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मुस्लिम अंकगणित
-आलोक गोस्वामी
राजेन्द्र सच्चर
अगर थल सेनाध्यक्ष जनरल जे.जे. सिंह सेना में साम्प्रदायिकता का जहर घोलने वाले सरकार के कदम के विरुद्ध आवाज नहीं उठाते तो शायद सरकार के अन्य विभागों में जारी नफरत के बीज बोने की मुहिम सेना में भी सफल हो जाती। प्रधानमंत्री द्वारा मार्च 2005 को सेकुलर जमात के चहेते जस्टिस राजेन्द्र सच्चर की अध्यक्षता में एक छह सदस्यीय उच्च स्तरीय समिति का गठन केवल और केवल इसी उद्देश्य से किया गया कि वह मुस्लिमों, ध्यान दें, मुस्लिमों के सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक स्थिति का आकलन करे। 9 मार्च, 2005 को इस समिति के गठन के बाद देशभर के अंग्रेजी, हिन्दी और उर्दू अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन छापकर इसकी घोषणा की गई और विभिन्न संस्थाओं से समिति का पूरा सहयोग करने का अनुरोध किया गया।
शुरुआत में सच्चर समिति का काम विभिन्न राज्यों, संस्थाओं, विश्वविद्यालयों से चिट्ठी-पत्री के जरिए गुपचुप चलता गया और जानकारियां इकट्ठी की जाती रहीं। लेकिन जैसे ही इस वर्ष के आरम्भ में सच्चर समिति ने थल सेना में “मुस्लिमों की स्थिति” जानने की कोशिश शुरू की तो न केवल सेनाध्यक्ष और वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों ने इसका पुरजोर विरोध किया अपितु सरकार की इस गर्हित सोच का खुलासा होते ही देश के वरिष्ठ चिंतकों, लेखकों ने आपत्ति दर्ज कराई। आखिर यह सरकार चाहती क्या है?
दर्जनों समितियां हैं जो मुस्लिमों, ध्यान दें, केवल मुस्लिमों के हितों की चिंता कर रही हैं। अल्पसंख्यक आयोग है, तिस पर हाल में ए.आर. अंतुले को मंत्री बनाते हुए अल्पसंख्यक मंत्रालय बना दिया गया है। जिस देश का संविधान सभी नागरिकों को, उनके धर्म, मजहब, जात-पांत, नस्ल, रंग आदि से परे एक समान अधिकार देता हो और जिस देश के राज्यों की सरकारें सभी नागरिकों को समान अवसर उपलब्ध कराने के लिए संविधान से बद्ध हों, उस देश में एक समुदाय विशेष यानी मुस्लिमों की बढ़-चढ़कर मिजाजपुर्सी करना किस सोच को दर्शाता है?
सुप्रसिद्ध स्तम्भकार और लेखिका सुश्री संध्या जैन तो साफ शब्दों में कहती हैं कि यह सरकार एक और बंटवारे की किसी छुपी नीति पर बढ़ती दिखाई दे रही है। उन्हें इस बात का भी यकीन है कि कहीं न कहीं सरकार अमरीका के इशारों पर राजनीति चला रही है।
मई 2004 में जब इस सरकार ने कुर्सी संभाली थी उसके तुरंत बाद से हिन्दू बहुल हिन्दुस्थान में हिन्दू आस्था-केन्द्रों पर चुन-चुनकर हमले हुए हैं। शंकराचार्य जी की दीवाली की रात गिरफ्तारी से शुरू करके जितने हिन्दू विरोधी काम हो सकते थे इस सरकार ने पूरी बेशर्मी और ढिठाई से लागू किए हैं। (देखें, पाञ्चजन्य 26 फरवरी, 2006, पृष्ठ-3)। यानी हालात ऐसे बना दिए गए हैं मानो इस देश में हिन्दू होना अपराध हो, मानो देश की रीति-नीति केवल और केवल मुस्लिमों के लिए ही रह गई हो, मानो हिन्दुस्थान को हरे चश्मे से देखना एक आवश्यक शर्त हो गया हो। और हमारे प्रधानमंत्री ऐसे हैं जो हर बात पर बस एक ही जवाब देते हैं, “इस विषय पर विस्तार से पता करेंगे या यह विषय मेरे संज्ञान में नहीं है।” यह सही भी है क्योंकि पहली बार इस देश में ऐसी रीढ़हीन सरकार बनी है जिसके फैसले प्रधानमंत्री कार्यालय में नहीं बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष के निवास 10, जनपथ में लिए जाते हैं।
