|
विषयक बहस पर आमंत्रित विचारों की चतुर्थ कड़ी
पतंग बनाकर रखता है पुरुष स्त्री को
-मनीषा शुक्ला
जिस देश में “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता” कहा जाता है, उस देश में विडम्बना यह है कि भारतीय समाज जहां अर्धनारीश्वर के रूप में भगवान शिव को पूजता है वहीं अद्र्धांगिनी को मात्र वस्तु समझता है। यह सत्य है कि पुरुष स्वभावत: स्त्री विरोधी नहीं है परन्तु उतना ही सत्य यह भी है कि आज हो रहे स्त्री उत्पीड़न के पीछे परिस्थिति भी उत्तरदायी नहीं है क्योंकि जिस समय सती प्रथा, बाल विवाह जैसे कृत्य थे उन्हीं परिस्थितियों में राजा राममोहनराय जैसे पुरुष का पदार्पण हुआ। जहां अशिक्षा नारी का भाग्य थी वहीं ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आए। महात्मा गांधी आदि ऐसे अनेक विचारकों, जो पुरुष ही थे, स्त्री उद्धार का कार्य देश-उद्धार का कार्य समझ कर किया।
हम शास्त्रों की, समाज की दुहाई दें तो यह भी गलत है, क्योंकि शास्त्रों में कुछ नियम पुरुषों के लिए भी हैं। परन्तु पुरुष उनका अक्षरश: पालन करने में जब अक्षम है तो स्त्री को नियमों का पालन करने की बाध्यता क्यों? सत्य यह है कि मनुष्य अपने हित की बात ही लागू करता है, नियमों का तो बहाना है। भारतीय संविधान नागरिकों को समानता का अधिकार देने का दावा करता है। तथ्य यह है कि भारत पुरुष प्रधान देश है तो जहां समानता है वहां यह प्रधानता कैसी? आज महिलाओं की तो छोड़िए दुधमुंही बच्ची तक असुरक्षा महसूस करती है। पुरुष की पाशविक प्रवृत्ति आज भी स्त्री को मात्र भोग की वस्तु ही मानती है। यही कारण है जो स्त्री-पुरुष संबंध की तस्वीर को घृणा, अनाचार से चित्रित करता है। यदि पुरुष सभी महिलाओं के प्रति वही विचार रखे जो वह माता, बहन, बेटी के लिए रखता है तो शायद विरोध, दमन, अत्याचार जैसी बातें ही न हों।
दूसरा कारण, महिलाओं में परस्पर एकता का अभाव भी है। पुरुष स्त्री का विरोध तभी कर पाता है जब उसमें कहीं न कहीं कोई स्त्री शामिल होती है। भले ही स्त्री की स्वीकृति वास्तविक अर्थों में न हो फिर भी एक मूक स्वीकृति अवश्य होती है।
तीसरा कारण, पुरुष आंतरिक रूप से असुरक्षा महसूस करता है। उसे लगता है कि कहीं मेरा पुरुषत्व स्त्री के वह से नष्ट न हो जाए। ऊपर से जरूर वह स्त्री उत्थान की बात करता है परन्तु चाहता है कि वह केवल उसी सीमा तक हो, जहां तक उसे न झुकना पड़े। मात्र पतंग ही बनाए रखा चाहता है पुरुष स्त्री को।
स्त्री व पुरुष अपनी-अपनी वैयक्तिकता में इतना तल्लीन रहते हैं कि इस सार्वभौमिक तथ्य को दोनों भूल जाते हैं कि दोनों मानव हैं अपनी जब तक हम स्त्री-पुरुष में वर्ग-भेद करते रहेंगे, तब तक तो विरोध होता ही रहेगा। आवश्यकता मात्र इतनी समझ है कि दोनों मानव हैं न कि स्त्री-पुरुष। मेरे विचार में स्त्री-पुरुष शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से अवश्य भिन्न हैं परन्तु आत्मिक रूप से भिन्न नहीं हैं, क्योंकि आत्मा एक ही है उसमें भेद नहीं है। स्त्री-पुरुष स्वयं को शरीर, मन व भौतिकता छोड़ आत्मा की दृष्टि से जानें, इसी मानसिकता से सभी भेद दूर हो सकते हैं।
पता-द्वारा- आनन्द स्वरूप शुक्ला
मो. नौरंगाबाद, लखीमपुर खीरी. (उ.प्र.)
