|
उन्हें उन्माद नहीं, विवेक दोदेवेन्द्र स्वरूप”मैंअपने नेता और मुख्यमंत्री माननीय मुलायम सिंह से राय-मशविरा करके पूरे होशो-हवास में ऐलान करता हूं कि जो व्यक्ति डेनिश अखबार में रसूल-उल अल्लाह पैगम्बर का कार्टून बनाने वाले का सिर कलम करेगा उसे मैं 51 करोड़ रुपए और उसके वजन के बराबर सोने का इनाम दूंगा।”17 फरवरी (शुक्रवार) को सभी टेलीविजन चैनलों पर यह ऐलान लाखों-करोड़ों लोगों ने अपनी आंखों से देखा और कानों से सुना। यह ऐलान किसी मुल्ला-मौलवी का नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश की समाजवादी सरकार के हज मंत्री हाजी याकूब कुरैशी के मुख से निकला। धोखे से नहीं, बहुत सोच-विचारकर, क्योंकि बाद में कुछ टेलीविजन चैनलों के यह सवाल करने पर कि क्या भारतीय संविधान के प्रति शपथ लेने के बाद वे ऐसा फतवा जारी कर सकते हैं? हाजी याकूब ने जोर देकर कहा कि “मैं पहले मुसलमान हूं बाद में कुछ और। हम मुसलमान पैगम्बर की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर सकते। एक मंत्री के इस प्रकार किसी विदेशी नागरिक की हत्या की खुलेआम सुपारी देने की घोषणा से पूरा देश सकते में आ गया। सब तरफ से मांग उठी कि ऐसे मजहबी कट्टरवादी को मंत्री पद से या तो त्यागपत्र दे देना चाहिए या सरकार से बर्खास्त किया जाना चाहिए। पर सेकुलरिज्म के ठेकेदार और उत्तर प्रदेश के समाजवादी मुख्यमंत्री ने इस प्रश्न पर चुप्पी साध ली। वे अब तक कुछ नहीं बोले हैं और हाजी याकूब कार्टूनिस्ट के कत्ल का फतवा दोहराते जा रहे हैं। हां, मुख्यमंत्री के इशारे पर राज्य के गृह सचिव ने याकूब का बचाव किया और पुलिस ने हाजी के खिलाफ रपट लिखने से इंकार कर दिया।मुलायम की रणनीतिकुछ लोग हाजी याकूब के विरुद्ध जनहित याचिका लेकर न्यायालय की शरण में पहुंच गये हैं। किन्तु हाजी याकूब विरोध के इन स्वरों से बिल्कुल चिन्तित नहीं हैं। उन्हें यकीन है कि इस मुद्दे पर उनका विरोध ज्यों-ज्यों तीव्र होगा, त्यों-त्यों उनके मुस्लिम वोट पक्के होते जायेंगे और उनका राजनीतिक कैरियर इन विरोधियों पर नहीं मुस्लिम वोटों पर निर्भर करता है, जो अब पूरी तरह उनके पीछे खड़े हैं। कुछ लोगों का कहना है कि हाजी याकूब ने दूसरे समाजवादी मंत्री आजम खां को मुसलमानों के नेतृत्व से वंचित करने के लिए यह भावनात्मक मुद्दा पकड़ा है, क्योंकि पैगम्बर और कुरान के अपमान के मुद्दे पर मुस्लिम समाज में उन्माद जगाना बहुत सरल है। यह भी कहा जा रहा है कि हाजी याकूब से यह ऐलान कराने के पीछे मुलायम सिंह की सोची-समझी रणनीति है। उत्तर प्रदेश के मुस्लिम मतदाताओं को अपनी तरफ खींचने के लिये उनके और कांग्रेस के बीच जबर्दस्त रस्साकशी चल रही है। कांग्रेस ने सच्चर कमेटी, अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक चरित्र जैसे चुग्गे फेंके हैं तो उनके जवाब में मुलायम सिंह भारत सरकार के ईरान विरोधी वोट का विरोध करके, अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश