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दिशादर्शन

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Apr 6, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Apr 2006 00:00:00

आत्मदैन्य का उत्सवतरुण विजयजब भी संकट आए, हताशा के बादल सामने घिरे दिखे, चुनौतियां कठिन हुईं और समाधान सूझा नहीं तो राम नाम ही काम आया। राम नाम में बहुत शक्ति है। अब तो राम नाम बैंक भी बना हुआ है। लाखों करोड़ों लोग उसमें राम नाम जपकर अपनी सौभाग्य निधि बढ़ाते रहते हैं। भारत की भी स्थिति आजकल ऐसी हो चली है कि राम नाम का सहारा ही बड़ा दिखता है। मुस्लिम आक्रमणकारियों के समय भी जब भारतीय राजा आपसी फूट, द्वेष, घृणा और लड़ाई-झगड़ों में फंसे रहकर कहीं-कहीं विदेशियों के हाथों में सत्ता सौंप देते थे तो जनता राम नाम के सहारे अपने धर्म, संस्कार, जीवन को बचाते हुए उचित समय और अवसर की प्रतीक्षा किया करती थी। जब अपने ही सहधर्मी हिन्दू ऐसे हो जाएं कि उन्हें अपने कोठी, कार और बंगले बड़े और देश, समाज व धर्म छोटे दिखने लगें, जब हिन्दू ही हिन्दू पर प्रहार होते देख खुशी मनाते हों, जब उन्हें लगता हो कि उनका हिन्दूपन केवल पूजा-पाठ, हवन-यज्ञ आदि तक सीमित है ताकि वे विधायक हों तो मंत्री बन जाएं और यदि मंत्री हों तो ज्यादा कमाई और प्रभाव वाला विभाग मिल जाए तो परिणाम यही होगा। मुगलों, अंग्रेजों से लेकर अब तक ऐसा ही हुआ है। लड़के की नौकरी, शादी, समृद्धि आदि जैसे विषय के लिए हनुमान जी, दुर्गा जी और राम जी। देश में अगर राम, हनुमान और दुर्गा के उपासकों पर संकट बढ़ रहे हैं, उनकी हत्याओं का सिलसिला थम नहीं रहा है या वे हतबल किए जा रहे हैं, तो यह सब सत्ता और विपक्ष दोनों तरफ बैठे हिन्दुओं के लिए उसी अनुपात में महत्वपूर्ण होता है जिस अनुपात में इन समस्याओं को उठाने पर वोट मिलने की संभावना हो। वोट अगर हिन्दू समाज को तोड़कर, उसके विभिन्न घटकों को आपस में लड़वाकर मिलते हैं तो ऐसा काम जरूर किया जाएगा।जैसे आरक्षण का ही मामला है। जाति के आधार पर आरक्षण की आग को असमय सुलगाकर कांग्रेस ने भारत की काया पर घाव किया हैं। लेकिन सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, दोनों की इस ओर देखने की दृष्टि यह नहीं है कि वोट से बड़ा देश है इसलिए ऐसा रुख अपनाया जाए जिससे देश के भविष्य पर आंच न आए, भले ही उसके कारण हमें कुछ वर्गों के वोट न मिलें। पर इसकी परवाह किसे है।राजनीतिक और समाचार माध्यमों में प्रकट रूप से हिन्दू विरोध या हिन्दू पराभव का उत्सव मनाने की मानसिकता मुख्यधारा का अंग बन गई है। और विडम्बना यह है कि यह पढ़े-लिखे, सम्पन्न और स्वयं को भद्र-कुलीन वर्ग का हिन्दू मानने वालों के संचालन में ही हो रहा है। नेपाल के हिन्दू राष्ट्र न रहने पर भारत के समाचार पत्रों और चैनलों पर ऐसे खुशी मनाई गई मानो धरती से एक बड़ा बोझा हट गया हो। जो लोग पत्रकारिता में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का नारा बुलंद करते हैं, वे केवल एक तरफा विचार और समाचार छापते हैं और दूसरी प्रकार के यानी हिन्दू संवेदनाओं से जुड़े समाचारों और विचारों पर अनेक अखबारों और चैनलों पर प्रतिबंध लगा रहता है।नेपाल में माओवादियों ने हजारों लोगों की हत्याएं कीं, लेकिन भारत के समाचार पत्र उन पर इस कदर मोहित हैं कि उनके क्रांतिकारी अदाओं में चित्र और पूरे-पूरे पृष्ठ के साक्षात्कार कृतज्ञ होकर छापे जाते हैं। उनके माओवादी माफिया दल के सदस्यों के नाटकीय ढंग से खिंचाए जाने वाले फोटो इस प्रकार छापे जाते हैं मानो वे गुलामी के खिलाफ लड़ रहे क्रांतिकारी हों। माओवादी किस प्रकार दुकानदारों, कर्मचारियों, उद्योगपतियों आदि से जबरन उगाही करते हैं, नेपाल की आर्थिक स्थिति का सहारा बने भारतीय उद्योगों से उन्होंने करोड़ों रुपए फिरौती के मांगे हैं, भारतीय मूल के लोगों को उन्होंने नेपाल से निकलने की धमकी दी है, हालांकि वे पांच-पांच, छह-छह पीढ़ियों से नेपाल के मूल निवासी हैं, इन माओवादियों को पाकिस्तान की आई.एस.