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बौद्ध देश थाईलैण्ड में इस्लामी आतंक

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Apr 6, 2006, 12:00 am IST
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दिंनाक: 06 Apr 2006 00:00:00

सबल नेतृत्व, सफल प्रतिकार

-सूर्यनारायण सक्सेना

ओसामा बिन लादेन के अलकायदा या कई अन्य नामों से माने जाने वाले इस्लामी आतंकवादियों से कुछ इस्लामी देशों समेत प्राय: सारा संसार त्रस्त है। हो भी क्यों, इस्लामी आतंकवाद के तीन घोषित शत्रु हैं: इस्ररायल समेत सारे यहूदी, अमरीका और हिन्दू। हिन्दू बहुल देश होने के नाते भारत तो इस रक्त रंजित आतंकवाद का शिकार बना हुआ है 11 सितम्बर की दुर्दान्त घटना ने अमरीका को भी दहला दिया और जता दिया कि इस्लामी आतंकवाद की मार से संसार की बड़ी से बड़ी शक्ति भी बाहर नहीं है। इधर फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन में जो बम विस्फोट और आन्दोलन हुए हैं, उनसे तो ऐसा ही लगता है कि समूचा ईसाई जगत ही इस महामारी की चपेट में है।

संसार का एक बहुत बड़ा भाग बौद्ध मतावलम्बी है, पर इस्लामी आतंकवादी मूर्तिपूजक हिन्दुओं से उन्हें अलग नहीं मानते और जापान को छोड़कर (चीन, वियतनाम आदि देश कम्युनिस्ट है यद्यपि वहां भी बौद्ध मतावलम्बी काफी संख्या में हैं) श्रीलंका, म्यांमार, और थाईलैण्ड आदि सभी देशों में यह जिहादी आतंकवादी शांति, स्मृर्ति और संस्कृति का सत्रु बना हुआ है।

थाईलैण्ड के तीन दक्षिणी प्रान्त-पट्टानी, याला और नरभीवाट- मुस्लिम बहुल (लगभग 80 प्रतिशत) हैं। जहां मिली-जुली आबादी हो और मुसलमानों का बहुमत हो वहां अल्पसंख्यकों के प्रति उनका रवैया एक जैसा ही होता है। यानी पहले अपने उग्र रवैये से सामाजिक और मानसिक दबाव बनाना, फिर मारकाट और अंत में अल्पसंख्यकों को खदेड़ कर शत-प्रतिशत इस्लामी क्षेत्र बना लेना। ठीक यही षड्यंत्र पहले भारत में कश्मीर घाटी में और अब डोडा में करने का प्रयास चल रहा है। थाईलैण्ड के उक्त तीनों प्रान्तों में भी ठीक ऐसा ही हो रहा है। इस देश में 2004 का वर्ष काफी उपद्रव ग्रस्त रहा। इन तीन प्रान्तों में अल्पसंख्यक बौद्धों की हत्याएं और भगवान बुद्ध की मूर्तियों को तोड़ना, सुरक्षा बलों से मुठभेड़, बौद्ध भिक्षुओं पर हमले, थाई सत्ता के प्रतीकों, स्कूलों, थानों, सरकारी संस्थानों पर हमले और तोड़फोड, निहत्थे दुकानदारों और बाग मजदूरों की हत्या एक आम बात हो गई थी। प्रतिदिन छुरेबाजी या गोली से उड़ाने की चार-छह वारदातें होती रहती थीं। छोटे-छोटे गांवों और मुहल्लों में बसे या अपना काम धंधा करने वाले बौद्धों और चीनी मूल के नागरिकों को लूटा और मारा गया। ये लोग अपनी दुकानें और सम्पत्ति छोड़कर या कौड़ियों के मोल बेचकर बड़े शहरों की ओर भागने लगे। बौद्धों और कुछ मुसलमानों को भी सरकारी आदमी बताकर मारा गया।

थाईलैण्ड के मुसलमानों ने थाई भाषा और जीवन प्रणाली को अंगीकार करने और थाई लोगों से घुल मिलकर रहने की बजाय पड़ोसी मुस्लिम देश मलेशिया से अपनी निकटता बनाए रखी है और मलय भाषा को अपना कर वे अपने को एक पृथक राष्ट्र के रूप में उजागर करने के लिए प्रयत्नशील हैं। वर्षों की इस सप्रयास दूरी को अब इस मुस्लिम आतंकवाद और अलकायदावाद ने खूब बढ़ावा दिया है और थाईलैण्ड में अलकायदावाद का मूल हथियार बनी है, इंडोनेशिया आधारित “जेमाह जमात इस्लामियाह”, जिसके गुट अलग-अलग नामों से प्राय: सभी “आसियान” देशों में फैले हुए हैं। इनका एक ही उद्देश्य है- गैर-मुस्लिमों का सफाया और गैर-मुस्लिम सत्ता से सशस्त्र संघर्ष, कभी-कभी मिस्र और पाकिस्तान की तरह मुस्लिम सत्ता से भी। इसी प्रकार के कटु अनुभव से थाईलैण्ड भी गुजर रहा है। बहरहाल इसकी चर्चा अधिक न करते हुए अब देखते हैं कि इस्लामी आतंकवाद से निपटने के भारत और थाईलैण्ड के तौर तरीकों या नीति में अन्तर क्या है?