की भारत यात्रा के विरोध में मुस्लिम उन्माद का नेतृत्व करके और हाजी याकूब के माध्यम से कार्टून-विवाद पर मुस्लिम आक्रोश का दोहन करके कांग्रेस को अल्पसंख्यकवाद के इस खुले खेल में परास्त करने की आशा रखते हैं। पहले उन्होंने अयोध्या के सवाल पर आजम खां को सामने खड़ा किया था अब वे हाजी याकूब को सामने कर रहे हैं। उनकी चुप्पी के पीछे यह डर भी हो सकता है कि यदि हाजी याकूब को मंत्रिमंडल से निकाला गया तो वे बागी हो जायेंगे और इस्लाम के लिए शहादत की छवि लेकर मुसलमानों के बीच और भी बड़े हीरो बन जायेंगे। तब कोई भी सेकुलर दल कांग्रेस या बसपा लपक कर उन्हें गले लगा लेंगे और हाजी याकूब के पीछे-पीछे मुस्लिम वोट बैंक समाजवादी पार्टी से दूर चला जाएगा। वे स्वयं इस दांव को पहले खेल चुके हैं। हाजी याकूब पहले बसपा के टिकट पर दलित-मुस्लिम गठबंधन के कन्धों पर सवार होकर विधायक बने थे, फिर समाजवादी पार्टी के टिकट पर यादव-मुस्लिम गठबंधन के कंधों पर सवार होकर। मुस्लिम वोट पक्के रहे तो किसी न किसी हिन्दू जाति का कंधा उन्हें मिल ही जाएगा।हाजी याकूब को एक व्यक्ति के रूप में नहीं, भारत की चुनावी राजनीति के वर्तमान चरित्र के प्रतीक रूप में देखा जाना चाहिए। इस राजनीति में एक ओर मुस्लिम समाज है, जो अभी भी फतवों पर जी रहा है, जिसे जुम्मे की नमाज के बाद कोई भी मुल्ला-मौलवी इस्लाम के अपमान के नाम पर उन्मादी भीड़ बनाकर सड़कों पर उतार सकता है। यदि अंग्रेजीदां आधुनिक जीवनशैली में ढले उदार मुस्लिम बुद्धिजीवियों के अनुसार इस्लाम सचमुच मानव एकता, शान्ति और सहिष्णुता का मजहब है तो जुम्मे की नमाज के बाद उसका यह रूप सामने आना चाहिए। किन्तु होता उल्टा है। जुम्मे की नमाज का इस्तेमाल मजहबी उन्माद के प्रदर्शन के लिए किया जाता है। इस ताजे कार्टून विवाद को लेकर हैदराबाद हो या बंगलौर, मेरठ-मुजफ्फरनगर हो या लखनऊ, हर जगह प्रदर्शनों के लिए शुक्रवार का दिन ही चुना गया। पूरे विश्व में कार्टून विवाद को लेकर जो प्रदर्शन हो रहे हैं, उससे एक बात साफ है कि भले ही मुस्लिम विश्व 57 मुस्लिम राज्यों में बटा हो, भले ही मुस्लिम शासकों और नेताओं के बीच आपसी प्रतिस्पर्धा हो, उनके राजनीतिक हितों में टकराव हो, किन्तु वैश्विक मुस्लिम उम्मा की एकता कुरान और पैगम्बर के प्रति अंधी भावुक श्रद्धा पर टिकी हुई है और कोई भी मुल्ला-मौलवी इस श्रद्धा का दोहन कर उन्हें हिंसक, विध्वंसक उन्मादी भीड़ में बदल सकता है। यह भावुक उन्माद पूरे गैर-मुस्लिम विश्व को अपना शत्रु मान कर अपने पड़ोसी गैर-मुसलमानों पर कहर बरपाने को तैयार हो जाता है। इस कार्टून विवाद को लेकर तुर्की, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और नाइजीरिया जैसे दूर-दूर के देशों में जो हत्यायें हो रही हैं उनका कार्टूनों से कोई सीधा रिश्ता नहीं है। हैदराबाद में जुम्मे की नमाज के बाद उन्मादी भीड़ ने अपना गुस्सा जिन हिन्दुओं की दुकानों व मकानों पर उतारा, क्या उनका डेनमार्क में छपे कार्टूनों से कुछ लेना-देना था?