प्रधानमंत्री ने मुस्लिमों की स्थिति का आकलन करने वाली उच्च स्तरीय समिति की अध्यक्षता भी बहुत दूर तक सोचते हुए, शायद अपने सेकुलर सलाहकारों की सलाह पर, ऐसे जस्टिस राजेन्द्र सच्चर को सौंपी है जिनका अब तक का जीवन हिन्दू-विरोध पर ही सांसें लेता व्यतीत हुआ है। “80 के दशक में चर्चा में आई पी.यू.सी.एल. (पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबरटीज) के अध्यक्ष के नाते जस्टिस सच्चर ने अधिकांशत: हर उस विषय पर अदालत का दरवाजा खटखटाया जिस पर हिन्दुत्वनिष्ठ संगठनों को बेवजह घेरा जा सके।
दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार, जो जस्टिस सच्चर को करीब से जानते हैं, ने बताया कि इसमें कोई शक नहीं है कि जस्टिस सच्चर हर उस काम में आगे रहते हैं जो सेकुलरवाद का झण्डा बुलंद करता हो, जो हिन्दुत्व पर निशाना साधता हो और जो अल्पसंख्यक, खासकर मुस्लिमों के पक्ष में हो। पाकिस्तान के प्रति जस्टिस सच्चर का अनुराग किसी से छिपा नहीं है। सेकुलर पत्रकार और राज्यसभा सांसद रहे कुलदीप नैयर, जिनकी बहन जस्टिस सच्चर की धर्मपत्नी हैं, अंग्रेजी लेखक खुशवंत सिंह, प्रफुल्ल बिदवई सरीखे वाम झुकाव वाले तथाकथित बुद्धिजीवियों के साथ वाघा सीमा पर पाकिस्तान से दोस्ती की वकालत करते हुए मोमबत्तियां जलाने वाले जत्थों में जस्टिस सच्चर की सक्रिय भूमिका रही है। जस्टिस राजेन्द्र सच्चर मूलत: पाकिस्तान से हैं और इनके पिताजी, बताया जाता है, 1948 में पाकिस्तान की संविधान सभा के सदस्य थे। पाकिस्तान के प्रति हमेशा नरमाई रखने वाले और भारत भक्तों पर अपने शब्दों और कृत्यों से लगातार चोट करने वाले जस्टिस सच्चर को, खबर है कि, पाकिस्तान “निशान-ए-पाकिस्तान” सम्मान से नवाजने जा रहा है।
नकी समिति को सौंपे गए काम पर जब तीखी प्रतिक्रियाएं सुनाई देने लगीं तो समिति के अध्यक्ष राजेन्द्र सच्चर यह कहते सुनाई दिए कि समिति के काम की रूपरेखा चूंकि प्रधानमंत्री कार्यालय ने ही बनाई है अत: उसमें वे कोई सुझाव नहीं दे सकते थे, उन्होंने तो बस उसे उसी रूप में स्वीकार किया है। यह कैसे हो सकता है? दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे और सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता राजेन्द्र सच्चर उस एजेंडे के प्रति इस तरह की अनभिज्ञता दिखाएं तो उस पर कोई भरोसा नहीं कर सकता। सच्चर को समझने वाले यह कतई स्वीकारने को तैयार नहीं हैं कि देश में नफरत के बीज बोने वाले इस एजेंडे के मुख्य बिन्दु उनकी सलाह के बिना तय किए गए हैं।
