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स्वार्थी ईसाई समूह ही असहिष्णुता फैला रहे हैंभारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री राजनाथ सिंह ने गत 20 मई को एक पत्र लिखकर पोप बेनेडिक्ट-16वें को अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराया है। यहां प्रस्तुत हैं उसी पत्र के सम्पादित अंश -मान्यवर,हम सभी भारतीयों को आपके उस वक्तव्य से तकलीफ हुई है जिसमें आपने हमारे राजदूत को भारत के कुछ क्षेत्रों में पांथिक असहिष्णुता के बारे में बताते हुए कहा है कि मतांतरण पर प्रतिबंध असंवैधानिक है और यह रद्द होना चाहिए। जहां तक मतांतरण का मुद्दा है, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 1977 में पादरी एस. स्टेसलस बनाम मध्य प्रदेश सरकार के मामले में सरकार द्वारा बनाए गए मतांतरण प्रतिबंधक कानून को मान्य किया था और इसे संविधान सम्मत घोषित किया था। सन् 1967 और 1968 में मध्य प्रदेश और उड़ीसा की कांग्रेस सरकारों ने ही तब मतांतरण विरोधी कानून पास किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा था कि संविधान किसी सम्प्रदाय को अपने प्रचार-प्रसार की स्वतंत्रता देता है किन्तु वह किसी के मतान्तरण का अधिकार नहीं देता। सर्वोच्च न्यायालय ने तब सामूहिक मतांतरण को, चाहे वह बलपूर्वक, छल-छद्म या किसी व्यक्ति को सहायता, राहत या लालच देकर या उसकी विपत्ति, गरीबी और अज्ञानता की आड़ लेकर किया गया हो, को पंथनिरपेक्षता विरोधी करार दिया था। आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि देश के कई राज्यों, जैसे उड़ीसा, मध्य प्रदेश के अतिरिक्त तीन अन्य राज्यों छत्तीसगढ़, अरुणाचल प्रदेश और गुजरात में भी पहले से मतांतरण विरोधी कानून लागू है।मैं आपके ध्यान में यह भी लाना चाहता हूं कि भारत का ईसाई समाज देशभक्त समाज है किन्तु कुछ स्वार्थी समूह अन्तरराष्ट्रीय ईसाई संगठनों से अधिकाधिक आर्थिक सहायता लेने के लिए देश में असहिष्णुता को बढ़ावा दे रहे हैं। भारत एक सम्प्रभु राष्ट्र है और इसे अपनी सीमाओं के अन्तर्गत अपने नागरिकों के हित के लिए कोई भी कानून बनाने का अधिकार है।शुभकामनाओं के साथ,आपका,राजनाथ सिंहपोप जवाब दें!जो वेटिकन में नहीं हो सकता, वह भारत में क्यों?-अशोक सिंहल, अन्तरराष्ट्रीय अध्यक्ष, विश्व हिन्दू परिषददेश में अन्तर-पांथिक सद्भाव बनाने के लिए “पूर्वजों की आस्था बनाए रखने का अधिकार” मौलिक अधिकार होना चाहिए क्योंकि यदि प्रत्येक नागरिक को अपने पूर्वजों की उपासना पद्धति को बनाए रखने के अधिकार को स्वीकार कर लिया जाए तो न केवल मतांतरण की समस्या का समाधान होगा वरन् इससे अन्तर-पांथिक झगड़े भी नहीं होंगे।पोप ने मतांतरण के अधिकार को मौलिक अधिकार बताकर तथा राजस्थान मतांतरण विरोधी कानून पर आपत्ति जताकर हमारे सर्वोच्च न्यायालय का अपमान किया है। सर्वोच्च न्यायालय ने 1977 में इस मुद्दे पर ऐतिहासिक निर्णय देते हुए कहा था कि संविधान की धारा 25 किसी को भी मतांतरण का अधिकार नहीं देती। अतएव मतांतरण असंवैधानिक गतिविधि है और यह राज्य का उत्तरदायित्व है कि वह अवैध मतांतरण को कानून द्वारा प्रतिबंधित करे।दूसरी बात यह है कि क्या पोप वेटिकन में भी ईसाइयों को अन्य पंथों में मत परिवर्तन की अनुमति देते हैं? वेटिकन स्वयं एक राज्य है। यदि वेटिकन में मतांतरण की अनुमति नहीं तो पोप भारत में हिन्दुओं के मतांतरण की आशा कैसे कर सकते हैं?पोप का साम्राज्यवादी मिशन समझें भारतवासी-आर.एल. फ्रांसिस, अध्यक्ष, पूअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंटभारत में ईसाई मिशनरियों, विशेषकर कैथोलिक चर्च द्वारा “काम” (मतान्तरण) की धीमी रफ्तार पर वेटिकन दुखी है। वेटिकन के मुताबिक भारत में पांथिक असहिष्णुता के कारण ईसाइयत की गाड़ी रफ्तार नहीं पकड़ पा रही है। कुछ राज्य सरकारों द्वारा मतांतरण विरोधी कानून लाए जाने को वेटिकन चर्च के काम में रुकावट डालने की कार्यवाही मानता है। इसी कारण पोप बेनेडिक्ट 16वें ने ऐसे कानूनों के प्रति अपनी नाराजगी जताई है।परन्तु पोप जब इस प्रकार की टिप्पणी करते हैं तो इसके पीछे छिपी उनकी भावना को समझना बहुत जरूरी हो जाता है। पश्चिमी देशों के संसाधनों से युक्त सामाजिक ईसाई संगठन भारत में चर्च के साम्राज्यवाद के विस्तार में लगे हुए हैं। देश की वंचित जातियों, जनजातियों व कुछ स्वतंत्र पांथिक समूहों पर उनकी नजरें लगी हुई हैं। पंजाब में सिख समुदाय के पिछड़े वर्गों का जिस प्रकार बड़े पैमाने पर मतांतरण हो रहा है, उसी प्रकार महाराष्ट्र के विदर्भ क्षेत्र में नव-बौद्धों का भी मतान्तरण हो रहा है। चर्च प्रेरित संगठन योजनाबद्ध रणनीति पर काम कर रहे हैं। देश के 16 करोड़ अनुसूचित जाति के लोगों को हिन्दू धर्म से अलग पंथ की मान्यता दिलवाने की योजना उनकी रणनीति का सबसे प्रमुख हिस्सा है। वेटिकन की योजना बहुत गहरी और भारतीय पंथों के लिए भयावह है, जिसके संकेत पोप बेनेडिक्ट 16वें ने अपने वक्तव्य में दिए हैं। वेटिकन का रवैया भारत के दलित ईसाइयों के प्रति हमेशा सौतेला ही बना रहा है। मतांतरित दलित ईसाई बनने के बाद और भी उपेक्षित, दयनीय हालत झेल रहे हैं, लेकिन पोप इस अन्याय पर चुप्पी साधे हुए हैं।33
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