फतवों की राजनीतियह बहुत चिन्ताजनक स्थिति है कि विश्व भर में फैला हुआ डेढ़ अरब जनसंख्या वाला मुस्लिम मानस अभी भी अन्ध श्रद्धा और फतवों की राजनीति की गिरफ्त में है। कोई भी मुल्ला-मौलवी या राजनीतिक नेता गैर-मुस्लिमों की मौत का फतवा जारी कर सकता है और इस्लाम के नाम पर गैर-मुसलमानों की हत्या सबाब (पुण्य) मानी जा सकती है। इस कार्टून विवाद को लेकर ऐसे फतवे जारी करने की होड़ सी लग गयी है। हाजी याकूब के बाद बिहार के भवन निर्माण मंत्री मोनाजिर हसन, जो जनता दल (यू) के विधायक हैं, ने ऐसा ही फतवा दोहराया है। दिल्ली में मुस्लिमबहुल मटिया महल क्षेत्र से तीन बार चुने गये जनता दल (एस) के विधायक, जो कांग्रेस के समर्थन से दिल्ली विधानसभा के उपाध्यक्ष बने, शोएब इकबाल ने भी कार्टूनिस्ट की हत्या के लिए इनामी फतवे को उचित ठहराया। उनकी चिन्ता केवल एक है कि उस कार्टूनिस्ट तक पहुंचेगा कौन? ऐसे ही फतवे जारी करके पाकिस्तान के एक मौलवी ने हत्यारे को 10 लाख डालर और अलकायदा ने 100 किलो सोना इनाम के रूप में देने की घोषणा की है। स्वाभाविक ही, इन इनामी फतवों को डेनमार्क की सरकार ने चुनौती के रूप में स्वीकार कर लिया है। वहां के प्रधानमंत्री ने उन्माद-प्रदर्शन के प्रारंभिक दौर में अपनी सरकार की ओर से सार्वजनिक क्षमायाचना भी मांगी थी किन्तु जिहादियों का कहना है कि क्षमायाचना कोई दंड नहीं है। शरीयत के अनुसार तो कार्टूनिस्ट को प्राणदंड मिलना ही चाहिए। इस हठधर्मी के जवाब में डेनमार्क की सरकार ने कार्टूनिस्ट को पूरी सुरक्षा देने की घोषणा की है और वहां के प्रधानमंत्री ने कहा है कि अब यह सवाल, केवल डेनमार्क बनाम उन्माद नहीं है बल्कि यूरोपीय संघ अर्थात् पूरा ईसाई यूरोप बनाम इस्लाम बन गया है। किस प्रकार यह उन्माद ईसाई व मुस्लिम समाजों के बीच गृह युद्ध की स्थिति पैदा कर रहा है इसका ताजा उदाहरण अफ्रीकी देश नाईजीरिया है, जहां मुस्लिमबहुल उत्तरी नाईजीरिया में निर्दोष ईसाइयों की हत्या की गयी, तो उसके उत्तर में ईसाईबहुल दक्षिणी नाईजीरिया में 20 मुसलमानों को जान गंवानी पड़ी।भविष्यवाणी सिद्ध होगी?मुस्लिम नेतृत्व एवं बुद्धिजीवियों की चिन्ता है कि यदि इस उन्माद को रोका न गया तो अमरीकी विचारक हंटिंग्टन की “सभ्यताओं के संघर्ष” की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हो सकती है। उन्हें यह भी दिखाई देता है कि इस भावुक इस्लामी उन्माद के विरुद्ध पूरा गैर-इस्लामी विश्व एकजुट हो गया तो उसकी सैन्य शक्ति के सामने 57 इस्लामी देश मिलकर भी कहीं नहीं ठहर पाएंगे। एकाध मुस्लिम विचारक ने तो चिन्ता प्रगट की है, कहीं यह उन्माद अनजाने ही इस्लाम की चौदहवीं सदी वाली भविष्यवाणी की ओर तो विश्व को नहीं धकेल रहा है। शायद इसीलिए इस्लामी देशों के संगठन (ओ.आई.