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खतरा गंभीर
बंगलादेश के रास्ते अब पाकिस्तानी घुसपैठिए भारत में आ रहे हैं, यह मानना है केन्द्रीय गृह मंत्रालय का। गत 7 फरवरी को गृह मंत्रालय से संबंधित संसदीय सलाहकार समिति की बैठक में अनेक सांसदों ने जब बंगलादेश और नेपाल के रास्ते पाकिस्तानी घुसपैठ पर सरकार से सवाल पूछे तो बैठक में मौजूद केन्द्रीय गृहमंत्री श्री शिवराज पाटिल सहित अन्य अधिकारियों ने भी स्थिति की गंभीरता पर चिंता जताई। बैठक में सरकार ने स्वीकार किया कि बंगलादेश और नेपाल सीमा की स्थिति राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक है। सरकार ने बंगलादेश सीमा पर बाड़ (कंटीले तार) लगाने के कार्य में तेजी लाने के निर्णय के साथ बैठक में यह भी घोषणा की कि बंगलादेश सीमा पर 854 किलोमीटर क्षेत्र में लगी पुरानी बाड़ को भी शीघ्र ही पूरी तरह बदल दिया जाएगा। सरकार ने यह भी स्वीकार किया कि पूर्वोत्तर भारत में बंगलादेश से सटी सीमा पर बाड़ लगाने का कार्य अपेक्षाकृत धीमा रहा है। पूर्वोत्तर के राज्यों में कार्यरत अनेक आतंकवादी संगठनों ने बंगलादेश में अपने केन्द्र बना रखे हैं।
आतंकवादियों का आरामगाह बना बंगलादेश
“बंगलादेश भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों का गढ़ बन गया है। आज भी वहां 172 आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं।” यह कहना है सीमा सुरक्षा बल के महानिदेशक श्री आर.एस. मूसाहारी का। हाल ही में एक साक्षात्कार में श्री मूसाहारी ने यह वक्तव्य दिया है। श्री मूसाहारी का यह भी कहना है कि भारत सरकार ने इन प्रशिक्षण शिविरों को खत्म करने का आग्रह बंगलादेश सरकार से किया था लेकिन इस ओर ध्यान देने की बजाए बंगलादेश सरकार ने जवाब भेज दिया कि देश में कोई आतंकी प्रशिक्षण शिविर नहीं चल रहा है। मेरा मानना है कि बंगलादेश सरकार झूठ बोल रही है। मैं पूरी तरह आश्वस्त हूं कि बंगलादेश में न केवल ये शिविर चल रहे हैं वरन् भारत के अनेक खूंखार आतंकियों ने भी वहां शरण ले रखी है।
दुनिया में अलग-थलग होता बंगलादेश
लगातार बढ़ते मुल्लावाद से बंगलादेश इतना बदनाम हो चुका है कि इस्लामी बिरादरी वाले कुवैत ने भी उस पर विश्वास करना छोड़ दिया है। 1991 में इराक द्वारा हमला करने से पहले कुवैत दुनिया के ऐसे देशों में शामिल था जहां बंगलादेश से सर्वाधिक संख्या में लोग काम करने जाते थे। अब उसने भी बंगलादेश के निवासियों को वीसा देना बंद कर दिया है। आशंका जताई जा रही है कि वीसा न बढ़ पाने से कुवैत में काम करने वाले लाखों लोग बंगलादेश वापस लौट आएंगे। इससे बंगलादेश में जनसंख्या के साथ-साथ बेरोजगार लोगों की संख्या भी बढ़ेगी। वर्तमान में यहां सत्तारूढ़ खालिदा जिया सरकार जिस तेजी से कट्टरपंथी नीति पर चल रही है, उतनी ही तेजी से पश्चिमी देश उससे किनारा कर रहे हैं। अमरीका ने भी बंगलादेशियों को “डायवर्सिटी वीसा” देना बंद कर दिया है। बंगलादेश के लिए चिंता की बात यह भी है कि वह “एशिया महासड़क परियोजना” से बाहर हो गया है। अफगानिस्तान, मध्य-पूर्वी देश और मलेशिया इस परियोजना से सड़क मार्ग संजाल के दायरे में आ जाएंगे। इस संदर्भ में बंगलादेश सरकार को दो प्रस्ताव भेजे गए थे। लेकिन बंगलादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बी.एन.पी.) की गठबंधन सरकार ने रूढ़िवादी नीति अपनाकर प्रस्ताव को ठुकरा दिया। बंगलादेश सरकार के समक्ष एक और प्रस्ताव भी पेश किया गया लेकिन उस प्रस्ताव को अन्य देशों का समर्थन हासिल नहीं हो सका। एशिया प्रशांत महासागरीय आर्थिक सामाजिक संस्था के प्रस्ताव को अगर बंगलादेश स्वीकार कर लेता तो भारत को रास्ता देना पड़ता। बंगलादेश में भारत के प्रति कट्टर रवैया अपनाकर चुनाव लड़ा जाता है, इसलिए जो कट्टरवादी नीति बंगलादेश ने अपनाई है उसका खामियाजा उसकी जनता को तो भुगतना पड़ेगा ही। भारत विरोधी रवैये के कारण ही बंगलादेश अभी तक त्रिदेशीय गैस पाइप लाइन (म्यांमार-बंगलादेश-भारत) को सहमति प्रदान नहीं कर सका है। इन सब कारणों से बंगलादेश दुनिया में अलग-थलग पड़ रहा है और निरन्तर पिछड़ता जा रहा है। इस पिछड़ेपन और कट्टरपंथ का सर्वाधिक शिकार बन रहे हिन्दुओं के बारे में पता नहीं विश्व के देश कब सोचेंगे?