बहरहाल, समिति अब तक 12 राज्यों का दौरा कर चुकी है और वहां के मुख्यमंत्रियों और वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों से उनके राज्य में मुस्लिमों के हित में किए जा रहे प्रयासों की जानकारी प्राप्त कर चुकी है। इनके अलावा समिति के सदस्य राज्यों के चुनिंदा क्षेत्रों से जुड़े प्रतिनिधियों से अलग से मिल रहे हैं और पता लगा रहे हैं कि मुस्लिमों की भलाई के क्या-क्या पहलू हो सकते हैं। जिन राज्यों में समिति का जून 2005 से फरवरी 2006 तक दौरा हुआ है, वे हैं-
आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, असम, प. बंगाल, दिल्ली, केरल, मध्य प्रदेश, गुजरात, बिहार और झारखण्ड। जिन राज्यों में अभी समिति को जाना है, वे हैं- तमिलनाडु, पाण्डिचेरी और महाराष्ट्र।
धानमंत्री कार्यालय ने देश के सभी राज्यों और प्रमुख संस्थानों, संगठनों एवं सरकारी विभागों से समिति को पूरा सहयोग करने की अपील की थी। कितना सहयोग मिला है समिति को? सच्चर समिति के विशेष कार्याधिकारी डा. जफर महमूद ने पाञ्चजन्य को बताया कि वे जिन राज्यों में भी गए हैं, उन्हें पूरा सहयोग मिला है। साथ ही करीब 500 संस्थाओं से उनको जानकारियां प्राप्त हो चुकी हैं। समिति का बजट कितना है, इस सवाल पर उनका कहना था कि इसकी जानकारी उनको नहीं है क्योंकि यह वित्त मंत्रालय और मंत्रिमण्डलीय सचिवालय के बीच तय हुआ है। लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय के एक सूचना अधिकारी के अनुसार बजट की कोई सीमा तय नहीं है। जितना समिति की आवश्यकता होती है उतना उसे दिया जाता है।
समिति का एजेंडा कितना जहरीला और देश की एकता, अखण्डता के लिए खतरनाक है, उसकी तरफ न केवल देश के बुद्धिजीवियों ने आवाज उठाई है बल्कि संसद के भीतर भी विपक्ष ने इस मुद्दे पर सरकार को जमकर घेरा। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो प्रधानमंत्री और सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखकर इस समिति के गठन और उसकी कार्यसूची पर अपनी शिकायत दर्ज कराते हुए देश के हित में समिति को अविलम्ब भंग करने का अनुरोध किया है। पत्र में श्री मोदी ने कहा कि “यह संविधान की मूल भावना के विरुद्ध कदम है। सरकार जात-पांत, धर्म-मजहब, रंग, रूप में भेद किए बिना सभी नागरिकों का प्रतिनिधित्व करती है। सभी को संविधान के तहत बराबरी का अधिकार है। कल्याण और रोजगार की सरकारी योजनाएं सभी योग्य नागरिकों के लिए हैं। राज्य को किसी के धर्म-मजहब को योग्यता का आधार नहीं बनाना चाहिए, न ही वह ऐसा कर सकता है। हर सरकारी कर्मचारी का भी पहला कर्तव्य है कि वह दिए गए कार्य को अपने धर्म-मजहब आदि भेदभाव को भूलकर उसे पूरा करे।”
श्री मोदी ने साफ कहा कि “सरकारी कर्मचारियों में मुस्लिमों की गिनती का यह काम देश की एकता व अखण्डता पर विपरीत प्रभाव डाल सकता है। किसी खास मजहबी समुदाय की आर्थिक स्थिति का आकलन समाज को सम्प्रदायिकता की ओर धकेल सकता है। अत: इस कार्य को अविलम्ब रोका जाए।” गुजरात के मुख्यमंत्री ने इस पत्र की प्रतियां राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, नेता प्रतिपक्ष लालकृष्ण आडवाणी और राज्यसभा में विपक्ष के नेता जसवंत सिंह को भेजी हैं। आखिरकार तमाम