एक घटना-एक सबक

थाईलैण्ड के मुस्लिम युवक भी पाकिस्तान या अफगानिस्तान के तालिबान से कम कट्टर और मतान्ध नहीं हैं। बात 28 अप्रैल, 2004 की है। पट्टानी प्रान्त में उस दिन उन्माद भरे मुस्लिम जवानों ने सेना से संघर्ष किया। इस भिडंत में 100 उन्मादी तत्व और 10 सैनिक मारे गए और 16 को सैनिकों ने बंदी बना लिया। किन्तु अभी संघर्ष चल ही रहा था कि बचे हुए 32 मुस्लिमों ने जाकर एक पुरानी मस्जिद में शरण ले ली और वहां से लड़ाई जारी रखी। जब छह घंटे तक भी इन लोगों ने हथियार नहीं डाले तो सैनिक मस्जिद में घुस गए और सभी को गोली से उड़ा दिया। इस पर पाकिस्तान में और बंगलादेश में लश्करे तोइबा और “हरकत-उल-जिहाद” आदि संगठनों ने संयुक्त राष्ट्र तक में यह मामला उठाने की कोशिश की। मारे गए मुस्लिमों की “करबला के शहीदों” से तुलना की। एक और तुलना भी प्रासंगिक होगी। कई वर्ष पूर्व कश्मीर में “चरारे शरीफ” नामक दरगाह में कुछ आतंकवादी सुरक्षा बलों की मार से बचने के लिए जा छिपे थे। पर हमारे सुरक्षा बलों को दरगाह में नहीं घुसने दिया गया। इतना ही नहीं, सुरक्षा बलों ने आतंकियों को स्वादिष्ट बिरयानी और गरमागरम भोजन कराया और करीब सप्ताह भर की घेरेबंदी के बाद उन्हें अपने हथियारों समेत जाने भी दिया।

साहसी महारानी

थाईलैण्ड के संविधान के अनुसार यद्यपि नरेश को बहुत सीमित अधिकार प्राप्त हैं, किन्तु राज परिवार को बहुत सम्मान दिया जाता है और यदा कदा किसी राजनीतिक विषय पर वह कुछ बोलता है तो उस पर बहुत ध्यान दिया जाता है। वहां का समाज राज परिवार से ढाढ़स और मार्ग दर्शन की अपेक्षा भी करता है। जब 2004 में करीब 10 महीनों तक मुस्लिम बहुल दक्षिण प्रान्तों में उपद्रव नहीं रुके तो प्रधानमंत्री सहित देश के सभी वर्गों के 930 सदस्यों के शिष्टमंडल ने महारानी सिरीकित से भेंट की। अपने 50 मिनट के उद्बोधन में उन्होंने जो उद्गार प्रगट किए, वे उनकी चिंता, पीड़ा और दृढ़ संकल्प के परिचायक हैं। उनके भाषण के कुछ अंश ध्यान देने योग्य हैं-

महारानी सिरीकित ने कहा -“सब कुछ सरकार पर मत छोड़िए, हर देशवासी का कर्तव्य है कि वह देश के लिए कुछ करे…. हमारे देशवासी सच्चे और ईमानदार हैं किन्तु आज वे अपनी रोटी नहीं कमा सकते क्योंकि उनके जीवन को खतरा पैदा हो गया है…. मैं उन मानवाधिकारवादियों से कहना चाहूंगी कि उन लोगों ने जो आतंकियों द्वारा मारे गए, कोई अपराध नहीं किया था… मैंने दक्षिण क्षेत्र के कमांडरों से कहा है कि वे बौद्ध स्त्रियों को बंदूक चलाना सिखाएं….. मैं वादा करती हूं कि इस 72 वर्ष की अवस्था में मैं भी बिना चश्मे के बंदूक चलाना सीखूंगी…. मैं इस क्षेत्र (दक्षिण) के मुसलमानों को 30 साल से जानती हूं कि वे भले मानस हैं…. मुझे चिंता है उन बौद्धों की जो वहां की 18 लाख की आबादी में मात्र 20 प्रतिशत हैं।”

महारानी के इन शब्दों में वहां के शासन की नीति और व्यवहार को पढ़ा जा सकता है। यद्यपि थाईलैंड में आतंकवाद अभी मिटा नहीं है पर उसमें बहुत कमी आई है। हमारी तरह सरहद पार के मुस्लिम आतंकवाद से थाईलैण्ड भी परेशान है। यहां उस पार पाकिस्तान है और वहां कट्टरता की राह पर तेजी से आगे बढ़ता पड़ोसी शरारती देश मलेशिया। थाईलैण्ड ने आतंकवाद से निपटने की महारानी की सीख समझ ली है, पर भारत में शासन को कौन सीख देगा? उत्तर की प्रतीक्षा है।

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