जनसंख्या के साथ-साथ राजनीतिक ताकत भी खोनी पड़ी
सन् 1947 में भारत से अलग होकर पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बंगलादेश) का अस्तित्व जब दुनिया के सामने आया तब 1951 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या में मुस्लिम समुदाय 76.9 प्रतिशत तथा अल्पसंख्यक समुदाय 23.1 प्रतिशत थे। अल्पसंख्यकों की कुल आबादी में 99 प्रतिशत हिन्दू और 1 प्रतिशत बौद्ध एवं ईसाई आदि मतों के अनुयायी थे। परन्तु सन् 1947 के बाद से लगातार हिन्दुओं की जनसंख्या में गिरावट दर्ज की गई। 1951 से 1961 के मध्य ही अल्पसंख्यक समुदाय का प्रतिशत 23.1 से घटकर 19.6 पर पहुंच गया। 1961 से 1974 के मध्य जब पाकिस्तान सरकार ने पूर्वी पाकिस्तान पर अत्याचार किए, अल्पसंख्यकों का प्रतिशत पुन: घटकर 14.6 पर जा पहुंचा। 1971 में बंगलादेश के अस्तित्व में आने के बाद यह माना गया कि बंगलादेश की नई सरकार पंथनिरपेक्ष शासन के आधार पर चलते हुए अल्पसंख्यकों के जान-माल की सुरक्षा सुनिश्चित करेगी। लेकिन 1975 में बंगलादेश के राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या और सेना द्वारा किए गए तख्तापलट ने जिस साम्राज्य को जन्म दिया, वह आज तक चला आ रहा है। कहने को चुनाव होते हैं, लोकतांत्रिक शासन प्रणाली भी लागू है, लेकिन जो कुछ बंगलादेश में घटित हो रहा है उसे देखकर तो यही लगता है कि यह सब दिखावे के सिवाय कुछ नहीं है।
सन् 1954 में, जब पूर्वी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के लिए तत्कालीन प्रान्तीय विधानसभा में 72 स्थान सुरक्षित थे, कुल आबादी में अल्पसंख्यकों का प्रतिशत 23.0 था और उसी अनुपात में 309 सदस्यीय तत्कालीन प्रांतीय विधानसभा में सीटें आरक्षित की गयीं थीं। परन्तु बंगलादेश के अस्तित्व में आने के बाद जब 1973 में पहला आम चुनाव हुआ, अल्पसंख्यक वर्ग के प्रतिनिधि मात्र 11 स्थानों पर चुने गए, यद्यपि कुल 15 प्रतिशत आबादी के हिसाब से 300 सदस्यीय राष्ट्रीय परिषद् में अल्पसंख्यक वर्ग की संख्या 45 होनी चाहिए थी। इसके बाद तो जनसंख्या के साथ-साथ केन्द्रीय विधानसभा में अल्पसंख्यक वर्ग के लोगों की संख्या भी घटने लगी। 1979 के आम चुनाव में अल्पसंख्यक वर्ग के पांच सदस्य राष्ट्रीय परिषद् में निर्वाचित हुए। 1986, 1988, 1991, फरवरी 1996, जून 1996 और 2001 के आम चुनावों में अल्पसंख्यक वर्ग के क्रमश: 6,4,9, 3, 8 एवं 6 सदस्य ही निर्वाचित हुए।
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