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मौलाना और पसर्नल ला बोर्ड के पास है कोई जवाब?
– मुजफ्फर हुसैन
बीते वर्ष इमराना, गुड़िया, नजमा और पाकिस्तान की मुख्तारा मुस्लिम समुदाय की चर्चित महिलाएं रहीं। उनके साथ हुए अन्याय के बादल अभी छंटे भी नहीं थे कि जनवरी, 2006 में गुड़िया की मृत्यु हो गई। परिजनों ने इसे प्राकृतिक मृत्यु बताया। हालांकि समाज का एक वर्ग ऐसा भी है जो इसे हत्या की संज्ञा देता है और इसके लिए तथाकथित मौलानाओं को जिम्मेदार ठहराता है। इस्लाम हो या भारतीय संविधान, दोनों ही इस बात पर सहमत हैं कि विवाह के मामले में अंतिम राय लड़की की होनी चाहिए, लेकिन प्रारम्भ से ही नाम की गुड़िया व्यवहार में भी “गुड़िया” बनी रही। उसके बारे में कभी परिजनों ने तो कभी पंचायत ने और कभी तथाकथित मौलानाओं ने अपने-अपने ढंग से निर्णय लेते हुए उसे गुड़िया के रूप में जीने-मरने को मजबूर कर दिया। लेकिन अब उसका 14 माह का बच्चा मतीन सारे देश से सवाल कर रहा है कि क्या मेरी मां की तरह मुझे भी सिसक-सिसक कर मरना होगा? गुड़िया के जीवित रहते आरिफ और तौफीक जिस मतीन को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे, उसके मरने के बाद मतीन को लेकर झगड़ रहे हैं।
उल्लेखनीय है कि गुडिया से विवाह के दस दिन बाद ही आरिफ को कारगिल युद्ध के चलते सीमा पर बुला लिया गया। गलती से सीमा पार करने पर उसे पाकिस्तानियों ने गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। गुड़िया और आरिफ के परिजन उसकी प्रतीक्षा करते रहे, लेकिन लाख प्रयास के बावजूद आरिफ की जानकारी न मिल सकी, इसलिए उसका दूसरा निकाह करने का निर्णय लिया गया। पर्सनल लॉ और 1939 के “डिजोल्यूशन आफ मैरिज एक्ट” के तहत यह प्रावधान है कि चार वर्ष तक यदि पति गुम रहता है और उसकी कोई जानकारी नहीं मिलती तो उसकी पत्नी दूसरा निकाह कर सकती है। यहां एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि निकाह पढ़ाने वालों ने यह कैसे जाना कि आरिफ को लापता हुए चार वर्ष पूर्ण हो गए हैं? क्या उन्होंने इस अवधि को लिखित निकाहनामा में देखा है? अगर चार वर्ष बाद यह दूसरा निकाह हुआ था तब तो ठीक था, वरना थोड़ी अवधि कम हो तब भी उक्त निकाह वैध नहीं हो सकता।
इस्लामी शरीयत में तलाक का एक और विकल्प है- “खुला” यानी पत्नी भी चाहे तो अपने पति को तलाक दे सकती है। पर पुरुष प्रधान मुस्लिम समाज महिला को शरीयत द्वारा दिए गए इस अधिकार को कभी बताता नहीं है। इस मामले में पति आरिफ के गुम होने पर गुड़िया शरीयत कोर्ट अर्थात निकाह पढ़ाने वाले काजी या इस प्रकार का निर्णय देने वाली संस्था के पास जाकर पति के लापता होने के आधार पर तलाक ले सकती थी। यदि आरिफ से गुड़िया का “खुला” हो जाता तो उससे पुन: निकाह का सवाल ही पैदा नहीं होता और दूसरे विवाह के कारण जो अड़चनें पैदा हुईं उनसे गुड़िया बच जाती। पर ऐसा भी नहीं हुआ। गुड़िया का “खुला” नहीं लेना इस बात का सबूत है कि वह आरिफ की ही पत्नी थी। इसीलिए आरिफ के पुन: स्वदेश लौटने पर कहा गया कि गुड़िया पुन: अपने पहले पति आरिफ की पत्नी बन जाए। यहां भी गुड़िया की स्वीकृति लेने के कोई सबूत नहीं मिलते।