सी.) के महासचिव एकमलद्दीन अहसानोग्लु ने ऐसे फतवों की निंदा की है। सऊदी अरब, जार्डन और यमन के कुछ मुस्लिम संपादकों ने उन विवादास्पद कार्टूनों को अपने अखबारों में छापकर इस उन्माद प्रदर्शन के प्रति अपना क्षोभ प्रगट किया है। वहां की सरकारें पत्रकारों के इस साहस प्रदर्शन से घबड़ा गयी हैं। सऊदी अरब सरकार ने कार्टून छापने वाली युवा पत्रिका “शम्स” के प्रकाशन पर रोक लगा दी। जार्डन के पत्रकार जिहाद मोमानी और यमन के संपादक मुहम्मद अल असदी को गिरफ्तार कर लिया गया। यद्यपि इन पत्रकारों का तर्क है कि पाठकों को इस विवाद की पूरी जानकारी देने के लिए कार्टूनों का प्रकाशन आवश्यक है। यमन की एक महिला पत्रकार तवक्कुल करमान ने भी फतवों की भत्र्सना की है। भारत में भी जावेद अख्तर ने हाजी याकूब की बर्खास्तगी की मांग उठायी और केरल के मुस्लिम लीगी मंत्री एम.के. मुनीर ने कहा कि कार्टूनों का जवाब कार्टूनों से देना चाहिए, न कि प्राणदंड के फतवों से।किन्तु मुस्लिम समाज के भीतर ऐसे साहसी स्वरों की संख्या लगभग नगण्य है। जो हैं उनका मुस्लिम मानस पर कोई गहरा और व्यापक प्रभाव नहीं है। मुस्लिम मानस आज भी सदियों पुराने इतिहास में ही जी रहा है। लगभग साढ़े तेरह सौ साल पूर्व सन् 661 के कर्बला युद्ध की घटना में कैद आस्था आज भी इस्लाम के दो मुख्य सम्प्रदायों-शिया और सुन्नी के बीच घोर कटुता और हिंसा का कारण बनी हुई है। पाकिस्तान हो या इराक-दोनों ही शिया-सुन्नी हिंसक संघर्षों की चपेट में फंसे हुए हैं। जनरल मुशर्रफ के नेतृत्व में “प्रगतिशील” पाकिस्तान अभी भी अपनी मिसाइलों का नामकरण गजनवी, गोरी और अब्दाली रख रहा है। यह नामकरण ही पाकिस्तान की भारत और हिन्दू विरोधी मानसिकता को उजागर कर देता है। इस्लाम की इस असहिष्णु, हिंसक छवि को सुधारने के लिए उत्सुक मुस्लिम विचारक भी कुरान और हदीस पर आकर रुक जाते हैं। वे सब कुछ जानकर भी यह कहने का साहस नहीं कर पाते कि इस्लामी विचारधारा में गैर मुस्लिमों के प्रति असहिष्णुता और हिंसा की जड़ें खोजने के लिए इन दोनों स्रोतों का खुला आलोचनात्मक अध्ययन आवश्यक है। उन्हें डर है कि यह कहने से कहीं उनकी इस्लामी निष्ठा पर सवाल न खड़ा कर दिया जाए और सलमान रश्दी व तस्लीमा नसरीन की तरह उनके विरुद्ध भी प्राणदंड का फतवा जारी न हो जाए। इसलिए कुरान और पैगम्बर के प्रति अंध श्रद्धा का प्रदर्शन करना उनके लिए आवश्यक हो जाता है।नकारात्मक बौद्धिकताभारत ही वस्तुत: मुस्लिम समाज के भीतर आत्मालोचन की प्रवृत्ति पैदा करने वाली प्रयोगशाला बन सकता है। सर्वपंथ समादर भाव की अपनी सहस्राब्दियों की परंपरा के कारण इस्लामी उपासना पद्धति के प्रति पूरा आदर रखते हुए भी उसमें से असहिष्णुता, उन्माद और हिंसा की प्रवृत्तियों के निर्मूलन का वातावरण पैदा कर सकता है। राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम और जावेद अख्तर जैसे उदारवादियों को सिर माथे बैठा सकता है। किन्तु दुर्भाग्य से भारत का सार्वजनिक जीवन सिद्धान्तहीन सत्ता-राजनीति में केन्द्रित हो गया है और वोट-राजनीति