आज कथनी और करनी में अन्तर है
-ममता गर्ग
कहावत है- जहां सीता जैसी स्त्री होगी वहां राम का निर्माण स्वयं ही हो जाएगा। परन्तु राम के जीवन में सीता का प्रवेश बाद में हुआ। उससे पहले कौशल्या जैसी माता, वशिष्ठ, विश्वामित्र जैसे गुरुओं के सान्निध्य में राम का निर्माण हुआ। श्री राम के जीवन में जब सीता का प्रवेश होता है तो सबसे पहला त्याग किया राम ने “एक पत्नी व्रत” धारण करके। यह व्रत ऐसे समय में लिया जबकि एक राजा के लिए अनेक रानियां रखना कोई अपराध नहीं था। ऐसे पुरुष को पाकर कौन स्त्री धन्य नहीं होगी। सीता भी राजसी ठाट-बाट छोड़ सहज ही राम के साथ वन को गयीं। राम का दूसरा पक्ष भी है, सीता को त्यागने वाला। लेकिन वहां सीता के लिए वेदना थी, तिरस्कृत या अपमानित करने की भावना नहीं। उनके सामने एक राजा का कर्तव्य था, जो एक पति के कर्तव्य से बड़ा था।
आज भी जहां परिवार में दोनों का त्याग है वहां कोई शिकवा-शिकायत नहीं है। परन्तु आज कथनी-करनी में अन्तर है। स्त्री दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी, सीता केवल सुनने-सुनाने के लिए है, वास्तविकता में व्यवहार तो कुछ और ही है। सारे गुणों की अपेक्षा नारी से ही होती है। संयम, त्याग, प्रेम, संतोष, क्षमा एवं उसके साथ-साथ पुरुष के समान शिक्षा भी, जिससे धनोपार्जन भी कर सके। लेकिन इसके विपरीत पुरुष के पास केवल उसका अहम और स्त्री के प्रति तुच्छ भाव ही है। पति-पत्नी दोनों धन उपार्जन के लिए घर से बाहर जाते हैं लेकिन घर का कार्य अकेले पत्नी क्यों करे, पुरुष क्यों नहीं? इसके बावजूद घर के कार्यों में कोई त्रुटि रहे तो पति कहने का हकदार है, पत्नी क्यों नहीं? यही भारतीय पुरुषों का अहंपूर्ण व्यवहार है। अच्छे संस्कारों के द्वारा ही पुरुषों के अहम् को ठीक किया जा सकता है।
पता-द्वारा- सुनील एण्ड कम्पनी
पुख्ता बाजार, जहांगीराबाद, बुलंदशहर (उ.प्र.)
स्त्री शूर्पणखा हो जाए तब क्या होगा?
-गीता तिवारी
जिस समाज में ऐसी मान्यता हो कि जहां स्त्रियों का सम्मान नहीं होता, वहां सर्व क्रियाएं निष्फल होती हैं,
ऐसे समाज में, पुरुष स्वभावत: स्त्री विरोधी कैसे हो सकता है। पुरुषों का स्त्री विरोधी स्वभाव तो परिस्थिति जन्य होता है, और ऐसी परिस्थितियां प्राय: स्त्रियों द्वारा ही निर्मित होती हैं। पुरुष स्वभाव के ऊपर मिथ्या दोष मढ़ दिया जाता है। आजकल कुछ लोग कहते हैं- “स्त्री ही पति की सेवा क्यों करे, पति अपनी स्त्री की सेवा क्यों न करें।” पति-पत्नी के बीच खाई खोदने वाले लोगों ने स्त्रियों के दिमाग बिगाड़ दिए हैं। जिस कुल में स्त्री से पति और पति से स्त्री संतुष्ट रहती है, उस कुल का कल्याण होता है।
हमारे समाज में स्त्री को सीता, सावित्री और लक्ष्मी के रूप में देखा जाता है किन्तु जब स्त्री ही सूपर्णखा बन जाए तो पुरुष अपने धर्म का आचरण कहां तक कर सकता है। स्त्री यदि कोई बहाना करके अपने पति से पिण्ड छुड़ाना चाहे, तो उस पर पति का नाराज होना स्वाभाविक है। मैंने अपने आस-पास ऐसी स्त्रियां देखी हैं जो-
कातक सपखे खों गिरमा टोरें,
अपने पति सें, निछोहीं कतीं।।
कुछ स्त्रियां घर में, मैले कुचेले कपड़े पहनकर, बुरा वेष बनाए रहती हैं और बाहर निकलने के समय गहने-कपड़ों से बन-ठनकर निकलती हैं। पति की आर्थिक अवस्था अधिक कीमती कपड़े-गहने बनवाने की न हो, और स्त्री रोज-रोज तकरार करे, तो भला ऐसी गृहस्थी कब तक निभेगी? स्त्री यदि सजावट और विलासिता के लिए पति को सताये, तो पुरुष के स्वभाव पर बुरा असर होगा ही।
पता- द्वारा- श्री शंभुदयाल तिवारी
ग्रा. व पो.- बलेह, जिला सागर (म.प्र.)
18
टिप्पणियाँ