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सिर्फ चीत्कार …और बहरे कानहिरण्यमय कार्लेकर पत्रकारिता जगत में बहुत सम्मानित स्थान रखते हैं। सन् 1963 में बंगला दैनिक “आनन्द बाजार पत्रिका” के संवाददाता के रूप में अपना पत्रकार जीवन प्रारम्भ करने वाले श्री कार्लेकर वर्तमान में अंग्रेजी दैनिक “पायनियर” के सलाहकार सम्पादक एवं भारतीय प्रेस परिषद के वरिष्ठ सदस्य हैं। पूर्व में वे अंग्रेजी दैनिक “हिन्दुस्तान टाइम्स” के सम्पादक, “इण्डियन एक्सप्रेस” एवं “द स्टेट्समैन” के क्रमश: सह सम्पादक एवं सहायक संपादक रह चुके हैं। हाल ही में उन्होंने बंगलादेश में बढ़ती अराजकता एवं अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध जारी हिंसा पर बेबाक राय एवं तथ्यपरक साक्ष्यों के साथ “बंगलादेश-द नेक्स्ट अफगानिस्तान” नामक पुस्तक लिखी है। नाम से ही स्पष्ट है, लेखक ने बंगलादेश की वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक अवस्था का चित्रण करते हुए पाठकों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि कहीं सचमुच बंगलादेश दुनिया के नक्शे पर एक नए अफगानिस्तान के रूप में तो उदित नहीं हो रहा है। पुस्तक का प्रकाशन नई दिल्ली के “सेज पब्लिकेशन” ने किया है। 311 पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य 320 रु. है। यहां प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अनूदित अंश-बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बी.एन.पी.) के नेतृत्व में चार दलों के गठबंधन के सत्ता में आने के बाद स्थितियां और भी बदतर हो गई हैं। 1 अक्तूबर, 2001 को बंगलादेश में चुनाव परिणाम आने के पूर्व ही, हिन्दुओं पर (जो राजनीतिक दृष्टि से अवामी लीग के समर्थक माने जाते हैं) मानो कहर टूट पड़ा। चुनावी नतीजों से बी.एन.पी. के नेतृत्व वाला गठबंधन सत्तारूढ़ हो गया। बंगलादेश की राष्ट्रीय संसद में तत्कालीन गृहमंत्री द्वारा दिए गए एक वक्तव्य के अनुसार ही चुनावी नतीजा आने के 25 दिन के भीतर 266 लोग मारे गए और 213 महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया। यद्यपि यह संख्या ही बहुत भयावह है किन्तु मारे गए लोगों और बलात्कार की शिकार महिलाओं की संख्या इससे कहीं अधिक है। सरकार दंगों के शिकार लोगों की संख्या हमेशा ही कम दिखाने की कोशिश करती रही है, लेकिन 15,000 हिन्दू अपने घरों को छोड़ प. बंगाल में शरण लेने के लिए दंगों की विभीषिका के कारण ही बाध्य हुए। एक लाख अन्य हिन्दू अपना घर-बार न छोड़ें इसके लिए पुलिस एवं अर्धसैनिक बलों द्वारा भी कुछ नहीं किया गया। “इंडिया अब्राॉड न्यूज सर्विस” द्वारा हिन्दू-बौद्ध-ईसाई एकता परिषद द्वारा दिए गए आंकड़ों के आधार पर कहा गया है कि अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा में तीव्र वृद्धि हुई है। कुछ मामलों में तो हिंसा और अत्याचारों ने 1971 की बर्बरता को भी पीछे छोड़ दिया है। “द डेली स्टार” नामक अखबार में दक्षिण भोला की एक स्कूल अध्यापिका को यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि 8 से 70 वर्ष की सैकड़ों हिन्दू महिलाओं के साथ 2 अक्तूबर, 2001 को अन्नदा प्रसाद ग्राम में बलात्कार किया गया। गांव के सभी घर लूट लिए गए, हिन्दुओं को पलायन के लिए मजबूर किया गया। पैसे लेकर ही लोगों की जान बख्शी गयी। स्कूल अध्यापिका का यह कथन झूठा नहीं था और इसे बंगलादेश की प्रसिद्ध अधिवक्ता तथा मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता रोजलिन कोस्टा का यह वक्तव्य भी प्रमाणित करता है कि, “भोला में 98 प्रतिशत हिन्दू महिलाओं ने साक्षात्कार के दौरान बताया कि उनके साथ बलात्कार किया गया।” और जहां-जहां भी दंगे हुए, वहां यह कुकृत्य दोहराया गया। पुलिस ने पीड़ितों की शायद ही कहीं सहायता की। बजाय इसके अनेक स्थानों पर उसने गुण्डों का साथ ही दिया। “इंडिया अब्राड न्यूज सर्विस” की रपट के अनुसार, “बंगलादेश में 2001 के चुनावों के बाद अब तक 40 लाख अल्पसंख्यक हिन्दू किसी न किसी उत्पीड़न का शिकार हो चुके हैं। जैसोर में घटी साम्प्रदायिक हिंसा को उद्धृत करते हुए बंगलादेश दैनिक “प्रोथोम आलो” की रपट बताती है कि हिन्दू अभी भी भयाक्रांत हैं और चुपचाप उत्पीड़न सहने को विवश हैं क्योंकि उन्हें अहसास है कि यदि पुलिस या प्रशासन को कोई जानकारी दी तो उनका जीवन और भी असुरक्षित हो जाएगा।ढाका से प्रकाशित समाचार पत्र “डेली स्टार” में 11 मई, 2002 को छपे एक समाचार के अनुसार, “मोटर साइकिलों पर सवार 40 अपराधियों का एक समूह 8 मई की रात नातोर के बसन्तपुर गांव जा धमका। ये सभी बी.एन.पी. के समर्थक थे। गांव के 13 हिन्दू परिवारों पर इनका कहर बरपा। इन्होंने पहले हिन्दू पुरुषों की पिटाई की, घरों को लूटा, तहस-नहस किया, सारा धन, सोने-चांदी के गहने लूटकर ले गए और जाते-जाते धमकी भी दी कि यदि इसकी सूचना पुलिस को दी गई तो अगली बार हिन्दू महिलाएं बलात्कार के लिए तैयार रहें।”19 नवम्बर, 2003 को एक और दिल दहलाने वाली घटना प्रकाश में आई। बंसखाली उपजिले के एक सुदूरवर्ती गांव में 20 कट्टरपंथियों के एक समूह ने तेजेन्द्र सुशील नामक एक हिन्दू के दो मंजिले कच्चे मकान में आग लगा दी। तेजेन्द्र का 11 सदस्यीय परिवार, जिसमें 4 वर्ष की एक छोटी बच्ची भी थी, उस आग में जलकर राख हो गया। जहां कुछ लोग इसे डकैतों का किया-धरा बताते हैं वहीं अन्य लोग इसे अल्पसंख्यक नरसंहार की रणनीति का हिस्सा ही मान रहे हैं। ऐसा मानने वालों में विपक्ष की नेता और पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती शेख हसीना भी हैं। शेख हसीना के अनुसार, “ये नरसंहार उस “ब्लू प्रिंट” के क्रियान्वयन के प्रयासों का ही खुलासा करते हैं जिसे बी.एन.पी. के नेतृत्व वाली सरकार ने सत्तारूढ़ होते ही अल्पसंख्यकों के सफाए की योजना के अन्तर्गत निर्मित किया था।”12
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