विरोधों के बाद रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी ने सदन में बयान दिया है कि सेना में मुस्लिमों की गिनती का काम तुरंत प्रभाव से रोक दिया गया है। हालांकि वायुसेना और नौसेना, प्राप्त जानकारी के अनुसार, समिति को अपने यहां के आंकड़े दे चुकी हैं। पूर्व सेनानायकों ने पांचजन्य के जरिए इस पर अपनी आपत्ति भी जताई थी। उनका कहना था कि यह सारा वोट बैंक राजनीति का काम सेना की मूल भावना पर चोट करता है अत: इसकी अनुमति नहीं देनी चाहिए।
अंत:क्षेत्र पर जारी जस्टिस राजेन्द्र सच्चर की अपील में लिखा है कि “भारत सरकार के पास भारत के मुस्लिम समुदाय की आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक स्तर पर सही जानकारी का अभाव है, इससे इस समुदाय के सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के कार्यक्रम व नीतियां बनाने में दिक्कत आ रही है। अत: एक समग्र रपट तैयार करने के लिए प्रधानमंत्री ने एक उच्च स्तरीय समिति गठित की है।”
आजादी के बाद से देश में राज करती आ रही कांग्रेस ने मुस्लिमों को महज वोट बैंक के रूप में देखा है और तुष्टीकरण की नीति अपनाई है। इस संदर्भ में, दिल्ली के एक वरिष्ठ पत्रकार ने सच्चर समिति के जहर भरे एजेंडे पर टिप्पणी करते हुए कहा कि कांग्रेस ने यह जो “रोग का पिटारा” खोला है उसे बंद करना मुश्किल हो जाएगा। यह ऐसा बीज बोया गया है जिसके आवरण में अलगाववादी तत्व अपनी मनमानी करवाएंगे। कट्टरपंथी तत्व आबादी में प्रतिशत के हिसाब से हर सरकारी महकमे में मुस्लिमों के लिए आरक्षण मांगेंगे। क्या जस्टिस सच्चर, जो कानून के अच्छे जानकार हैं, नहीं जानते थे कि यह सब तो विभाजनकारी मानसिकता की उपज है? उन्होंने इन “टम्र्स आफ रेफरेंसिस” को स्वीकार कैसे किया? और अब अगर उन्हें इस बात का भान होने लगा है तो वे इस समिति के अध्यक्ष पद से इस्तीफा क्यों नहीं दे देते?
तमाम विरोधों और प्रतिक्रियाओं के बावजूद सच्चर समिति का काम बदस्तूर जारी है। इन पंक्तियों के लिखे जाते समय समिति बिहार और झारखण्ड के दौरे पर है। जून 2006 में समिति प्रधानमंत्री को अपनी रपट सौंपेगी। और शायद इसके बाद और तेजी से शुरू हो जाएगा देश के नागरिकों से मजहब के आधार पर अलग-अलग तरह का व्यवहार करने का सिलसिला। भाजपा नेता सुषमा स्वराज ने सरकार की इसी नीयत पर टिप्पणी करते हुए राज्य सभा में कहा था कि अब सरकार के लिए अल्पसंख्यक का अर्थ मुस्लिम और केवल मुस्लिम ही रह गया है।
जस्टिस राजेन्द्र सच्चर
सरकारी “सेकुलर कमेटी” के अध्यक्ष
जस्टिस राजेन्द्र सच्चर हर उस बात में शामिल दिखाई देते हैं जो हिन्दुत्व की विरोधी हो, जो भारतीयता को सेकुलरवाद के नाम पर ठेस पहुंचाती हो और जो देश के बहुसंख्यक समाज के विरुद्ध सेकुलरवाद की दुहाई देते हुए की जाती है। शायद इसी कारण सरकार ने उन्हें उच्च स्तरीय कमेटी का अध्यक्ष बनाया है ताकि मुस्लिमों की “स्थिति” का “सेकुलर आकलन” किया जा सके।
दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रहे जस्टिस सच्चर पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबरटीज (सी.यू.सी.एल.) के अध्यक्ष के नाते चर्चित या कहें विवादित रहे हैं। इसी संस्था के बैनर तले उन्होंने हिन्दुत्व विरोधी हर उस काम की अगुवाई की है जो भारत के आस्था-प्रतीकों पर चोट करता हो। इसी संस्था के बूते उन्होंने सेकुलरों की जमात में ऊंचा दर्जा पाया है। उनकी इसी छवि को देखते हुए उन्हें अल्पसंख्यकों के संरक्षण और उनके प्रति किसी तरह के भेदभाव को रोकने की संयुक्त राष्ट्र की उप समिति का सदस्य बनाया गया। पंजाब विश्वविद्यालय की सीनेट के सदस्य जस्टिस सच्चर गांधी स्मारक निधि के न्यासी भी हैं।
देश-दुनिया की अनेक गोष्ठियों में उन्होंने अपने सेकुलर यानी हिन्दू-विरोधी विचार प्रस्तुत करके “नाम” कमाया है। विएना में मानवाधिकार पर विश्व सम्मेलन (1993) हो या यू.के. के ब्राइटन विश्वविद्यालय में संघवाद और मानवाधिकार पर कांफ्रेंस (2003) हो, सच्चर की मौजूदगी ने देश के राष्ट्रवादी विचारकों को निराश ही किया। इन्हें कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। 1987 में आल इंडिया मिल्ली काउंसिल ने “सितारे हिन्द” सम्मान दिया तो बार आफ इंडिया ने तो उन्हें “लिविंग लीजेंड” का खिताब (2001) दे डाला। हमदर्द विश्वविद्यालय ने दर्शनशास्त्र में डाक्टरेट की उपाधि (2001) प्रदान की।
मुस्लिम अंकगणित में जुटी सच्चर समिति के सदस्य
सैयद हामिद
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त सैयद हामिद ने भारतीय प्राशासनिक सेवा में रहते हुए उत्तर प्रदेश व केन्द्र सरकार में विभिन्न पदों पर काम किया है। सरकार की चौथी पंचवर्षीय योजना बनाने में प्रमुख भूमिका निभाने के बाद हामिद ने देश के सबसे बड़े चयन संस्थान कर्मचारी चयन आयोग के अध्यक्ष बने। 1980 से 1985 तक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति रहते हुए हामिद ने दीनी मदरसों की डिग्रियों को अपने विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए मान्यता दी।
टी.के.ऊमैन
2002 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (दिल्ली) के स्कूल आफ सोशियल साइंस से प्रोफेसर पद से सेवानिवृत्त हुए डा. ऊमैन भी एक जाने-माने सेकुलर हैं। केवल जनेवि ही नहीं, दुनिया के अनेक विश्वविद्यालयों में वे पढ़ाने जाते थे। उनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इस वक्त वे शूमैशर सेन्टर, दिल्ली और फोरम फार इंडिया एंड यूरोपियन यूनियन के अध्यक्ष हैं। ऊमैन की ज्यादातर पुस्तकें समाज विज्ञान और राज्य-समाज संबंधों पर आधारित हैं।
एम.ए.बासिथ
कर्नाटक सरकार के योजना विभाग के वरिष्ठ निदेशक बासिथ बंगलौर विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। सांख्यिकी क्षेत्र में काम करने वाले बासिथ राज्य सरकार के कई विभागों की योजनाओं के निर्माण और क्रियान्वयन से जुड़े हैं। जल संसाधन, परिवहन, ऊर्जा, वाणिज्य और उद्योग, आई.टी., न्यायपालिका, समन्वयन और ढांचागत क्षेत्र में उनका विशेष दखल है। विकास के मुद्दों पर वे मुख्यमंत्री के भाषण भी तैयार करते हैं। राज्य सरकार की कई समितियों से वे जुड़े हैं।