आई. और बंगलादेश से किस प्रकार मदद मिल रही है, ये सब बातें या तो भारतीय राजनेता और मीडिया वाले छिपाते हैं या सरसरी तौर पर और नगण्य महत्व के साथ छापते हैं।नेपाल की संवैधानिक हिन्दू राष्ट्र की स्थिति खत्म करने के विरुद्ध आंदोलन होना सरल नहीं है, क्योंकि 80 वर्षीय अस्वस्थ प्रधानमंत्री के नेतृत्व में जो सरकार है वह माओवादी आतंकवाद से जनता की रक्षा करना तो दूर उनके अराजक और हिंसक व्यवहार को नियंत्रित तक कर पाने में अक्षम है। इसके बावजूद बीरगंज, विराट नगर जैसे अनेक शहरों में हजारों की संख्या में नेपाली हिन्दू सड़कों पर उतर आए और उन्होंने नेपाल की हिन्दू राष्ट्र वाली स्थिति खत्म करने के विरुद्ध प्रदर्शन किए। परन्तु माओवादियों के चित्र पहले पन्ने पर छापने वाले भारतीय अखबारों ने हिन्दू राष्ट्रवादी नेपाली जनता के विरोध को महत्व नहीं दिया। नेपाल में दमन, विचार स्वातंत्र्य के हनन और लोकतंत्र के नाम पर अलोकतांत्रिक एकतरफापन का जो दौर माओवादी शुरू करना चाहते हैं उसका भारत के सेकुलर और कम्युनिस्ट इसलिए साथ देंगे क्योंकि वह हिन्दू संवेदनाओं और भावनाओं पर प्रहार करेगा। पहले से ही इस प्रकार का मिथ्या वातावरण बनाया जा रहा है जिससे लगे-1- जो माओवादियों का विरोध कर रहे हैं वे कम पढ़े-लिखे, पुरातनपंथी, राजा समर्थक हिन्दू हैं और वे नेपाल में मूलत: लोकतंत्र नहीं चाहते।2- नेपाल में, जो देश को हिन्दू राष्ट्र बनाए रखने के पक्षधर हैं वे लोकतंत्र विरोधी और अल्पमत वाले ब्राह्मणवादी हैं।इसका एक परिणाम यह हुआ है कि जब सरकार कहती है कि “वह लोकतंत्र विरोधियों को सहन नहीं करेगी” तो इसका अर्थ होता है- माओवादी विरोधी हिन्दू राष्ट्र समर्थकों को कुचला जाएगा।वास्तविकता यह है कि नेपाल संवैधानिक रूप से हिन्दू राष्ट्र बने रहते हुए भी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था का प्रतिपालक रहा है। यह पिछले 14-15 वर्षों के प्रजातांत्रिक अनुभव से सिद्ध होता है।नेपाल की सांस्कृतिक अस्मिता के समर्थक ही सच्चे लोकतंत्रवादी हैं, इस सचाई को जानबूझ कर छुपाया जाता है ताकि झूठ के सहारे उनके दमन को उचित करार दिया जा सके।तानाशाह व हिंसक नेपाली माओवादी नेपाल की सेना के उसी प्रकार से “शुद्धिकरण” की दिशा में बढ़ रहे हैं जैसा चीन में कोमिंतांग की सेना का माओ की जनमुक्ति सेना (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) में रूपांतरण के समय किया गया था। उस समय कोमिंतांग की सेना के “अवांछित” सैनिकों को चुन-चुनकर मारा गया या निर्वासित किया गया और माओ की गुरिल्ला पीएलए ही चीन की राष्ट्रीय सेना के रूप में स्थापित हुई।नेपाल में भी यही होने की आशंका है। इसका सीधा असर नेपाल से सटी 1700 किलोमीटर लंबी भारतीय सीमा की सुरक्षा पर पड़ेगा। लेकिन इस बारे में भारत में शायद ही चिंताएं व्यक्त की जा रही हों क्योंकि सुरक्षा के सारे विषय हिन्दू पराभव की “खुशी” के आगे गौण हो गए हैं।इसी प्रकार जब कहीं मंदिर तोड़े जाते हैं या दिल्ली में हिन्दुओं के दर्द को अभिव्यक्त करने वाली कोई प्रदर्शनी लगती है तो वह उपेक्षा योग्य फालतू की बात मान ली जाती है। वडोदरा में हिन्दुस्थान के हर सेकुलर चैनल के संवाददाता और रिपोर्टर पहुंचे। लेकिन डोडा में लगातार हिन्दुओं की हत्या का सिलसिला जारी है, उन गांवों से आपने कितने चैनलों पर हिन्दू ग्रामीणों के दु:ख, दर्द और वेदना को सुना या कितने समाचार पत्रों में असुरक्षा में जीवन जी रहे हिन्दुओं की हिम्मत की चर्चा की गई? इस्लामी जिहादी मानसिकता की बर्बरता और नेपाली हिन्दू राष्ट्रवादी नागरिकों के मन की भावनाएं भारत के सेकुलर समाचार पत्र नहीं बल्कि अमरीका के समाचार पत्र छापते हैं। इस हद तक है सेकुलरों की हिन्दू संवेदनाओं से नफरत। यह आत्मदैन्य का उत्सव नहीं तो और क्या है? जो कुछ भी हिन्दू है या हिन्दूपन से जुड़ा है उससे दूरी रखना हमारे आधुनिक और उदारवादी होने की दिशा में आगे बढ़ने का समानार्थी मान लिया गया है। यह स्थिति बदले बिना न्याय और विचार स्वातंत्र्य की कोई भी बात बेमानी है।7

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