की धुरी पर घूम रही सत्ता-राजनीति ने मुस्लिम कट्टरवाद व पृथकतावाद में निहित स्वार्थ पैदा कर लिया है। इसलिए प्रत्येक दल सेकुलरिज्म के आवरण में हाजी याकूब, आजम खां, शोएब इकबाल जैसे कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं को सामने रखकर मुस्लिम समाज की अन्ध श्रद्धाओं एवं भावुक उन्माद का दोहन कर रहा है। कितनी विचित्र स्थिति है कि खुलेआम कत्ल की सुपारी देने वाला हाजी याकूब तो सीना तान कर खुला घूम रहा है, मंत्री पद का उपभोग कर रहा है, पर आलोक तोमर जैसा वरिष्ठ पत्रकार, जिसकी पंथनिरपेक्ष निष्ठा निर्विवाद है, अपनी पत्रिका “सीनियर इंडिया” में वह कार्टून छापने के लिए तुरन्त गिरफ्तार कर लिया जाता है। इस गिरफ्तारी से उनके कुछ पंथनिरपेक्ष मित्र, जैसे केदारनाथ सिंह, कमलेश्वर, पंकज बिष्ट, विष्णु नागर और प्रभाष जोशी को हल्का सा झटका तो लगा है। उनकी गिरफ्तारी की आलोचना करते हुए भी उनकी नेक सलाह यही है कि वर्तमान उत्तेजनापूर्ण वातावरण में आलोक तोमर को वह कार्टून छापना नहीं चाहिए था। जो लोग आलोक तोमर को वह कार्टून न छापने की सलाह दे रहे हैं वही लोग एक अरबपति मुस्लिम चित्रकार एम.एफ. हुसैन द्वारा भारतमाता और माता सरस्वती आदि देवियों के निर्वस्त्र चित्र बनाने पर न केवल मौन रहते हैं, बल्कि उनका विरोध किए जाने पर हुसैन के पक्ष में मुखर हो जाते हैं। इसके पीछे कोई सिद्धान्तवादिता है या कायरता या राष्ट्रभक्त हिन्दुत्ववादियों के प्रति घृणा और विद्वेष की मानसिकता? इस मानसिकता का ताजा नमूना आज के जनसत्ता (24 फरवरी) में सेकुलर पत्रकारिता के “भीष्म पितामह” प्रभाष जोशी का लेख है। या जमाते इस्लामी के मुखपत्र रेडियन्स (12 फरवरी, पृष्ठ 28) में प्रकाशित सात तथाकथित पंथनिरपेक्षी बौद्धिकों एवं कलाकारों का वह वक्तव्य पढ़ लीजिए, जिसमें उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को ई-मेल द्वारा हिंसा की धमकियां भेजने वाले एक मुस्लिम इंजीनियर की गिरफ्तारी की तो निंदा की गयी है, पर इस बात का कोई जिक्र नहीं है कि उस युवक द्वारा अपना अपराध कबूल करने पर मुख्यमंत्री ने उसे क्षमा कर दिया।भारतीय मुसलमानों को कट्टरवाद और पृथकतावाद के पथ पर धकेलने के लिए सत्तालोलुप वोट राजनीति और सिद्धांतहीन नकारात्मक बौद्धिकता जिम्मेदार हैं। इन्हें कैसे समझाया जाय कि मुस्लिम मन को उन्माद नहीं, विवेक दो। वे क्यों भूल जाते हैं कि उनकी इस नकारात्मक दोगली नीति की प्रतिक्रिया में से ही वकील अशोक पांडे जैसे युवक हिन्दू पर्सनल ला बोर्ड जैसी कागजी संस्था के नाम पर हिन्दू भावनाओं को आघात पहुंचाने वालों के हत्यारों को 51 करोड़ रुपए और उसी काम को अगर हाजी याकूब कुरैशी करें तो उन्हें 101 करोड़ रुपए का इनाम देने की घोषणा कर देते हैं। अपने इस व्यंग्यात्मक कदम से अशोक पांडे ने हाजी याकूब की मजाक बनायी है, तो दोगले सेकुलरों की अन्तरात्मा को झकझोरने की कोशिश भी की है।(24 फरवरी, 2006)24
टिप्पणियाँ