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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक प. पू. श्री गुरुजी ने समय-समय पर अनेक विषयों पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। वे विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने पहले थे। इन विचारों से हम अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ सकते हैं और सुपथ पर चलने की प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं। इसी उद्देश्य से उनकी विचार-गंगा का यह अनुपम प्रवाह श्री गुरुजी जन्म शताब्दी के विशेष सन्दर्भ में नियमित स्तम्भ के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। -सं
चर्च के छद्म रूप को समझें
पूजा-पद्धति के भारतीयकरण से ज्यादा महत्वपूर्ण है संपूर्ण चर्च और ईसाई मत-प्रचारकों का भारतीयकरण। पूजा-पद्धति का भारतीयकरण तो धर्म-परिवर्तन की गति को तीव्र करने के लिए रणनीति भी हो सकती है। पहले भी ऐसा हो चुका है। 16वीं शती में रॉबर्ट-डी-नोबिली नामक एक यूरोपीय मत-प्रचारक आया था। उसने ब्राह्मणों का वेश धारण कर लिया था। वह यज्ञोपवीत भी पहनता था। स्वयं को ईसाई-ब्राह्मण कहता था। “क्रिस्त वेद” का प्रचार भी करता था। यह सब उसने किया भोले-भाले धर्मनिष्ठ हिन्दुओं को धर्म-परिवर्तन के जाल में फंसाने के लिए। हो सकता है इस नए प्रयास के पीछे भी वही चाल हो। आवश्यकता तो यह है कि वे विदेशी मत प्रचारकों को आमंत्रित करना बंद करें। विदेशों से आर्थिक सहायता न लें और विदेशी सभ्यता व संस्कृति के प्रति अपनी भक्ति समाप्त करें। आखिर भारत में जहां-जहां ईसाई मत प्रचार सफल हुआ है, वहां-वहां पृथकतावादी आंदोलन क्यों खड़े होते हैं?
(साभार: श्री गुरुजी समग्र : खंड 9, पृष्ठ 184-185)
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