प्रो. राकेश बसंत
आई.आई.एम., अमदाबाद में सेंटर फार इनोवेशन के अध्यक्ष प्रो. राकेश बसंत कई देशी-विदेशी संस्थानों के सदस्य के नाते विकास अनुसंधानों से जुड़े हैं। उन्होंने प्रौद्योगिकी परिवर्तन और प्रबंधन, बौद्धिक संपदा अधिकार, औद्योगिक संगठन, लोक नीति आदि क्षेत्रों में शोध किए हैं। इस वक्त वे भारत सरकार के विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग के आर्थिक सहयोग से आई.टी.और इलैक्ट्रानिक क्षेत्रों में निर्माण प्रक्रिया पर अनुसंधानरत हैं। फोर्ड फाउंडेशन ने उन्हें वित्त क्षेत्र में फैलोशिप दी है और उन्होंने येल विश्वविद्यालय (अमरीका) के वित्तीय प्रगति केन्द्र में दो वर्ष अल्पकालिक अनुसंधानकर्ता के रूप में काम किया है।
प्रो. अख्तर मजीद
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डी. लिट्. करने वाले प्रो. मजीद हमदर्द विश्वविद्यालय, दिल्ली में सेंटर फार फेडरल स्टडीज के निदेशक और समाज विज्ञान विभाग के डीन हैं। वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और इलिनायस विश्वविद्यालय (अमरीका) से जुड़े रहे हैं। उत्तर प्रदेश उच्च शिक्षा सेवा आयोग तथा जी.बी. पंत समाज विज्ञान संस्थान के “बोर्ड आफ गवर्नर्स” के सदस्य रहे हैं। कई पुस्तकों के लेखक प्रो. मजीद इथियोपिया और श्रीलंका की सरकारों के कई विकास कार्यक्रमों के प्रभारी/संसाधन आपूर्तिकर्ता बने हुए हैं तथा 11 देशों में संघवाद पर एक वैश्विक परियोजना के समन्वयक हैं।
डा. अबुसलेह शरीफ
नई दिल्ली स्थित नेशनल काउंसिल आफ एप्लायड इकोनामिक रिसर्च के मानव विकास विभाग के अध्यक्ष डा. शरीफ सच्चर समिति के सदस्य सचिव हैं। कैनबरा (आस्ट्रेलिया) की आस्ट्रेलियन नेशनल यूनिवर्सिटी से शोध करने वाले डा. शरीफ ने बंगलौर विश्वविद्यालय से एम.ए.और येल विश्वविद्यालय (अमरीका) में पी.एचडी. उपरान्त अनुसंधान पूरा किया। 52 वर्षीय डा. शरीफ विकास, मानव विकास, गरीबी, जनसांख्यिकी एवं स्वास्थ्य अर्थशास्त्र आदि क्षेत्रों में अनुसंधान कार्य कर चुके हैं। इनकी 8 पुस्तकें और कई अनुसंधान पत्र प्रकाशित हुए हैं। इन्होंने कई गोष्ठियों में भाग लिया है।
विजय कुमार मल्होत्रा ने सवाल किया-
एक ही काम की कितनी समितियां?
भाजपा संसदीय दल के प्रवक्ता प्रो. विजय कुमार मल्होत्रा ने कहा है कि मुस्लिमों के लिए बनी समितियों की प्रकृति लगभग एक जैसी है अत: इतनी सारी समितियों का क्या औचित्य है। सरकार इन्हें तुरन्त भंग करे। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग, न्यायमूर्ति आर.एन.मिश्रा आयोग, सच्चर समिति, शैक्षिक संस्थाओं में अल्पसंख्यकों की शिक्षा पर समितियां बनी हैं। इसके साथ ही सरकार ने अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय भी बना दिया है। आखिर सरकार को मुस्लिमों के कल्याण के लिए इतनी सारी समितियां बनाने की आवश्यकता क्यों है, जबकि इन सभी के कार्य लगभग एक जैसे ही हैं? सरकार मंत्रालय को छोड़कर शेष सभी समितियों को भंग कर दे।
राज्यसभा में सुषमा स्वराज ने पूछा-
क्या भारत में अल्पसंख्यक का अर्थ सिर्फ मुसलमान है?
