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संस्कृति-सत्य

by
May 2, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 02 May 2006 00:00:00

मुस्लिम कवि का संस्कृत प्रेम

गंगा-जमुनी संस्कृति की छटा

वचनेश त्रिपाठी “साहित्येन्दु”

हरदोई (उ.प्र.) के बिलग्राम नामक कस्बे में मुझे एक बार हिन्दी कवियों के विषय में जानने की जिज्ञासा हुई तो वहां अतीत के ऐसे मुस्लिम कवि भी जानकारी में आये जो हिन्दी में ही भागीरथी की महिमा इन पंक्तियों में व्यक्त कर गये कि,

“ऐ री! सुधामयी भागीरथी!

आक-धतूर चबात फिरैं,

बिष खात फिरैं शिव तेरे भरोसे…”

अर्थात् हे अमृतमयी गंगे! शंकर जी, जो विष भी पचा जाते हैं, आक वृक्ष के पत्ते और विषाक्त धतूरा भी खा जाते हैं- वह केवल तेरी शक्ति के सहारे, क्योंकि तुम तो प्रत्यक्ष उनके शीश पर विराजमान हो।

उनसे बहुत पहले सन् 1713 ई. में जब फर्रुखसियर दिल्ली का बादशाह था तो सैयद बंधु ही उसके सर्वे-सर्वा बन गए। उनके बड़े भाई का नाम था सैयद हुसैन अली, जिन्हें “अमीरुल उमरा” कहा गया, निजी दरबारी थे। बिलग्राम के ही हिन्दी-उर्दू-फारसी के एक विद्वान कवि हुए अब्दुल जलील, जिनकी चिट्ठियां सन् 1798 में छपी एक पुस्तक “ओरिएंटल मिसलेनी” में दर्ज हैं। इन्हीं अमीरुल उमरा के पुत्र-जन्म पर बिलग्राम के अब्दुल अजीज ने अपने बेटे को चिट्ठी में लिखा कि,

“सेह तारीख अरबी व फारसी व हिन्दी तवल्लुद

पिसरे मजकूर दर रंगे अलाहिदा व असलून दुआ

गुफ़्ता अज़ नज़रे फ़ैज़ असर गुज़रानीद

विसियारमहज़ूज़ शुदन्द”

अर्थात् “अमीरुल उमरा के बेटा पैदा होने पर मैंने अरबी-फारसी और हिन्दी में बेटे के पैदायशी दिन की तारीख अलग-अलग रंग में दर्ज कीं”- अलग-अलग रंग से यहां उनका इशारा उनके द्वारा लिखे एक हिन्दी दोहे को भी फारसी लिपि में लिखे जाने का था। स्वयं उन्हीं का रचा यह दोहा था –

“पुत्र-जन्म संवत कहूं, बंस हुसैन महीप।

चिरजीवै जुग-जुग सदा, यह हुसैन कुलदीप।।”

यह उनका ही रचा हुआ था, जिसे उन्होंने फारसी लिपि में लिखा था। इसमें जो “पुत्र जन्म”, “महीप”, “चिरजीवै”, “जुग-जुग” और “कुलदीप” सरीखे शब्द संयुक्त हुए हैं, वे किस संस्कृति का साक्ष्य संजोते हैं, यह स्पष्ट है। ऐसे ही उनके एक दूसरे पत्र में हिन्दी कवि “आलम”, “हरबंस मिश्र” और “दिवाकर” का नामोल्लेख करते हुए उनके “कवित्त” इकट्ठा करके अपने बेटे को इसलिए दिल्ली भेज देने को लिखा था क्योंकि खुद नवाब को हिन्दी कवित्त प्रिय थे, उसी ने ऐसे सब कवित्त सैयद से मंगवाने को कहा था और सैयद ने फिर बेटे को वे कवित्त हिन्दी (देवनागरी) लिपि में ही भेजने को पत्र में लिखा-वह पत्र इस प्रकार है: –

“रोज़े दर मजलिस आली ज़िक्र कवितहाय आलम दर्मियान आमद। नवाब साहब अज़ कवितहाय आलम महज़ूज़ अन्द। व बन्दा फर्मूदन्द कि कवितहाय आलम बराय बहम रसानन्द बिनावर आंकल मे मीकरदद कि हर कदर कवित आलम व सीख की हर दो यके अन्द अज़ पेश हरबंस मिसिर व दिवाकर व पिसरान गेहसी बदीगरमर्दुम वहम रसद दरख़त हिन्दी नवीसांदायक जुज हर चे मयस्सर -दो जुज आयद जूद बफरस्तन्द व दरखत हिन्दी तहरीफ कम अस्तब हिन्दी रा कि फारसी नवीसन्द दर ख्वांदन तहरीफ विसियार वाकै मी शबद।” अर्थात् नवाब साहब ने आलम कवि के कवित्तों की चर्चा के बीच बताया कि उन्हें आलम कवि की कविताएं बहुत पसंद हैं-इसलिए उन्होंने मुझसे कहा कि आजम कवि के जो भी कवित्त मिल सकें, वे इकट्ठा कराकर दे दो । इस लिए तुम (बिलग्राम के) कवि हरबंस मिश्र, दिवाकर, कवि गेहसी के बेटों व दीगर लोगों से आलम के जो भी कवित्त या “सीख” (अर्थ कविता से ही है) मिलें, उन्हें एक बार-दो बार में हिन्दी (देवनागरी) लिपि में लिखकर भेज दो, क्योंकि फारसी लिपि में लिखने से हिन्दी शब्द कई ढंग से पढ़े जा सकते हैं (शुद्ध रूप में नहीं)।” उल्लेखनीय है कि आलम कवि हिन्दी के ही थे। इन पत्रों से उस मुगल जमाने के दरबारों में भी ब्राज भाषा और अवधी की कविताओं (छंदों) का कितना महत्व था, सिद्ध होता है।

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