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-डा. विजयपाल सिंह
आज पुन:
द्रौपदी की लाज लुटती रही
मर्यादा मछली सी तड़पती रही,
और मैं-
धर्मराज युधिष्ठिर बना देखता रहा,
पांसे पर पांसा फेंकता रहा।
धृतराष्ट्र!
महाभारत तो हर युग की
कहानी हो गई है।
पर व्यूह भेदन कर सके जो
देश की तरुणाई कहां सो गई है?
सबका खून पानी हो गया है,
और हम सब-
परमहंस हो गए हैं।
सोचते हैं
क्या बनता बिगड़ता है,
जबरन या खुशी से
ले जाए कोई किसी की बेटी
आखिर खाने की चीज है!
रोटी, जर, जोरु, जमीन
सब समान हैं
इन्हें मिल बांट कर खाना चाहिए,
आखिर सभी तो इंसान हैं।
धन्य हैं हम!
सब कुछ देख रहे हैं
स्थित प्रज्ञ
घर जलाकर हाथ सेंक रहे हैं।
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