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तन पर साधारण सी धोती और वैसा ही कुर्ता। कंधे पर अंगोछा और एक पीले रंग का झोला। उस झोले में बस एक जोड़ी कपड़े, कुछ कागज-पत्तर, 80 वर्ष की आयु में भी आंखों में दूसरों को सहज ही प्रेरित करने वाली चमक और पैरों में युवकों जैसी गति-यही हैं सबके श्रद्धेय बाबा। यानी संस्कार भारती की संकल्पना को साकार रूप देने वाले श्री योगेन्द्र। 1947 से ही अपने छोटे-छोटे प्रयासों से देशभर में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की अलख जगाने वाले बाबा ने एक-एक फूल चुनकर संस्कार भारती के कार्यकर्ताओं की लम्बी श्रृंखला खड़ी कर दी, लेकिन किसी बड़े कार्यक्रम में उन्हें मंच के आस-पास ढूंढ़ने निकलें तो वे कहीं नहीं दिखेंगे, विशिष्ट दीर्घा में भी नहीं। मिलेंगे तो कहीं सबसे पिछली पंक्ति में, वैसे ही साधारण, सरल और सहज। मकर संक्रांति के दिन (14 जनवरी) वे ऐसे ही देशभर से आए कला साधकों की भीड़ में कहीं गुम थे, उधर कुछ कार्यकर्ता गुपचुप बाबा के सहस्र चन्द्र दर्शन उत्सव की तैयारी में जुटे थे, बस चिंता यही थी कि बाबा को खबर न हो, वरना वे सब रुकवा देंगे। लखनऊ के निराला नगर स्थित माधव सभागार परिसर में पूज्य श्री गुरुजी के विशाल चित्र के समक्ष सुन्दर रंगोली से कलाकरों ने बाबा का सहस्र चन्द्र दर्शन लिखा, जिसे टकटकी बांधे देख रहा था काले आसमान में चमकता धवल चांद। बस यही चांद तो बाबा को दिखाना था। दीप-बाती, थाली में दूध, पुष्पहार-सब तैयारियों के बाद तलाश शुरू हुई बाबा की। आखिर माधव सभागार में कहीं भीड़ में गुम बाबा को ढूंढ निकाला गया और हाथ पकड़कर ले आए उस जगह जहां चांद उनकी प्रतीक्षा में था। आते-आते बाबा बोले- “अरे ताई तूने तो मुझे गिरफ्तार कर लिया” और इससे पहले कि बाबा यह समझ पाते कि उन्हें किसलिए यहां लाया गया है, श्रद्धापूर्वक उन्हें कुर्सी पर बैठाकर उनके हाथों में दूध से भरी थाली थमा दी गई, दीपक जलाया गया और बाबा के गले में माला डाली गयी-तालियों की गड़गड़ाहट के साथ गूंज उठा स्वर, “जीवेद् शरद: शतम्”।43
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