गत 20 फरवरी को राज्यसभा में सच्चर समिति और सेना में मुसलमानों की गिनती के मुद्दे पर रक्षा मंत्री प्रणव मुखर्जी के बयान पर चर्चा हुई। वरिष्ठ भाजपा नेता सुषमा स्वराज भी बहस में शामिल थीं। श्रीमती स्वराज ने अपने वक्तव्य में कहा, “सरकारी बयानों में सच्चर समिति के संदर्भ में कभी मुस्लिम तो कभी अल्पसंख्यक कहा जा रहा है। लगता है, अल्पसंख्यकों को भी आपस में बांटने का सिलसिला शुरू हो गया है। पहली बार एक ऐसी समिति भी बनी है, जो केवल मुस्लिम समुदाय के शैक्षणिक, आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन का अध्ययन करेगी। इस तरह की संकीर्ण सोच विभाजन का बीज होती है, द्विराष्ट्र के सिद्धान्त की नींव डालती है।
सच्चर समिति यह सब ढूंढेगी
प्रधानमंत्री कार्यालय द्वारा निर्धारित सच्चर समिति की कार्यसूची के मुख्य बिन्दु इस प्रकार हैं-
42; भारत में मुस्लिम समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति की रपट तैयार करना।
विशेष रूप से यह उच्च स्तरीय समिति :
(क) केन्द्र और राज्य सरकारों के विभागों/ संस्थाओं से संदर्भित सूचनाएं प्राप्त करेगी और साहित्य का गहन सर्वेक्षण करके प्रकाशित डाटा, आलेख, अनुसंधान की मदद से मुस्लिमों के राज्य, क्षेत्र और जिला स्तर पर तुलनात्मक सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दर्जे का पता लगाएगी, ताकि निम्न बिन्दुओं की जानकारी प्राप्त हो-
1) किन राज्यों, क्षेत्रों, जिलों और खण्डों में भारत के अधिकांश मुसलमान रहते हैं?
2) उनकी आर्थिक गतिविधियों का भौगोलिक खाका क्या है, यानी विभिन्न राज्यों, क्षेत्रों और जिलों में आजीविका के लिए वे ज्यादातर क्या काम करते हैं?
3) विभिन्न राज्यों और क्षेत्रों में अन्य समुदायों की तुलना में उनकी सम्पत्ति और आय का क्या स्तर है?
4) शिक्षा दर, स्कूल से निकलने की दर, एम.एम.आर., आई.एम.आर. आदि सामाजिक-आर्थिक विकास के संदर्भित संकेतों के अनुसार उनका क्या स्तर है? विभिन्न राज्यों में अन्य समुदायों से इसकी तुलना से क्या दिखता है?
5) सार्वजनिक और निजी क्षेत्र में उनकी आनुपातिक हिस्सेदारी कितनी है? क्या राज्यवार यह अलग-अलग है और इस भिन्नता का स्वरूप क्या है? विभिन्न राज्यों में उनकी आबादी को देखते हुए रोजगार में कितनी हिस्सेदारी है? अगर नहीं है तो बाधाएं क्या हैं?
6) विभिन्न राज्यों में अन्य पिछड़े वर्गों की आबादी में मुस्लिम समुदाय के अन्य पिछड़े वर्गों का अनुपात क्या है? क्या मुस्लिमों के अन्य पिछड़े वर्ग, पिछड़े वर्गों की केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा विभिन्न उद्देश्यों के आरक्षण के लिए स्वीकृत राष्ट्रीय और राज्यीय पिछड़ा वर्ग आयोग द्वारा तैयार सूची में दर्ज हैं? अलग-अलग समय में केन्द्र और विभिन्न राज्यों में सार्वजनिक क्षेत्र के संपूर्ण रोजगार में मुस्लिमों के अन्य पिछड़े वर्गों की कितनी हिस्सेदारी है?
7) क्या मुस्लिम समुदाय की शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं, स्थानीय ढांचागत स्वरूप, बैंक व अन्य सरकारी/ सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों की सेवाओं तक पर्याप्त पहुंच है? विभिन्न राज्यों में अन्य समुदायों को मिल रहीं इन सब सुविधाओं से इसकी तुलनात्मक स्थिति क्या है? विभिन्न राज्यों में इस तरह के ढांचे के आम स्तर से तुलना करें तो मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों में इस तरह के सामाजिक ढांचे (स्कूल, स्वास्थ्य केन्द्र, आई.सी.डी.एस. केन्द्र आदि) का क्या स्तर है?
ख) उपरोक्त सूचना/साहित्य को इकट्ठा करके विश्लेषण करना ताकि मुस्लिम समुदाय के सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्तर से जुड़े विभिन्न आवश्यक मुद्दों पर सरकार ध्यान दे।
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