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मदरसों की सियासत

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Apr 6, 2006, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Apr 2006 00:00:00

सरकार ने कहा, अलग से मदरसा शिक्षा बोर्ड नहीं

-फिरदौस खान

भारत में मदरसों की भूमिका को लेकर अक्सर सवाल उठाए जाते रहे हैं। पाकिस्तान के मदरसों में आतंकवादियों को प्रशिक्षण देने और उनके जरिए भारत में अशांति फैलाने के कारण यहां के मदरसों को भी शक की नजर से देखा जाने लगा है। ऑल इंडिया तालिमी वा मिल्ली फाउंडेशन द्वारा करीब तीन साल पहले कराए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश में छोटे-बड़े मदरसों की संख्या 3 लाख 20 हजार है। आज जब आतंकवाद की समस्या विश्व के सामने एक चुनौती बनकर खड़ी है और मदरसों को भी इससे जोड़कर देखा जा रहा है तो ऐसे में केन्द्र सरकार के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह इनका सर्वेक्षण कराए, ताकि वास्तविक स्थिति का पता चल सके। मदरसों के आधुनिकीकरण और इनके लिए राष्ट्रीय स्तर पर अलग से एक शिक्षा बोर्ड स्थापित करने के मुद्दे को लेकर इन दिनों एक और बहस छिड़ी हुई है।

गत 16 मई को मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री एम.ए.ए. फातमी ने लोकसभा में यह कहकर संप्रग सरकार की मंशा जाहिर कर दी कि देश के सभी मदरसों का एक अलग शिक्षा बोर्ड स्थापित करने का प्रस्ताव लाने की कोई योजना नहीं है। केन्द्र सरकार राजेन्द्र सच्चर समिति के जरिए मुसलमानों की गणना करने की बजाय देशभर में फैले छोटे-बड़े मदरसों का सर्वेक्षण कराती और उनके पंजीकरण की व्यवस्था करती तो अच्छा होता, मगर सियासत के चलते ऐसा नहीं किया गया।

ऑल इंडिया तालिमी वा मिल्ली फाउंडेशन के अध्यक्ष मौलाना मोहम्मद इसरारुल हक कासिमी मदरसों के आधुनिकीकरण का समर्थन करते हैं, लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि इससे मदरसों के अस्तित्व पर आंच नहीं आनी चाहिए। उनका मानना है कि मदरसों का मूल उद्देश्य बच्चों को दीनी तालीम देना है। अगर बच्चों को दीनी तालीम देने के साथ ही उन्हें स्कूली शिक्षा भी जाए तो उन्हें कोई हर्ज नहीं, मगर इस्लामी शिक्षा को खत्म करने का प्रयास किसी को मंजूर नहीं होगा। इसके अलावा मदरसों के प्रबंधन में सरकार के हस्तक्षेप को वह सही नहीं मानते। उनका कहना है कि इससे सरकार और मदरसों के प्रशासन के बीच टकराव की स्थिति ही पैदा होगी।

उल्लेखनीय है कि भारत में मदरसों की बुनियाद मुगलकाल में रखी गई थी। इनमें बच्चों को मजहबी शिक्षा के अलावा अन्य विषयों को भी पढ़ाया जाता था, मगर अंग्रेजी शासनकाल में तत्कालीन शिक्षा पद्धति को नकार कर मदरसों को मजहबी शिक्षा तक ही सीमित कर दिया गया। परिणामस्वरूप, आज भी मदरसों में पुरातनपंथी शिक्षा प्रणाली लागू है। मदरसे का पाठ्यक्रम करीब 17 साल तक चलता है। पहले दर्जे को तहतानिया कहा जाता है, जो प्राइमरी के स्तर का है। दूसरे दर्जे को वस्तानिया (मिडल) और तीसरे दर्जे को फौकानिया (सेकेंडरी) कहा जाता है। इसके बाद के पाठ्यक्रम को मौलवी कहते हैं, जो सीनियर सेकेंडरी के समान होता है। इसके बाद दो साल का आलिम का पाठ्यक्रम होता है, जो बीए के बराबर माना जाता है। फिर इसके बाद फाजिल का पाठ्यक्रम होता है, जो एम.ए. की डिग्री के समकक्ष होता है। भारत में 14 मुख्य उलूम हैं जहां इस तरह की शिक्षा दी जाती है। इसमें देवबंद का दारूल उलूम,नदवा का दारूल उलूम, सहारनपुर का मजाहिरे उलूम, वाराणसी का जामिया सलाफिया, बंगलौर का उदू उलूम, मुंगेर का जामिया रहमानी, हैदराबाद का दारूल उलूम, मालीगांव का महदे मिल्लत और मुबारकपुर का मदरसा अशरफिया प्रमुख हैं।

केन्द्र सरकार ने अपनी दसवीं पंचवर्षीय योजना में देश के पांच हजार मदरसों के आधुनिकीकरण करने की योजना बनाई है। इसके लिए 83 करोड़ 92 लाख रुपए के बजट का प्रावधान किया गया है। मदरसों के आधुनिकीकरण पर वर्ष 2002-03 में 28 करोड़ 45 लाख रुपए और 2003-04 में 29 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे। योजना के तहत हर मदरसे के दो अध्यापकों में से प्रत्येक को विज्ञान, गणित, अंग्रेजी और सामाजिक अध्ययन जैसे आधुनिक विषय पढ़ाने के लिए तीन हजार रुपए मासिक वेतन दिया जाता है। इसके अलावा प्रत्येक मदरसे के लिए विज्ञान व गणित की सामग्री खरीदने हेतु सात सौ रुपए तथा पुस्तक बैंकों और पुस्तकालयों के सुदृढ़ीकरण के लिए सात सौ रुपए का अतिरिक्त अनुदान भी दिया जाता है। इस तरह की सहायता देशभर के मदरसों के लिए उपलब्ध है। इसके बावजूद मदरसे इसमें दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं।

मदरसों की पुरातनपंथी शिक्षा पद्धति की आधुनिक कम्प्यूटर युग में कहीं कोई मांग नहीं है। इसके अलावा यहां से शिक्षा प्राप्त विद्यार्थियों की मानसिकता भी संकीर्ण हो जाती है और वे अन्य बच्चों से काफी पिछड़ जाते हैं। 1857 के बाद सर सैयद अहमद खां और 1887 में मौलाना शिब्ली नोमानी ने मदरसों में आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देने की वकालत करते हुए इस क्षेत्र में क्रांति लानी चाही तो कठमुल्लाओं ने उनका जमकर विरोध किया। यहां तक कि उन्हें इस्लाम विरोधी करार देते हुए काफिर तक कह दिया। ऐसे समाज में सभी मदरसों का आधुनिकीकरण करना कोई आसान काम नहीं है।

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