट्रीय विषयों को भी मजबूती के साथ खंगाला है, जो समीचीन हैं। उनकी प्रासंगिकता अब भी है और भविष्य में भी बनी रहेगी। भाषा के महत्व को रेखांकित करते हुए लिखा है कि भाषा के बने रहने से राष्ट्रीयता बनी रहती है और उसके विनाश से राष्ट्रीयता विनष्ट हो जाती है।अठारहवां परिच्छेद “कर्तव्य” को समर्पित है। किस प्रकार अर्जुन ने श्रीकृष्ण के उपदेश को आत्मसात कर धर्म रक्षार्थ युद्ध किया। धर्म की रक्षा को राष्ट्रीय जीवन की रक्षा मानते हुए लेखक ने शास्त्रों की पंक्ति को उद्धृत किया है- “धर्म एवं हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षित:।” भारत पर पश्चिम के सांस्कृतिक दुष्प्रभाव से ममहित भाई परमानंद स्वधर्म-संस्कृति पर विश्वास रखने का आह्वान करते हुए लिखते हैं, “… मेरा विश्वास है कि इसकी एक लहर फिर यूरोप में फैलेगी और हमारे ज्ञान तथा विचारों में क्रांति उत्पन्न होगी।”दअजय कुमार मिश्र22

Share
Leave a Comment
Published by
Archive Manager