लेकिन क्या तौफीक से तलाक के पश्चात गुड़िया ने तीन माह और दस दिन की “इद्दत” का पालन किया? वह आरिफ की पत्नी के रूप में गर्भवती होती है। इसकी पुष्टि आरिफ भी करता है और तौफीक भी, लेकिन दोनों ही भावी बच्चे को स्वीकार करने से इंकार करते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जब गुड़िया गर्भवती थी उसी समय उसका आरिफ से निकाह हुआ। क्या गर्भवती महिला का निकाह जायज है? इसका उत्तर मौलानाओं और इस्लामी विद्वानों से आना शेष है।
अब गुड़िया की मौत के बाद आरिफ और तौफीक मतीन का पालन-पोषण करने को लेकर झगड़ बैठे हैं। आरिफ ने कहा कि जो पिता पिछले 6 माह से बच्चे को देखने नहीं आया, उसके मन में अचानक प्यार क्यों उभरा? लेकिन तौफीक ने कहा कि चूंकि उसकी पत्नी बीमार थी, ऐसी स्थिति में यदि वह मतीन को लेने जाता तो उसे मानसिक दु:ख होता, इसलिए मानवीय आधार पर वह बच्चे को लेने नहीं गया। दोनों की दलीलें अपनी-अपनी जगह हैं, लेकिन भारतीय कानून और शरीयत, दोनों के अनुसार मतीन तौफिक का बच्चा है इसलिए उसे मिलना चाहिए। हालांकि बाद में आरिफ ने शपथ पत्र देते हुए मतीन को तौफीक को सौंप दिया। आरिफ की भावना समझी जा सकती थी, लेकिन इस्लामी कानून में गोद लेने की प्रथा नहीं है। इसलिए मतीन को न तो आरिफ का नाम मिलता और न ही उसे आरिफ की सम्पत्ति में कोई हिस्सा प्राप्त होता। कुल मिलाकर मतीन आरिफ का अधिकृत पुत्र नहीं कहलाता। यदि गुड़िया जीवित रहती तभी मतीन सात साल तक आरिफ के पास मां के कारण रह सकता था। वह उसका पालन-पोषण करती और तौफीक से भरण-पोषण का खर्च ले सकती थी, लेकिन मां न होने की स्थिति में अब तौफीक को पूर्ण अधिकार हैं।
हालांकि अब बड़ा सवाल यह है कि इन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार कौन है? इस्लामी शरीयत सम्बंधी जानकारी उच्च वर्ग अंग्रेजी से प्राप्त करता है या फिर अरबी से? भारत का मध्यम वर्गीय मुसलमान इन दोनों भाषाओं से परिचित नहीं है। उर्दू भी अब मुसलमान पढ़ना नहीं चाहते क्योंकि इससे उनकी रोजी-रोटी नहीं चलती। इसलिए आधे-अधूरे तथाकथित मौलाना सही निर्णय लेने में असमर्थ होते हैं। फतवे से वे समाज को डराते रहते हैं। मुस्लिमों के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें शरीयत सम्बंधी जानकारी प्रचलित भाषा से मिल सके। राष्ट्रीय कानून के अनुसार यदि पति सात वर्ष तक लापता हो तो उसे मृत मानकर उसकी पत्नी का दूसरा विवाह हो सकता है। शिया कानूनों के तहत भी सात वर्ष का प्रावधान है, इसलिए अच्छा होगा कि मुसलमानों के सभी पंथ एकमत हो जाएं। मुसलमान शरीयत कानून में एकमत नहीं हैं इसलिए या तो वे एक शरई कानून की व्यवस्था करें और यदि वे ऐसा करने में लाचार हैं तो फिर समान नागरिक कानून को स्वीकार करके अपनी जिम्मेदारी निभाएं, ताकि समाज को राहत मिल सके। इस दृष्टि से मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड न तो मुसलमानों को शिक्षित करने में और न ही शरीयत की रक्षा करने में सफल रहा है, इसलिए उसे चाहिए कि अब वह यह काम संसद को सौंप दे। पंचायतों के गैरजिम्मेदाराना फतवों के कारण ही उच्च न्यायालय ने कुछ समय पूर्व इन पंचायतों की सत्ता को अवैध घोषित किया था। अत: सरकार को चाहिए कि वह इस प्रकार की पंचायतों को ही समाप्त करे।
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